सीपीआई (एमएल) रेड स्टार के पॉलिटिकल ब्यूरो ने बिहार चुनाव के नतीजों पर एक वक्तव्य जारी किया है। यह वक्तव्य आज की चुनावी राजनीति पर पार्टी की वैचारिक स्थिति को भी स्पष्ट करता है। हम इस वक्तव्य को सीपीआई (एमएल) रेड स्टार की अपनी राजनीतिक लाइन के रूप ज्यों का त्यों प्रकाशित कर रहे हैं –
बिहार विधानसभा चुनाव ऐसे विशेष हालात में आयोजित हुए, जहाँ चुनाव आयोग (ECI) पहले ही फासीवादी शासन की कार्यकारी शाखा में बदल चुका है और पूरा प्रशासनिक ढांचा तथा पुलिस तथाकथित ‘डबल इंजन सरकार’ के पूर्ण नियंत्रण में है। अधिक ठोस रूप से देखें तो SIR द्वारा मतदाता सूची से जिन 65 लाख मतदाताओं को हटाया गया, उनमें लगभग 55% मुस्लिम, दलित, आदिवासी और महिलाएं थीं।
दूसरी ओर, रिपोर्टों के अनुसार मतदाता सूची में 14 लाख डुप्लीकेट मतदाता जोड़े गए। इसके अलावा, आचार संहिता के खुल्लमखुल्ला उल्लंघन के तहत ECI ने 25 लाख महिलाओं को सीधे 10,000 रुपये प्रत्येक के खाते में ट्रांसफर करने की अनुमति दी। कुल मिलाकर, ECI, प्रशासन और पुलिस पर अपने कब्ज़े का उपयोग करते हुए फासीवादी शासन के लिए चुनाव से जुड़े हर पहलू को अपनी मुट्ठी में रखना बेहद आसान हो गया।
ऐसी गंभीर परिस्थिति में भी विपक्षी गठबंधन, जो एक स्पष्ट फासीवाद विरोधी विकल्प से विहीन था और जिसकी बुनियादी वैचारिक-राजनीतिक कमजोरी थी, पूरे चुनाव अभियान में संगठनात्मक बिखरेपन का तमाशा पेश करता रहा। ‘वोट चोरी’ के प्रश्न के अलावा जाति जनगणना, नवउदारवादी नीतियां जैसे बुनियादी मुद्दों को सही ढंग से उठाया ही नहीं गया। नतीजतन, तथाकथित महागठबंधन अपने सबसे ज़्यादा उत्पीड़ित दलित और गरीबतम तबकों से अलग-थलग पड़ गया।
दूसरी ओर, अपने पास मौजूद ‘डबल इंजन शासन’ के सहारे फासीवादी RSS-BJP ने हिंदुत्व की वैचारिक आक्रामकता के साथ-साथ मुफ़्त की रेवड़ी, दान-दक्षिणा और ‘मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना’ जैसी लक्षित जन-लुभावन योजनाओं को आगे बढ़ाकर उत्पीड़ित जातियों को ‘डिकंस्ट्रक्ट’ (अलग अलग साधते हुए) करते हुए स्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ लिया।
सबसे लज्जाजनक था महागठबंधन के घटक दलों के बीच सीट-बंटवारे के नाम पर खुली फूट, और उसके साथ प्रशांत किशोर की JSP जैसे विभाजनकारी तत्वों की मौजूदगी। व्यक्तिगत और अवसरवादी लाभ के लिए ‘फ्रेंडली फाइट’ और आंतरिक कलह, जिनका कोई फासीवाद विरोधी चरित्र नहीं था, पूरे चुनाव के दौरान जारी रहे।
जहां एक व्यापक फासीवाद विरोधी एकता और न्यूनतम कार्यक्रम की सख्त जरूरत थी, वहां महागठबंधन के प्रत्येक घटक अपनी-अपनी पसंद और प्राथमिकताओं के आधार पर प्रचार करता रहा। परिणामस्वरूप अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद विपक्ष एक प्रभावी फासीवाद विरोधी चुनावी हमला बनाने में बुरी तरह विफल रहा।
अंततः बिहार चुनाव ऐसा उदाहरण बनकर सामने आया है कि किस तरह फासीवाद, राज्यसत्ता और चुनावी मशीनरी पर अपने पूर्ण नियंत्रण का इस्तेमाल करते हुए चुनावों की आड़ में जन-इच्छा को मनमाने ढंग से मोड़ सकता है।
अब समय आ गया है कि संसदीय संघर्ष में इस्तेमाल किए जा रहे औजारों और तरीकों की प्रभावशीलता का आत्म-आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जाए। यह तमाम फासीवाद विरोधी लोकतांत्रिक ताक़तों, तमाम संबंधित लोगों, मेहनतकश और उत्पीड़ित जनता के लिए एक बड़ा सबक है कि वे आने वाले दिनों में RSS फासीवाद का डटकर प्रतिरोध और उसे उखाड़ फेंकने के लिए अपनी समझ और नजरिए को नए सिरे से व्यवस्थित/ संयोजित करें।

