सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने मानहानि से संबंधित एक मामले की सुनवाई के दौरान टिप्पणी की है कि मानहानि कानून को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का समय आ गया है। यदि ऐसा होता है, तो यह वाकई भारत की न्याय व्यवस्था में एक मील का पत्थर साबित होगा और इसका सार्वजनिक जीवन के साथ ही प्रेस की स्वतंत्रता पर दूरगामी असर पड़ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के रुख में यह एक बड़ा बदलाव है, जिसकी एक पीठ ने नौ साल पहले 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी बनाम भारत संघ के मामले में आपराधिक मानहानि को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया था। तब कोर्ट ने प्रतिष्ठा के अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीने के अधिकार और अनुच्छेद 19 यानी अभिव्यक्ति की आजादी की तरह मौलिक अधिकार करार दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम एम सुंदरेश ने सोमवार को वेबपोर्टल वॉयर का संचालन करने वाले फाउंडेशन ऑफ इंडिपेंडेंट जर्नलिस्ट की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की है। हालांकि अभी इस मामले में सुनवाई जारी है। यह मामला 2016 में वॉयर के एक लेख से जुड़ा है, जिसे लेकर जेएनयू की एक पूर्व प्रोफेसर अमिता सिंह ने निचली अदालत में इस मीडिया प्लेटफार्म के खिलाफ आपराधिक मानहानि की याचिका दायर की थी।
दरअसल वायर ने अपने लेख में कथित रूप से अमिता सिंह के नेतृत्व में तैयार किए गए एक दस्तावेज का उल्लेख किया था, जिसमें जेएनयू को संगठित सेक्स रैकेट का अड्डा बताया गया था। मौजूदा व्यवस्था को देखें तो, पुरानी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 499 और 500 की जगह लेने वाली भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 356 मानहानि को अपराध बनाती है और इसमें दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों की सज़ा का प्रावधान है।
निस्संदेह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं हो सकती, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में आपराधिक मानहानि कानून की भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। दरअसल ऐसे मामलों के राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ इस्तेमाल की आशंकाएं भी बढ़ी हैं और उसकी वजह से संसद और विधानसभा की सदस्यता तक जा सकती है।
राहुल गांधी के मामले में ऐसा ही हुआ था, जब 2019 में मोदी सरनेम को लेकर की गई उनकी एक टिप्पणी को लेकर सूरत की एक अदालत ने उन्हें आपराधिक मानहानि के मामले में दो साल की सजा सुनाई थी और उनकी संसद से सदस्यता चली गई थी। हालांकि बाद में सुप्रीम कोर्ट ने राहुल के खिलाफ आए उस फैसले पर रोक लगा दी थी, जिससे उनकी सदस्यता बहाल हो गई थी।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आपराधिक मानहानि से संबंधित कानून अंग्रेजों के जमाने में 1860 में भारत में लागू किया गया था, और आज ब्रिटेन तक में यह कानून नहीं है! भारत में भी लंबे समय से आपराधिक मानहानि कानून को हटाने और उसे दीवानी मुकदमे तक सीमित रखने को लेकर बहस चल रही है।
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य राघव चड्ढा ने तो बकायदा मानहानि को डिक्रिमिनाइलज करने के लिए एक बिल भी 2023 में राज्यसभा में पेश किया था। निस्संदेह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं हो सकती, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में आपराधिक मानहानि कानून की भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। वाकई अब समय आ गया है, जब आपराधिक मानहानि को कानून की किताब से बाहर का रास्ता दिखाया जाए।