बीते तीन-चार दिनों के दौरान राजधानी दिल्ली सहित अनेक जगहों से कई छात्र-छात्राओं के आत्महत्या कर लेने की खबरें बहुत तकलीफदेह हैं। दिल्ली में दसवीं के 16 साल के एक छात्र ने पिछले कई महीने से कथित तौर पर स्कूल के चार शिक्षकों की ओर से मिल रही प्रताड़न से तंग आकर 18 नवंबर को मेट्रो स्टेशन से कूदकर जान दे दी।
इससे दो दिन पहले 16 नवंबर को मध्य प्रदेश के रीवा में एक 17 साल की छात्रा ने शिक्षक की प्रताड़ना से तंग आकर घर लौट कर फांसी लगा ली। हमारी सामूहिक चेतना को झकझोरते हुए 22 नवंबर को महाराष्ट्र के जालना में सातवीं की एक छात्रा ने स्कूल की इमारत से कूद कर जान दे दी!
ये गिनती थमनी चाहिए। अफसोस कि 2023 की एनआरसीबी की रिपोर्ट छात्र-छात्राओं के आत्महत्या कर लेने की बेहद चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में दर्ज किए गए आत्महत्या के कुल मामलों में से 8.1 फीसदी स्टडेंट्स की आत्महत्या कर लेने के थे।
दिल्ली और रीवा दोनों जगहों के स्डुटेंड्स ने सुसाइड नोट छोड़े हैं और उन्हें दी गई प्रताड़ना का जिक्र करते हुए कुछ शिक्षकों के नामों का उल्लेख भी किया है। दिल्ली के छात्र के पिता ने तो यहां तक कहा है कि उसने घर पर बताया था कि उसे लगातार प्रताड़ित किया जाता है औऱ उसे भय था कि शिक्षक उसकी आंतरिक परीक्षा के 20 अंक काट सकते हैं, जिससे उसे दसवीं की परीक्षा में नुकसान हो सकता है! यह घटना हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल उठा रही है, जिसने अंकों की होड़ को जीने-मरने की होड़ में बदल दिया है।
इन छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की घटनाओं ने किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे को भी रेखांकित किया है। कहने की जरूरत नहीं कि यह स्थिति बच्चों के मन को न समझने और लगातार संवादहीनता से उपजी हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में बच्चे जिस तरह से अपने एकांत में सिमटते जा रहे हैं, वह भी चिंता का कारण होना ही चाहिए।
दरअसल सिर्फ बच्चों को ही नहीं, बल्कि शिक्षकों को भी काउंसलिंग की जरूरत है। वास्तविकता यह है कि समय रहने उन बच्चों की शिकायतों पर गौर किया जाता, तो उन्हें बचाया जा सकता था।

