उच्च शिक्षण संस्थानों का विभिन्न पैमानों के आधार पर आकलन करने वाली प्रतिष्ठित क्यूएस एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग-2026 में भारत के सात संस्थान शीर्ष सौ में शामिल जरूर हैं, लेकिन उनकी रैंकिंग में आई गिरावट चिंता का कारण होना चाहिए।
गजब यह है कि सरकार इसी बात पर अपनी पीठ ठोंक रही है कि 2016 के बाद से अब तक भारत के 137 और संस्थान रैकिंग में शामिल हो चुके हैं और अब उसके 294 संस्थान क्यूएस एशिया रैंकिंग में शामिल हैं।
लंदन स्थित क्वाक्वरेली साइमंड्स (क्यूएस) हर साल वैश्विक और एशिया के स्तर पर यूनिवर्सिटी की इस तरह की रैंकिंग जारी करती है, जिससे उच्च शिक्षण संस्थानों की दशा और दिशा का पता चलता है। यह सचमुच दयनीय स्थिति है कि भारत के शीर्ष दस संस्थानों में से एक भी वैश्विक तो छोड़ें एशिया के शीर्ष पचास संस्थानों तक में कहीं नहीं है।
आईआईटी दिल्ली पिछली बार एशिया रैंकिंग में 44 वें स्थान पर था, लेकिन इस बार वह 15 अंक नीचे गिर कर 59 वें स्थान पर पहुंच गया है! इससे भी बुरी स्थिति बॉम्बे आईआईटी की है, जो 48 वें स्थान से नीचे गिर कर 71 वें स्थान पर पहुंच गया है।
यही हाल बाकी आईआईटी का है और जब देश के इन शीर्ष प्रौद्योगिकी संस्थानों का यह हाल है, तो दूसरे संस्थानों के बारे में सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वास्तविकता यह है कि 140 करोड़ के देश में आज एक भी ऐसा उच्च शिक्षण संस्थान या यूनिवर्सिटी नहीं है, जिसे वैश्विक रैकिंग के शीर्ष सौ में जगह मिल सके।
हमारे जैसी आबादी वाली दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था चीन की तो बात ही छोड़ दें, सिंगापुर, मलयेशिया और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी हमसे उच्च शिक्षण और प्रौद्योगिकी संस्थानों की गुणवत्ता के मामले में बहुत आगे हैं। यह विडंबना ही है कि शिक्षण संस्थानों की इस दुर्दशा पर न तो संसद में और न ही उसके बाहर गंभीरता से कोई चर्चा होती दिखती है।
राजनीतिक वर्ग से इतर बौद्धिक और अकादमिक जगत में भी यह चिंता गंभीरता से दिखाई नहीं देती कि हमारे संस्थान आखिर वैश्विक स्तर का शोध क्यों नहीं प्रस्तुत कर पा रहे हैं। इसके उलट हाल यह है कि कुछ समय पूर्व हिमाचल के मंडी स्थित आईआईटी के निदेशक का एक निहायत ही विज्ञान और तर्क विरोधी बयान सामने आया था, जिसमें उन्होंने मांसाहार को पहाडी क्षेत्र में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं का कारण बताया था।
वह दृश्य भी लोग नहीं भूले होंगे, जब देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह राफेल जैसे अत्याधुनिक लड़ाकू विमान के पहियों के नीचे नींबू और मिर्च रखते नजर आए थे।
जब पौराणिक कथाओं और मिथकों को इतिहास बताया जा रहा हो, तो विकास के सिद्धांत पर गंभीर चर्चा की गुंजाइश वैसे भी कम हो जाती है। इसी का नतीजा है कि डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया जाता है।
ढांचागत सुविधाओं की तो बात ही छोड़ दें। हाल यह है कि हमारे आईआईटी शिक्षक- विद्यार्थी अनुपात के मामले में एमआईटी या हार्वर्ड जैसे संस्थानों के आगे कहीं नहीं टिकते।
प्रधानमंत्री मोदी और समूची भाजपा भारत के विश्व गुरु बनने का दावा करती है, लेकिन उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि अकादमिक मामले में पूरी स्वायत्तता और वैज्ञानिक सोच को आगे बढ़ाए बिना भारत को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वह जगह नहीं मिल सकती, जिसका वह हकदार है।

