नई दिल्ली। संविधान दिवस के मौके पर संसद के सेंट्रल हॉल में आज राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के नेतृत्व में संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया गया। इस ऐतिहासिक मौके पर राष्ट्रपति ने संविधान की प्रस्तावना में शामिल ‘समाजवादी’ शब्द की जगह ‘सामाजिक’ शब्द का प्रयोग किया है।
उल्लखनीय है कि संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को लेकर भाजपा और आरएसएस एतराज करती आई हैं। इसी साल जून, 2005 में इसे लेकर तब बवाल मच गया था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के महासचिव दत्तात्रेय होसबाल ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की मांग की थी।
26 नवंबर, 1950 को संविधान बनकर तैयार हो गया था और फिर 26 जनवरी, 1950 को इसे लागू किया था। मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने 2015 में संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती के मौके पर 26 नवंबर, 1950 को संविधान दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया था। उसके बाद से हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
संविधान की प्रस्तावना
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

भाजपा और आरएसएस पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे संविधान को बदलना चाहते हैं। खासतौर से संविधान की प्रस्तावना में शामिल समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्दों को लेकर भाजपा और आरएसएस का एतराज जगजाहिर है।
दरअसल भाजपा का आरोप है के ये दोनों शब्द, इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार के समय 1976 में किए गए संविधान के 42 वें संशोधन के दौरान जोड़े गए थे ।
राष्ट्रपति मुर्मू ने आज संविधान की प्रस्तावना का पाठ करते समय समाजवादी शब्द की जगह सामाजिक शब्द कहा है। क्या यह बदलाव सायास हुआ या राष्ट्रपति ने भूलवश ऐसा कह दिया, यह स्पष्ट नहीं है। लेकिन संसद से संविधान की सबसे बड़ी रक्षक के मुंह से कही गई इस बात के निहितार्थ को लेकर चर्चा है।
संविधान दिवस के कार्यक्रम में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान को 9 भाषाओं मलयालम, मराठी, नेपाली, पंजाबी, बोडो, कश्मीरी, तेलुगु, ओडिया और असमिया में जारी किया। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उप राष्ट्रपति सीपी राधाकृष्णन, स्पीकर ओम बिरला, लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी उपस्थित थे।
शब्दकोश में ‘समाजवादी’ और ‘सामाजिक’
राजपाल प्रकाशन के हिंदी शब्दकोष में ‘समाजवादी’ और ‘सामाजिक’ शब्द के मायने बताए गए हैं। यह शब्दकोश डॉ हरदेव बाहरी ने तैयार किया है। दोनों शब्दों का अर्थ हम आपको स्क्रिन शॉट में दे रहे हैं।

राष्ट्रपति ने भाषण में और क्या कहा

संविधान की प्रस्तावना पढ़ने से पहले राष्ट्रपति ने भाषण दिया जिसमें उन्होंने कहा कि 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने भारत के संविधान को अंतिम रूप देकर इसे औपचारिक रूप से अंगीकार किया था। इसी दिन हम भारतवासियों ने अपने संविधान को अपनाया और स्वतंत्र भारत की नींव रखी। स्वाधीनता के बाद संविधान सभा ने अंतरिम संसद के तौर पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
राष्ट्रपति ने कहा कि हमारा संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि हमारी राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है। यह हमें औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त कर राष्ट्रवादी भाव से आगे बढ़ने का रास्ता दिखाता है। हाल में दंड की जगह न्याय पर केंद्रित नई भारतीय न्याय संहिता लागू की गई है। ऐसे कई क्रांतिकारी और प्रगतिशील कानूनों को गहन विचार-विमर्श के बाद पारित करने के लिए उन्होंने सांसदों की प्रशंसा की।
उन्होंने कहा कि आज पूरा देश संविधान और इसके निर्माताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर रहा है। हम सब मिलकर संविधान में अपनी आस्था दोहराते हैं। युवा पीढ़ी को संवैधानिक मूल्यों से जोड़ा जा रहा है। संविधान सभा में महिलाओं का योगदान अविस्मरणीय रहा। हंस मेहता जैसी महिलाओं ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के सपने को साकार करने का संकल्प लिया था।
राष्ट्रपति ने भारतीय संसद को विश्व के कई लोकतंत्रों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बताया और खुशी जताई कि हमारी संसद ने कई उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। संविधान निर्माताओं की उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए सभी सांसदों को बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व हमारे संविधान की आत्मा हैं।
अंत में उन्होंने कहा कि भारत तेजी से विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। पिछले कुछ वर्षों में करीब 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं, जो विश्व स्तर पर आर्थिक न्याय की सबसे बड़ी मिसाल है।
संविधान की प्रस्तावना पर सियासी घमासान
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को लेकर जून 2025 में फिर से सियासी बवाल मच गया था। आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले की इन शब्दों को हटाने की मांग की थी।
आरएसएस के एक कार्यक्रम में बोलते हुए होसबाले ने दावा किया था कि ये शब्द मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे, जो डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा तैयार की गई थी। उन्होंने कहा कि इन्हें आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित थे और संसद ठप थी, तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने थोप दिया। होसबाले ने कांग्रेस से आपातकाल के लिए सार्वजनिक माफी मांगने की भी मांग की, ताकि संविधान की ‘मूल भावना’ को बहाल किया जा सके। उनका यह बयान राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया, क्योंकि इससे पहले 2015 और 2023 में भी इसी तरह के विवाद उठे थे, जब मूल प्रस्तावना की प्रतियां वितरित की गईं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर तीखा प्रहार करते हुए कहा था, “आरएसएस और भाजपा संविधान की आत्मा पर जानबूझकर हमला कर रहे हैं। वे संविधान नहीं, मनुस्मृति चाहते हैं, ताकि हाशिए पर पड़े लोगों और गरीबों के अधिकार छीन सकें।”
इसी तरह, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने याद दिलाया था कि आरएसएस ने आंबेडकर, नेहरू और संविधान निर्माण से जुड़े नेताओं पर हमेशा सवाल उठाए हैं। उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों में जनता के ‘नकार’ का हवाला देते हुए कहा कि बुनियादी ढांचे में छेड़छाड़ की कोशिशें अब विफल हो चुकी हैं।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई-एम) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) ने भी कड़ा रुख अपनाया। सीपीआई महासचिव डी. राजा ने आरोप लगाया कि आरएसएस भारत को ‘धार्मिक राष्ट्र’ बनाना चाहता है, जबकि भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान ‘समाजवाद’ और ‘पंथनिरपेक्षता’ के मूल्यों पर टिके हैं। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद ने आरएसएस को ‘जातिवादी संगठन’ बताते हुए पूछा कि वे लोकतंत्र और आंबेडकर के संविधान से इतनी नफरत क्यों करते हैं, खासकर आरक्षण जैसे प्रावधानों से।
दूसरी ओर कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राज्यसभा में स्पष्ट किया कि ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने का कोई कानूनी या संवैधानिक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि ‘समाजवाद’ कल्याणकारी राज्य का प्रतीक है, जो निजी क्षेत्र की वृद्धि में बाधक नहीं, और ‘पंथनिरपेक्षता’ संविधान की बुनियादी संरचना का हिस्सा है। तत्कालीन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी प्रस्तावना को ‘अपरिवर्तनीय बीज’ बताते हुए कहा कि ये शब्द ‘घावों’ की तरह नहीं हैं।

