भाजपा और आरएसएस देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल को आमने-सामने खड़ा करने का उपक्रम दशकों से चला रहे हैं और इतिहास को अपनी वैचारिकी के अनुकूल तोड़ने मरोड़ने का उनका उद्यम बदस्तूर जारी है।
इस उद्यम में अब एक नए ‘इतिहासकार’ का नाम जुड़ गया है और वे हैं देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, जिन्होंने दावा किया है कि नेहरू सरकारी खजाने से बाबरी मस्जिद का पुनर्निर्माण करवाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।
गुजरात के वड़ोदरा में एक सभा में राजनाथ सिंह ने पटेल को सच्चा धर्मनिरपेक्ष बताते हुए नेहरू पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। राजनाथ सिंह ने अपने दावे के लिए सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल की डायरी द इनसाइडर ऑफ सरदार पटेल का हवाला दिया है।
दरअसल यह संदर्भ को काटकर इतिहास को अपनी सुविधा से मोड़ देने की कोशिश है। वास्तविकता यह है कि आजादी मिलने के कुछ समय बाद 22 दिसंबर, 1949 को कुछ लोगों ने अयोध्या में मस्जिद में घुस कर केंद्रीय गुंबद के नीचे भगवान राम और सीता की मूर्ति रख दी थी।
इसके चार दिन बाद 26 दिसंबर, 1949 को नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिखकर चिंता जताई थी, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि इसका असर पूरे देश पर पड़ रहा था। यहां तक कि खुद सरदार पटेल ने भी पंत को चिट्ठी लिखकर कहा था कि यह विवाद बेहद अनुचित समय में उठाया गया था।
याद दिलाया जाना जरूरी है कि जिन मणिबेन पटेल की डायरी के बहाने राजनाथ सिंह नेहरू पर हमले कर रहे हैं, उन मणिबेन पटेल को पहले आम चुनाव पर कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा भेजने वाले कोई और नहीं नेहरू ही थे।
यह भी याद दिलाने की जरूरत है कि 14 नवंबर, 2014 को पंडित नेहरू की 125 वें जयंती के कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने देश के प्रथम प्रधानमंत्री की जमकर तारीफ की थी और कहा था कि उन्होने कठिन समय में देश को दिशा दी थी।
यही नहीं, राजनाथ सिंह ने नेहरू की समावेशी नीतियों की तारीफ करते हुए कहा था कि राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी उनका नजरिया समावेशी था।राजनाथ सिंह खुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं, लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंन कभी यह मुद्दा नहीं उठाया था।
वास्तव में व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी जैसी धारणाएं फैला कर राजनाथ सिंह जैसे संजीदा नेता ने अपना कद ही कम किया है। आखिर ऐसी क्या मजबूरी है, कि उन्हें एक दशक के भीतर नेहरू पर कही अपनी बातों के उलट बातें कहनी पड़ी हैं?

