इस साल पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के सौ साल के सफ़र की प्रशंसा करते हुए इसे दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ (ग़ैरसरकारी संगठन) घोषित किया। फिर महात्मा गांधी की जयंती यानी 2 अक्टूबर को आरएसएस पर डाक-टिकट और सौ रुपये का सिक्का भी जारी किया।
संयोग से इस बार गांधी जयंती और आरएसएस का स्थापना दिवस यानी विजयदशमी एक ही दिन थी, पर मोदी जी आरएसएस की प्रशंसा में ही डूबे। महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और सद्भाव पर बात करना उनके लिए वैसे भी मुश्किल रहा है।

जब सरकारी स्तर पर एक एनजीओ को इतना सम्मान दिया जा रहा हो तो यह बताना भी चाहिए कि इस संगठन की देश के निर्माण में क्या भूमिका रही जिससे प्रेरणा ली जानी चाहिए? हर एनजीओ किसी प्रोजेक्ट पर काम करता है। आख़िर आरएसएस का ‘प्रोजेक्ट’ क्या है? सरकार ने एनजीओ के लिए पंजीकरण आवश्यक कर रखा है पर आरएसएस तो आज तक पंजीकृत नहीं है!
एक गैर-पंजीकृत एनजीओ भारत सरकार, ख़ासतौर पर प्रधानमंत्री का प्रेरणास्रोत हो तो यह बेहद गंभीर बात है, ख़ासतौर पर जब उस एनजीओ ने सार्वजनिक रूप से संविधान और उसके निर्माता डॉ. आंबेडकर का पुतला फूंका हो और भारतीय राज्य के संप्रभुता के प्रतीक तिरंगे को नकारा हो।
क्या यह संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाने वालों का भारतीय राज्य को किसी ऐसी ‘संविधानेतर सत्ता’ के चरणों में समर्पित करना नहीं है, जो संविधान को ही अपने पैरों से कुचलना चाहती है?
यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि आरएसएस में जो ‘राष्ट्रीय’ शब्द है, वह किसका संकेत है और इसका उस ‘राष्ट्र’ से क्या लेना-देना है जो महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की आग से तप कर बना है। क्या आरएसएस का ‘राष्ट्र’ और महात्मा गांधी का ‘राष्ट्र ‘एक ही है या फिर दोनों एक दूसरों की क़ीमत पर ही संभव हैं, जैसा कि आलोचकों का मानना है।
नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस से अलग होने और कथित तौर पर महात्मा गांधी की शुभेच्छाएं खोने के बावजूद उन्हें ‘राष्ट्र-पिता’ कहा था तो उसकी वजह बेहद साफ़ थी। वे स्पष्ट थे कि महात्मा गांधी के नेतृत्व ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले आम जन के शोक को शक्ति में बदलने का जो अभूतपूर्व काम किया है वह एक ऐसे नवीन राष्ट्र को जन्म दे रहा है जो अतीत के किसी कालखंड में नहीं था।
वह लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष होगा। एक ऐसा देश जहां, वैधानिक रूप से सभी बराबर के नागरिक होंगे और सभी धर्मों को बराबर सम्मान होगा। ये वही लक्ष्य थे जिसके लिए सुभाषचंद्र बोस भी समर्पित थे, हालांकि गांधी की अहिंसा को त्यागकर उन्होंने सैन्यवादी रुख़ अपनाया था। इसके उलट आरएसएस के तमाम नेताओं ने कई बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मानने से सार्वजनिक रूप से इंकार किया है। उनके लिए भारत हज़ारों साल से राष्ट्र है (कैसा था, यह उनके लिए मायने नहीं रखता)।
आजादी के संघर्ष में की गई अंग्रेज़परस्ती और महात्मा गांधी की हत्या का मसला भुला दें तो भी यह सवाल रहेगा ही कि बतौर स्वतंत्र राष्ट्र भारत की यात्रा में वह कहां खड़ा था। सच ये है कि उसने भारतीय नागरिक बोध पर लगातार सांप्रदायिकता का हथौड़ा मारा है और भारतीय संस्कृति का हवाला देते हुए ज्ञान-विज्ञान के परिसरों पर हमला बोला है। उसके मंदिर मस्जिद अभियान में भारत के कई दशक बर्बाद हो गए और कभी चीन के बराबर खड़ा भारत आज उससे दशकों पीछे हो गया है।
रोज़ सुबह शहर-कस्बों में लगने वाली आरएसएस की शाखाएं और कुछ नहीं महात्मा गांधी के राष्ट्र की बुनियादी संकल्पनाओं को नष्ट करने की एक अर्धसैनिक तैयारी है। वरना किसी लोकतंत्र में ऐसे सैनिक तौर-तरीक़ों से दस्ते बनाकर हथियारों का प्रशिक्षण देना बग़ावत की तैयारी ही मानी जा सकती है। लोकतंत्र में आम नागरिक पुलिस और सेना की सुरक्षा के साये में रहता है जिन्हें हर लिहाज़ से मज़बूत करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।
अपनी सुरक्षा का सैनिक इंतज़ाम वही करते हैं, जिन्हें या तो सरकार पर भरोसा नहीं या फिर वे किसी बड़े विद्रोह की तैयारी में हैं। अपने शताब्दी वर्ष संबोधन में सरसंघचालक मोहन भागवत ने फिर कहा है कि ‘हिंदुओं का संगठित होना सुरक्षा की गारंटी है।’ यानी पुलिस और सेना के हवाले हिंदुओं की सुरक्षा नहीं छोड़ी जा सकती भले ही एक पूर्व प्रचारक तीसरी बार प्रधानमंत्री हो और तमाम राज्यों में भी बीजेपी की ही सरकारें हों।
क्या जिन्ना के सोच की तरह भारतीय राष्ट्र को भी किसी एक धर्म पर आधारित होना चाहिए जैसा कि आरएसएस प्रयास कर रहा है या फिर एकता के लिए सभी भारतीयों को संवैधानिक संकल्पों पर संगठित करना होगा। फिर, संगठित होने का उद्देश्य क्या है?
अनुशासन की आड़ में मुस्लिमों और ईसाइयों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के आरएसएस के खेल को महात्मा गांधी ने समय रहते भाँप लिया था। आरएसएस के लोग अक्सर हवाला देते हैं कि महात्मा गांधी ने शाखा में जाकर संगठन के अनुशासन की सराहना की थी, पर यह नहीं बताते कि महात्मा गांधी ने किस तरह उन्हें चेताया ता।
16 सितंबर, 1947 को दिल्ली में RSS के स्वयंसेवकों को गांधी जी ने संबोधित किया था। उस समय भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद सांप्रदायिक तनाव चरम पर था। गांधी ने RSS को सावधान करते हुए कहा कि हिंदू धर्म और संस्कृति को संकीर्ण और बहिष्कारवादी नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने कहा था-
“मैंने सुना है कि RSS बहुत अनुशासित संगठन है और इसकी ताकत भारत के हित में या उसके खिलाफ इस्तेमाल हो सकती है। मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि हिंदू संस्कृति और धर्म की प्रार्थनाओं को इतना संकीर्ण न बनायें कि गैर-हिंदू, विशेषकर मुसलमान, डर जायें या भारत में गुलाम बनकर रहने को मजबूर हों। यदि आप यह मानते हैं कि भारत में केवल हिंदुओं के लिए जगह है और बाकियों को गुलाम बनाना है, तो यह हिंदू धर्म को नष्ट कर देगा। हिंदू धर्म असहिष्णु या बहिष्कारवादी नहीं है। यह सभी धर्मों का सम्मान करता है।” (The Collected Works of Mahatma Gandhi, Volume 89, पृष्ठ 225-227)
निश्चित ही महात्मा गांधी एक सनातनी हिंदू थे, लेकिन उनका धर्म किसी को पराया न मानने की सीख देता था। भारत की आज़ादी के समय रेलवे-स्टेशनों पर ‘हिंदू पानी’ और ‘मुस्लिम पानी’ बिकता था। आरएसएस और उससे जुड़े संगठन आज वही स्थिति फिर लाना चाहते हैं।
आरएसएस के शताब्दी समारोह के समय देश के कई शहरों में ‘मुस्लिमों का संपूर्ण आर्थिक बहिष्कार’ करने का आह्वान करते भगवा-ध्वजधारियों का जुलूस निकला। यह सीधे-सीधे संविधान पर हमला है पर कहीं ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी से लेकर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक सार्वजनिक सभाओं में सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक आबादी को परायापन पैदा करने वाला भाषण देने से हिचकते नहीं हैं।
उन्हें अच्छी तरह पता है कि मोहन भागवत का यह कहना कि ‘मुस्लिमों के बिना हिंदुत्व अधूरा है’ सिर्फ़ छल है। भागवत तो यह भी कह चुके हैं कि इस देश में रहने वाले सभी हिंदू हैं पर जब अख़लाक़ जैसे ‘हिंदुओं’ की लिंचिंग होती है तो उनके मुँह से सांत्वना के दो शब्द तक नहीं फूटते और यह संयोग नहीं है। अपने मुस्लिम विरोधी अभियान के ज़रिए ही आरएसएस ने बीजेपी को शक्तिशाली बनाया है।
आरएसएस दरअसल सावरकर के उसी सिद्धांत पर चल रहा है जिसमें राष्ट्र-निष्ठा को ‘पितृभूमि’ और ‘पुण्यभूमि’ की शर्त से जोड़ा गया है। पितृभूमि भारत है पर मुसलमानों का मक्का और ईसाइयों का येरूशलम तो भारत में है नहीं, इसका मतलब है कि वे कभी भी देशभक्त नहीं हो सकते।
हाल में तो यह विवाद भी पैदा किया गया कि अपने प्रिय भजन में ईश्वर के साथ अल्लाह को जोड़कर महात्मा गांधी ने हिंदू धर्म को दूषित किया है। जबकि कबीर, नानक, रैदास जैसे संतों ने ही समझाया था। यह दुस्साहस इस स्तर का है कि कई नफ़रती टीवी ऐंकरों ने महात्मा गाँधी को अपराधी ठहराने के लिए इसे मुद्दे पर डिबेट भी आयोजित की थी।
यह दो राष्ट्रों की लड़ाई है। महात्मा गांधी ने हमें जो राष्ट्र दिया है, आरएसएस उसे नष्ट करने का एक अर्धसैनिक अभियान है। ‘हिंदुओं के सैन्यीकरण’ और ‘सेना के हिंदूकऱण’ के अपने सिद्धांत को अमल में लाने के लिेए उसे हर हाल में सरकार बनाये रखने की ज़रूरत है।
इसके लिए वह देश में नफ़रत का परनाला बहा रहा है, क्योंकि हिंदुओं को ‘आदेश-पालक’ वोटबैंक बनाने का उसे कोई दूसरा रास्ता समझ नहीं आता। लेकिन राजनीतिशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है कि इस अभियान का वैसा ही अंत होगा जैसा हिटलर के जर्मनी का हुआ था। ऐसे में सवाल ये है कि क्या गांधी के ‘राष्ट्र’ पर यक़ीन करने वाले किसी स्टालिन का इंतज़ार करेंगे या इस युद्ध में स्वयं कूदेंगे?
यह महात्मा गांधी ही नहीं, पं.नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह और डॉ.आंबेडकर के सपनों के भारत को अंग्रेज़ों के मुखबिरों के पंजे से छुड़ाने का सवाल है। इस सवाल के जवाब में ही भारत का भविष्य छिपा हुआ है।
- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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