जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के स्टुडेंट यूनियन के चुनाव में सभी चार प्रमुख पदों पर लेफ्ट युनिटी ने कब्जा कर देश के इस प्रतिष्ठित संस्थान में अपनी वैचारिक पकड़ मजबूत की है। पिछले साल यहां आरएसएस और भाजपा से संबद्ध अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने संयुक्त सचिव का पद जीत लिया था, लेकिन इस बार उसे सभी पदों पर हार का सामना करना पड़ा है।
पिछली बार वाम दलों से संबद्ध छात्र संगठन आइसा, एसएफआई और एआईएसएफ ने अलग अलग चुनाव लड़े थे, लेकिन इस बार उन्होंने लेफ्ट युनिटी के रूप में एक साथ चुनाव लड़ा और यह जीत दर्ज की है। अध्यक्ष पद पर लेफ्ट युनिटी की पीएचडी स्कॉलर अदिति मिश्रा, उपाध्यक्ष पद पर के गोपिका बाबू, महासचिव पद पर सुनील यादव और संयुक्त सचिव पद पर डानिश अली विजयी हुई हैं।
यों तो एबीवीपी लंबे समय से जेएनयू स्डुटेंड यूनियन पर कब्जे की कोशिश में है, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में पहली बार भाजपा के अपने दम पर बहुमत हासिल करने के बाद से वामपंथ का गढ़ माने जाने वाले जेएनयू की स्टुडेंट यूनियन उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई है।
बीते कुछ वर्षो में जिस तरह से जेएनयू को सत्ता के शीर्ष से ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के रूप में बदनाम करने की कोशिशें हुई हैं और अब भी हो रही हैं, उसे देखते हुए निश्चय ही लेफ्ट युनिटी की जीत दिखा रही है कि देश के शीर्ष संस्थानों में गिने जाने वाले जेएनयू की वैचारिक नींव कितनी मजबूत है।
अपनी स्थापना के समय से ही जेएनयू ने खुले विचारों को जगह दी है और अकादमिक रूप से उसकी प्रतिष्ठा पर तमाम अवरोधों के बावजूद आंच नहीं आई है, इसलिए आज भी वह देश के शीर्ष उच्च शिक्षण संस्थानों में शुमार है।
बीते कुछ वर्षों से जिस तरह से जेएनयू के विद्यार्थियों को मिलने वाली सुविधाओं में कटौती की गई है और अकादमिक शोध में आरएसएस की विचारधारा को आगे बढ़ाने की कोशिशें हुई हैं, उसे देखते हुए लेफ्ट युनिटी की जीत का महत्व समझा जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि इसी जेएनयू की उदार और खुले विमर्श की परंपरा ने एक से बढ़ कर एक स्कॉलर और राजनेता दिए हैं, जिनमें सीपीएम के दिवंगत महासचिव सीताराम येचुरी से लेकर केंद्रीय मंत्री एस जयशंकर, निर्मला सीतारमन और नोबेल विजेता अभिजीत बनर्जी तक शामिल हैं। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है।
एसएफआई ने लेफ्ट युनिटी की जीत को घृणा की राजनीति के खिलाफ एक राजनीतिक बयान करार दिया है। जेएनयू को बदनाम करने की जिस तरह की कोशिशें हो रही हैं, उसे देखते हुए यह सचमुच महत्वपूर्ण बयान है।
हालांकि इस चुनाव की चर्चा जेएनयू में कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की दुर्गति की चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती। ये नतीजे दिखा रहे हैं, कि युवाओं में कांग्रेस की जगह सिमटती जा रही है। इसी के साथ यह भी देखने की जरूरत है कि लेफ्ट पार्टियां भले ही जेएनयू के नतीजों से खुश हो रही हैं, लेकिन जब तक वह युवाओं के लिए व्यापक कार्यक्रम लेकर सामने नहीं आतीं, उनका क्षरण जारी रहेगा।
वास्तव में ये नतीजे आरएसएस के लिए भी सबक हैं, जिसे समझना होगा कि अकादमिक संस्थानों को शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा नहीं बनाया जा सकता। जेएनयू की खूबसूरती इसी में है कि तमाम वैचारिक बहसों के बीच यह देश में शिक्षा और शोध का महत्वपूर्ण केंद्र बना रहे। इसकी अकादमिक स्वायत्तता से किसी भी तरह की छेड़छाड़ इसे नष्ट कर देगी।

