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सरोकार

हिंदू राष्ट्र का इरादा और गांधी-हत्या

अनिल जैन
Last updated: October 3, 2025 1:05 pm
अनिल जैन
Byअनिल जैन
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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की आज 156वीं जयंती है। यह संयोग है कि आज ही वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी अपनी स्थापना का एक सौवां स्थापना दिवस मना रहा है, जिसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले आजादी के आंदोलन से अपने को अलग रखा था।

उससे जुड़े रहे एक स्वयंसेवक ने देश की आजादी के महज साढे पांच महीने बाद ही महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। राष्ट्रपिता की हत्या पर इस संगठन के लोगों ने देश के कई हिस्सों में जश्न मनाया था।

हालांकि बाद में इस संगठन पर सरकार का शिकंजा कसने के बाद इसके शीर्ष नेताओं ने गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे और उसके सहयोगियों से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें अपने संगठन का सदस्य मानने से इनकार कर दिया था।

वैसे आरएसएस की स्थापना 1925 में 27 सितंबर को विजयादशमी यानी दशहरे के दिन हुई थी, लेकिन चूंकि वह अपना स्थापना दिवस हर वर्ष दशहरे के दिन ही मनाता है और इस बार दशहरा 2 अक्टूबर को है इसलिए इस खास मौके पर आरएसएस अपना स्थापना दिवस मनाते हुए यह जताने का प्रयास करेगा कि गांधी उसके लिए भी उतने ही स्वीकार्य और पूज्य हैं जितने कि दूसरों के लिए।

यह और बात है कि आरएसएस से जुड़े विभिन्न संगठनों और उसके समर्थकों ने एक-डेढ़ दशक से महात्मा गांधी की चरित्र हत्या का सुनियोजित अभियान सोशल मीडिया के माध्यम से चला रखा है।

महात्मा गांधी की हत्या के संदर्भ में उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के समर्थक और हिंदुत्वादी नेता अक्सर यह दलील देते रहते हैं कि गांधी जी ने भारत के बंटवारे को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, उनकी वजह से ही पाकिस्तान बना और उन्होंने ही पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाए, जिससे क्षुब्ध होकर गोडसे ने गांधी की हत्या की थी।

लेकिन हकीकत में यह दलील बिल्कुल बेबुनियाद और बकवास है। ऐसी दलील देने के पीछे उनका मकसद गोडसे को एक देशभक्त के रूप में पेश करना और गांधीजी की हत्या का औचित्य साबित करना होता है। सत्ता में बैठे या सत्ता से इतर भी जो हिंदूवादी लोग या संगठन मजबूरीवश गांधी की जय-जयकार करने का दिखावा करते हैं, वे भी गोडसे की निंदा कभी नहीं करते।

दरअसल, गांधीजी की हत्या के प्रयास लंदन में हुई गोलमेज कांफ्रेन्स में भाग लेकर उनके भारत लौटने के कुछ समय बाद 1934 से ही शुरू हो गए थे, जब पाकिस्तान नाम की कोई चीज पृथ्वी पर तो क्या पूरे ब्रह्मांड में कहीं नहीं थी। तब तक किसी ने पाकिस्तान का नाम ही नहीं सुना था, उन लोगों ने भी नहीं जिन्होंने बाद में पाकिस्तान की कल्पना की और उसे हकीकत में बदला भी।

पाकिस्तान बनाने की खब्त तो ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेताओं के दिमाग पर 1936 में सवार हुई थी, जिससे बाद में मुहम्मद अली जिन्नाह भी सहमत हो गए थे।

पाकिस्तान बनाने का संकल्प या औपचारिक प्रस्ताव 1940 में 22 से 24 मार्च तक लाहौर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित किया गया था। लेकिन इससे भी तीन साल पहले हिंदुत्ववादियों की ओर से औपचारिक तौर पर दो राष्ट्र का सिद्धांत पेश कर दिया गया था।

गांधी हत्या के अभियुक्त रहे और मास्टर माइंड माने जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में साफ-साफ शब्दों में कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र है, जो कभी साथ रह ही नहीं सकते। हालांकि यह विचार वे 1921 में अंडमान की जेल से माफी मांगकर छूटने के बाद लिखी गई अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ में पहले ही व्यक्त कर चुके थे।  

विनायक दामोदर सावरकर

गांधी की हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को उस वक्त किया गया था, जब वे पूना में एक सभा को संबोधित करने जा रहे थे। गांधीजी की मोटर को निशाना बनाकर बम फेंका गया था लेकिन चूंकि गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे, इसलिए बच गए थे। हत्या का यह प्रयास हिंदुत्ववादियों के एक गुट ने किया था। बम फेंकने वाले के जूते में गांधी और नेहरू के चित्र पाए गए थे, ऐसा पुलिस रिपोर्ट में दर्ज है।

गांधी जी की हत्या का दूसरा प्रयास 1944 में पंचगनी में किया गया। जुलाई 1944 में गांधी जी बीमारी के बाद आराम करने के लिए पंचगनी गए थे। तब पूना से 20 युवकों का एक गुट बस लेकर पंचगनी पहुंचा था। दिनभर वे गांधीजी के खिलाफ नारेबाजी करते रहे।

इस गुट के नेता नाथूराम गोडसे को गांधीजी ने बात करने के लिए बुलाया, मगर गोडसे ने गांधीजी से मिलने से इन्कार कर दिया। शाम को प्रार्थना सभा में गोडसे हाथ में छुरा लेकर गांधी जी की तरफ लपका था, लेकिन पूना के सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भिलारे गुरुजी नाम के युवक ने गोडसे को पकड़ लिया था।

पुणे में मई 1910 में जन्मे गोडसे के जीवन की यह पहली खास घटना थी। उसके जीवन की दूसरी बड़ी घटना थी एक वर्ष बाद यानी 1945 की, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था। तब नाथूराम गोडसे ‘अग्रणी’ पत्रिका के संवाददाता के रूप में वहां उपस्थित था।

गांधीजी की हत्या का तीसरा प्रयास भी इसी साल यानी 1944 के सितंबर महीने में वर्धा में हुआ, जब वे भारत के विभाजन को रोकने के लिए मुहम्मद अली जिन्नाह से बातचीत करने के लिए बंबई जाने वाले थे। गांधीजी बंबई न जा सकें, इसके लिए पूना से हिंदू महासभा के नेता लक्ष्मण गणेश थट्टे की अगुवाई में एक समूह वर्धा पहुंचा था।

चौतीस वर्षीय नाथूराम गोडसे थट्टे के सहयोगी प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसका इरादा खंजर से बापू पर हमला करने का था, लेकिन आश्रमवासियों ने उसे पकड़ लिया था। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक उस युवक ने अपने बचाव में बयान दिया था कि यह खंजर गांधीजी की मोटर के टायर पंक्चर करने के लिए लाया गया था।

नाथूराम गोडसे

इस घटना के संबंध में गांधीजी के सचिव रहे प्यारेलाल ने लिखा है, ”आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस सुपरिटेंडेंट से सूचना मिली कि आरएसएस के स्वयंसेवक गंभीर शरारत करना चाहते हैं, इसलिए पुलिस को मजबूर होकर जरूरी कार्रवाई करनी पड़ेगी। पुलिस से मिली इस सूचना के बाद बापू ने कहा कि मैं उन लोगों के बीच अकेला जाऊंगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूंगा।

अगर आरएसएस के स्वयंसेवक खुद ही अपना विचार बदल ले और मुझे मोटर में आने को कहे तो दूसरी बात है। बापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस-सुपरिटेंडेंट आए और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला तो चेतावनी देने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है। धरना देने वालों का नेता बहुत ही उत्तेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता है, इससे कुछ चिंता होती है। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बड़ा छुरा निकला।’’

इस प्रकार आरएसएस के प्रदर्शनकारी स्वयंसेवकों की यह योजना विफल हुई। 1944 के सितम्बर में भी पाकिस्तान की बात उतनी ही दूर थी, जितनी जुलाई में थी।

गांधीजी की हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था, जब वे विशेष ट्रेन से बंबई से पूना जा रहे थे। उस समय नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच रेल पटरी पर बड़ा पत्थर रखा गया था, लेकिन उस रात को ट्रेन ड्राइवर की सूझ-बूझ के कारण गांधीजी बच गए।

दूसरे दिन, 30 जून की प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा, ”परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरश: मृत्यु के मुंह से सकुशल वापस आया हूँ। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है। फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास भी निष्फल गया।’’

नाथूराम गोडसे उस समय पूना से ‘अग्रणी’ नाम की मराठी पत्रिका निकालता था। गांधीजी की 125 वर्ष जीने की इच्छा जाहिर होने के बाद ‘अग्रणी’ के एक अंक में नाथूराम ने लिखा- ‘पर जीने कौन देगा?’ यानि कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा? गांधीजी की हत्या से डेढ़ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य साबित करता है कि हिंदुत्ववादी लोग गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से प्रयासरत थे।

1946 के जून में पाकिस्तान बन जाने के आसार तो दिखायी देने लगे थे, लेकिन 55 करोड़ रुपए देने का तो उस समय कोई सवाल ही पैदा नहीं हुआ था।

इसके बाद 20 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने मदनलाल पाहवा के साथ मिलकर नई दिल्ली के बिड़ला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था। पाहवा पकड़ा गया था, मगर नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था। गांधीजी की हत्या का यह पांचवां प्रयास था जो सफल नहीं हो सका था।

दस दिन बाद वह अपने अधूरे काम को पूरा करने करने के लिए फिर दिल्ली आया था। उसके साथ मदनलाल पाहवा और नारायण आप्टे भी था। तीनों दिल्ली के एक होटल में ठहरे थे। गांधीजी की हत्या से एक दिन पहले 29 जनवरी की रात में तीनों ने एक ढाबे में खाना खाया था। आप्टे ने शराब भी पी थी।

खाना खाने के बाद गोडसे सोने के लिए होटल के अपने कमरे में चला गया था। पाहवा गया था सिनेमा का नाइट शो देखने और आप्टे पहुंचा था पुरानी दिल्ली स्थित वेश्यालय में रात गुजारने। यह रात आप्टे के लिए अपने जीवन की यादगार रात रही, ऐसा खुद उसने अपनी उस डायरी में लिखा था, जो बाद में गांधी हत्या के मुकदमे के दौरान दस्तावेज के तौर पर पुलिस द्वारा कोर्ट में पेश की गई थी।

नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते रहे हैं लेकिन तीस जनवरी की ही शाम की एक घटना से साबित होता कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था। गांधीजी पर पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया था।

पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना के लिए देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम की भजनावली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ़ गया था 20वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने।

नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकड़े जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपने को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। उसने अपने हाथ की कलाई पर ‘अब्दुल्लाह’ नाम गुदवा रखा था।

इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भड़काना था। ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। पता नहीं किन कारणों से राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं किया लेकिन उनके संबोधन के तुरंत बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।

इन सभी तथ्यों से यही जाहिर होता है कि महात्मा गांधी की हत्या के मूल में भारत विभाजन से उपजा रोष नहीं, बल्कि गांधीजी की सर्वधर्म समभाव वाली वह विचारधारा थी, जिसे मुट्ठीभर हिंदुत्वादियों के अलावा पूरे देश ने स्वीकार किया था। यही विचारधारा हिंदू राष्ट्र के स्वप्नदृष्टाओं को तब भी बहुत खटकती थी और आज भी बहुत खटकती है। सांप्रदायिक नफरत में लिपटे हिंदू राष्ट्र का यही विचार गांधी-हत्या के शैतानी कृत्य का कारण बना था।

(यह लेख महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे प्यारेलाल की पुस्तक ‘महात्मा गांधी: पूर्णाहुति’ (प्रथम खंड) और गांधी हत्या की पुलिस में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट में दी गई जानकारियों पर आधारित है।)

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