एक समय था, जब पक्ष-विपक्ष के सियासतदान भाषाई मर्यादा का पूरा पालन करते थे। जुबान पर काबू रहता था। लेकिन अब, मर्यादा का बैरियर लांघने के प्रसंग आम हो गए हैं। पिछले दिनों मुख्यमंत्री मोहन यादव ने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी के बारे में यह कह दिया कि पटवारी को “रात में ज्यादा” हो गई होगी, इसलिए उन्होंने “सुबह” राज्य सरकार पर ऐसा आरोप लगा दिया।

दरअसल, पटवारी ने आरोप लगाया था कि मोहन सरकार ने “मध्यप्रदेश को नशे का गढ़” बना दिया है। जाहिर है, पटवारी को मुख्यमंत्री की इस बात का जवाब देना ही था, तो उन्होंने एक आमसभा में उत्तर दिया। खुद ही बताया कि यादव ने किस चैनल के किस कार्यक्रम में उनके बारे में “रात में इतनी ज्यादा पी ली होगी” वाली बात कही।
जीतू बोले-“मैंने आज तक कोई व्यसन नहीं किया। सिगरेट, बीड़ी, पान, तंबाकू कुछ नहीं। ईश्वर ने सबसे बचा लिया अपन को। लेकिन मुझे लगता है कि इत्ता बड़ा “भांग का गोला” डालकर बोल रहे होंगे मोहन यादव जी। अरे, मोहन भिया ‘गोली’ थोड़ी छोटी रखो। बड़ी मत रखो। और अगर आपको मेरे पर शंका है तो मैं कोई भी टेस्ट कराने को तैयार हूं। लेकिन आपके साथ, अकेले नहीं कराऊंगा। अगर मेरे में कुछ गड़बड़ निकली तो मैं राजनीति से संन्यास ले लूंगा, पर आपमें दम है टेस्ट कराने का?”
“चोर की मां”, पुलिस और कैलाश विजयवर्गीय

वैसे नशे के बढ़ते कारोबार के बारे में तो भाजपा के भीतर भी आवाज़ें उठती रही हैं। मोहन सरकार के कद्दावर मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने तो पिछले साल इन्हीं दिनों मुख्यमंत्री यादव की मौजूदगी में ही इंदौर में नशे के कारोबार पर सवाल खड़े किए थे। कहा था- “इसके तार राजस्थान के प्रतापगढ़ से जुड़े हैं।
इस कारोबार के पीछे कौन लोग हैं, मुझे पता है। एमपी की पुलिस ने चोर तो पकड़ लिया, मगर चोर की मां तक पहुंचना होगा।” विजयवर्गीय चूंकि भाजपा के नेता हैं, पार्टी के अनुशासन से बंधे हैं। नशे के धंधे के बारे में जो कुछ उन्होंने तब कहा था, सार्वजनिक रूप से इससे ज्यादा साफ-साफ वे कह भी क्या सकते थे? कारण- गृह विभाग तब भी मुख्यमंत्री के पास था, और अब भी है। वे ही इंदौर के प्रभारी भी थे और हैं। कहने का मतलब है कि, विजयवर्गीय यदि और ज्यादा बोलते तो माना जाता कि पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाकर वे सीएम को “टारगेट” कर रहे हैं।
लिहाजा, वे आगे नहीं बढ़े और सिर्फ “ड्रग्स के कारोबार” तक सीमित रहे। चाहते तो “शराब” तक पहुंच सकते थे, क्योंकि नशा तो “शराब” में भी होता है। मगर, नहीं…..शराब को नहीं छेड़ा। मुमकिन है, “शराब” को यह परखने के लिए ‘होल्ड’ पर रख लिया हो कि ड्रग्स के मामले में पुलिस “चोर की मां” तक पहुंचती है या नहीं? इस बात को साल भर बीत चुका है।
अब ये विजयवर्गीय ही बता सकते हैं कि “चोर की मां” तक पहुंची या नहीं, पुलिस? वैसे, सार्वजनिक रूप से न तो उन्होंने, न ही पुलिस ने बताया है अभी तक। यह भी हो सकता है कि पुलिस ने “पर्सनली” विजयवर्गीय को तो बता दिया हो, लेकिन वे न बता रहे हों…यही कि मां तक पहुंची या नहीं?
वैसे, एक बात और है…विजयवर्गीय ने तो फिर भी हिम्मत दिखाई। बल्कि, वे जब-तब दिखाते रहते हैं। ये उनके मिजाज में है। वो तो कालचक्र है, वर्ना बीजेपी में कौन नहीं जानता कि पार्टी के ढांचे में मोहन यादव के वे कल भी “भाई साब” थे और आज भी “भाई साब” ही हैं। बहरहाल, परोक्ष रूप से विजयवर्गीय ने भी वही कहा था, जो पटवारी ने बोला कि-“मध्यप्रदेश नशे का गढ़” बना दिया गया है।
सिंधिया की ‘दिल्ली’ से बात हो गई है, वर्ना…

महत्वाकांक्षा, किसी भी व्यक्ति को बड़े सपने देखने और नई चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करती है। यह एक आंतरिक गुण है, जो जीवन को बेहतर बनाने या खास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। और, एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति लक्ष्य हासिल करने के लिए कड़ा परिश्रम करता है, रणनीतियां बनाता है, और चुनौतियों को रास्ते से हटाता जाता है। कहा जा सकता है, महत्वाकांक्षा के बगैर जीवन व्यर्थ है।
पिछले दिनों कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह के साथ हुए परोक्ष संवाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया की जिस “महत्वाकांक्षा” का उल्लेख किया था, उसके दीदार अब भाजपा के भीतर गाजे-बाजे के साथ हो रहे हैं। बल्कि, सिंधिया ‘करवा’ रहे हैं। वैसे भी उन्हें भाजपा में शामिल हुए 66 माह बीत चुके हैं। आखिर धैर्य की भी सीमा होती है। लिहाजा, वे अब ‘सक्रियता’ दिखा रहे हैं।
हाल में उन्होंने ग्वालियर और मुरैना में बैठकें कर एक प्रकार से विधानसभा के स्पीकर नरेंद्र सिंह तोमर समेत बीजेपी के तमाम प्रादेशिक क्षत्रपों को यह जताया कि वे किसी हाल में अपनी “राजनीतिक जमीन”, जो उन्हें उनके पुरखों से विरासत में मिली है, को खुला नहीं छोड़ सकते।
फिर, भले ही यह तंज़ क्यों न किया जाए कि- “मैं लाया, मैं लाया, उन्हें मैं से ही फुर्सत नहीं मिलती (तोमर ने कुछ माह पहले यह टिप्पणी की थी)।” देखा जाए तो सिंधिया गुना से सांसद हैं। तकनीकी दृष्टि से उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत जिलों तक ही सीमित रहना चाहिए, लेकिन जब उन्होंने सीमा पार की तो बीजेपी का एक तबका हिल गया। हलचल मच गई। दौड़ भाग शुरू हो गई। लोग दिल्ली-भोपाल करने लगे।
मुरैना में तो फिर भी सिंधिया ने अपने विभाग का कोई कार्यक्रम किया, यद्यपि नरेंद्र तोमर पता नहीं आमंत्रित थे या नहीं। लेकिन, ग्वालियर में जिले के विकास कार्यों पर बैठक बुलाने को पार्टी के भीतर सहज भाव से नहीं लिया जा रहा है। इसके कुछ कारण हैं। मसलन- सिंधिया ग्वालियर के नहीं, गुना के सांसद हैं।
मतलब वे ग्वालियर की बैठक बुलाने के लिए पात्र नहीं हैं। खासकर तब और ज्यादा, जबकि ग्वालियर के सांसद भारत सिंह कुशवाह दो दिन पहले ही जिला विकास समन्वय एवं निगरानी समिति (दिशा) की बैठक कर चुके थे। ये त्रैमासिक बैठक क्षेत्रीय सांसद की अध्यक्षता में आयोजित की जाती है।
सवाल यही है कि फिर सिंधिया ने ग्वालियर की बैठक क्यों की? क्या उन्हें नियम की जानकारी नहीं थी? क्या किसी ने उन्हें बताया नहीं? हालांकि, वे कह सकते हैं कि यह “दिशा” की बैठक नहीं थी। इसे ग्वालियर जिले के प्रभारी मंत्री तुलसी सिलावट ने बुलाया था। शायद, इसीलिए सिलावट और बिजली मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर, जो उनके “खाते” से ही केबिनेट में हैं, के अलावा मंत्री नारायण सिंह कुशवाह, पूर्व सांसद विवेक शेजवलकर, पूर्व मंत्री श्रीमती माया सिंह, पार्टी के मौजूदा और पूर्व जिला अध्यक्ष सहित संगठन के तमाम नेता और कांग्रेस से भाजपा में आए कई नेता इसमें शामिल हुए।
सांसद कुशवाह को भी न्यौता दिया गया था, लेकिन उन्होंने जवाब दे दिया, “मैं विकास कार्यों के काम से ही भोपाल में हूं, बैठक में शामिल नहीं हो सकता।” दरअसल, सिंधिया ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस के जमाने में अपने पुराने दबदबे की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं।
2019 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद जब वे कुछ नहीं थे, तब भी पूरे अंचल में उनका “हुक्म” चलता था। क्योंकि, 2018 में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। सांसद नहीं थे, बावजूद इसके प्रशासन की बैठकें लेते थे। भाजपा में आने के बाद उनका “दबदबा” सिकुड़ गया। जिलों के प्रशासन में होने वाली पोस्टिंग वगैरह भी ‘हिस्सों’ में बंट गई।
लिहाजा उनको सक्रिय होना पड़ा। एक धारणा यह भी है कि सिंधिया को यदि पार्टी के भीतर से शह न होती तो वे इतना खुलकर सामने नहीं आते। अपने पुत्र महाआर्यमन को इतनी कम उम्र में उन्होंने एमपी क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष चुनवा लिया, वो भी निर्विरोध। कुलमिलाकर, सिंधिया अब प्रदेश भाजपा के क्षत्रपों के लिए खासी चुनौती पेश करने जा रहे हैं। खासकर, ग्वालियर-चंबल और मालवा के अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में। लगता है, उनकी बात हो गई है, दिल्ली में किसी से।
तो ये तोमर का “नहले पे दहला” है…..

तो क्या यह मान लिया जाए कि सिंधिया के लिए सबकुछ आसान हो गया है? वे जैसी चाहें सियासत करें, क्या बीजेपी आलाकमान से उनको इसकी छूट मिल गई है? ऐसा नहीं लगता। अन्यथा, मुख्यमंत्री मोहन यादव, पूर्व सांसद केपी सिंह यादव के स्वर्गीय पिता की प्रतिमा का अनावरण करने अशोकनगर नहीं जाते।
कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री के अशोकनगर दौरे का कार्यक्रम ही ‘केपी’ के चक्कर में बना। वहां एक आमसभा भी हुई, लेकिन सिंधिया गैर हाजिर रहे, जबकि अशोकनगर उनके संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। इससे तो लगता है कि हर काम सिंधिया का चेहरा देखकर या उनसे पूछकर हो रहा हो, ऐसा भी नहीं है।
केपी से ही सिंधिया 2019 का चुनाव हारे थे। लिहाजा, वे क्यों चाहेंगे कि राजनीतिक तौर पर “केपी फैक्टर” कायम रहे? लेकिन, इसे ही सियासत कहते हैं। तभी अशोकनगर जाने से पहले शुक्रवार (19 सितंबर 2025) शाम को मुख्यमंत्री यादव पहुंचते हैं नरेंद्र सिंह तोमर के पास। दोनों के बीच आधा घंटा बात होती है। और शनिवार को सुबह रूसल्ला में केपी यादव के पिता की प्रतिमा का अनावरण करते हैं मोहन यादव। यह सिंधिया के “नहले पे देहला” था तोमर का?
क्या ऐसा हो सकता है कि मोहन यादव ने तोमर को बताया न हो कि मैं कल अशोकनगर जा रहा हूं और केपी यादव के पिताजी की प्रतिमा का अनावरण करूंगा। कल्पना ही की जा सकती है कि यदि बताया होगा तो तोमर की क्या प्रतिक्रिया रही होगी? कैसे हाव-भाव रहे होंगे या मुख मुद्रा रही होगी? उनके मन में क्या चल रहा होगा? क्या उन्हें ग्वालियर-मुरैना याद आ रहे होंगे? क्या उन्होंने मोहन यादव को रोका होगा या कहा होगा कि केपी यादव के कार्यक्रम में न जाइए, इससे सिंधिया जी को अच्छा नहीं लगेगा?
ये सब सियासत के कयासी सवालों की एक किस्म है, जो हर राजनीतिक दल में पाई जाती है। राजनीति में छोटे-मोटे प्रसंगों या घटनाक्रमों पर भी गौर किया जाता है। मसलन, तोमर का ग्वालियर में सिंधिया (जब कांग्रेस में थे) के धुर विरोधी प्रवीण पाठक और रश्मि पंवार के शोक संतप्त परिवारों के बीच उपस्थित रहना।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।