उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने देश के सबसे बड़े सूबे में मंडलों के कमिश्नरों और आईजी (पुलिस महानिरीक्षक) को अवैध प्रवासियों को रखने के लिए डिंटेशन सेंटर स्थापित करने का फरमान जारी किया है। ऐसा पहली बार नहीं है, इससे पहले भी योगी सरकार सारे जिलों में ऐसे डिटेंशन सेंटर स्थापित करने का निर्देश दे जी चुकी है, जहां कथित तौर पर अवैध तरीके से सूबे में रह रहे बांग्लादेशियों और रोहिंग्या को रखा जाएगा, ताकि उन्हें वहां से देश की सरहद से बाहर भेजा जा सके।
इस फरमान को नागरिकता संशोधन कानून के साथ हुई कवायद के साथ मिलाकर ही देखना चाहिए, जिसे एसआईआर यानी मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण के जरिये आगे बढ़ाया जा रहा है।
सबसे बड़ी आबादी और निस्संदेह सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाले उत्तर प्रदेश में इस फरमान के सियासी मायनों को समझना मुश्किल नहीं है।
सबसे पहली बात, घुसपैठिये या अवैध अप्रवासियों को लेकर केंद्र की मोदी सरकार और तमाम भाजपा शासित राज्य अति सक्रिय हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। सरकार की प्राथमिकता को इसी से समझा जा सकता है कि इस मामले में बिना वैध दस्तावेज के उत्तर प्रदेश में रह रहे अवैध प्रवासियों से संबंधित जानकारियां सीधे मुख्यमंत्री कार्यालय को भेजी जानी हैं।
वास्तव में अवैध प्रवासियों का मुद्दा सिर्फ भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक वैश्विक मुद्दा भी है, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यह सिर्फ कानूनी या नागरिकता से जुड़ा मुद्दा भर नहीं है, बल्कि यह एक गहरे मानवीय सरोकार से जुड़ा मुद्दा भी है।
अनागरिक होने का अपना दर्द है, जिसने दुनियाभर में लाखों लोगों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। यह दर्द कितना पीडादायक है, इसे समझना हो तो एक दशक पहले दो सितंबर, 2015 को सीरिया के तट पर मिले उस बच्चे के शव की मार्मिक तस्वीर को याद कर सकते हैं, जिसने दुनिया को स्तब्ध कर दिया था!
दरअसल अवैध प्रवासियों की शिनाख्त ने एक बड़े अल्पसंख्यक वर्ग को ही कठघरे में ख़ड़ा कर दिया है। और ऐसा सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं, बल्कि देश के बड़े हिस्से में हो रहा है।
हैरत नहीं होनी चाहिए कि पांच साल पहले दिसंबर, 2019 में प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भाजपा के अभियान की शुरुआत करते हुए दावा किया था, कि देश में एक भी डिटेंशन सेंटर नहीं है। उन्होंने कहा था, देश के मुसलमानो को न तो ना तो डिटेंशन सेंटर में भेजा जा रहा है, और न ही हिंदुस्तान में कोई डिटेंशन सेंटर हैं।
लेकिन सच्चाई इसके उलट है। पिछले कुछ महीनों के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से पश्चिम बंगाल के कई बांग्लाभाषी नागरिकों के बांग्लादेशी होने के संदेह में पकड़ा गया है। बाद में पता चला कि वे पश्चिम बंगाल के रहने वाले मजदूर थे, जो काम की तलाश में देश के विभिन्न हिस्सों में चले गए थे।
राजधानी दिल्ली में ही एक गर्भवती महिला सुनाली खातून उनके पति तथा उनके परिवार के कई सदस्यों को एक अन्य परिवार के लोगों के साथ संदेह के आधार पर न केवल पकड़ा गया, बल्कि उन्हें बांग्लादेश की सीमा के बाहर छोड़ दिया गया था। पांच महीने बाद हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद ही सुनाली खातून अपने बच्चे के साथ भारत लौट सकीं।
यह सचमुच त्रासद है कि चुनी हुई सरकार अपने ही नागरिकों पर संदेह कर रही है। यह स्वाभाविक न्याय के भी खिलाफ है, लेकिन इस तरह की बातें बेमानी हो चुकी हैं। शायद ऐसी ही स्थिति के लिए मुक्तिबोध ने लिखा थाः भूल-ग़लती आज बैठी है/ ज़िरहबख़्तर पहनकर/तख़्त पर दिल के/चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक/आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज़ पत्थर-सी;खड़ी हैं सिर झुकाए/ सब क़तारें/ बेज़ुबाँ बेबस सलाम में/अनगिनत खंभों व मेहराबों-थमे/दरबारे-आम में/

