महिला विश्व कप क्रिकेट के फाइनल में कल आधी रात के करीब भारतीय टीम ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ शानदार जीत दर्ज कर सचमुच इतिहास रच दिया। नवी मुंबई के स्टेडियम में लिखी गई जीत की इस इबारत ने करोड़ों भारतीयों को रोमांचित कर दिया है।
यदि ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ जेमिमा रोड्रिग्ज की 127 रनों की बेमिसाल पारी ने भारतीय टीम को जीत के मुहाने पर खड़ा कर दिया था, तो बेहद दमदार कप्तान लॉस वुलफार्ट की अगुआई वाली दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ फाइनल में शानदार 58 रन और पांच विकेट के साथ दीप्ति शर्मा और 87 रन और दो विकेट के साथ शैफाली वर्मा ने वह कमाल कर दिखाया जिसकी चमक हजारों-हजार लड़कियों को प्रेरित करती रहेगी।
भारतीय टीम की कप्तान हरमनजीत कौर के साथ जब टीम की उनकी अन्य साथियों ने विश्व कप को अपने हाथों में थामा, तो यह एक सपने के सच होने जैसा था। यह कई दशक लंबे संघर्ष का नतीजा है।
कामयाबी का यह फलसफा लिखने वाली लड़कियां देश के विभिन्न हिस्सों से तमाम तरह की दुश्वारियों से जद्दोजहद करती हुई यहां तक पहुंची हैं। खुद हरमनजीत से बेहतर भला इसे कौन जान सकता है, जिन्होंने अपने शुरुआती दिनों में पंजाब के मोगा से मुंबई आकर रेलवे में क्लर्क की नौकरी करते हुए क्रिकेट प्रशिक्षण हासिल किया और भारतीय टीम जगह बनाई।
यह संघर्षों की छोटी-छोटी कहानियां हैं, जिनके सिरे आपको हरियाणा और उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक और आंध्र प्रदेश से लेकर पूर्वोत्तर तक मिल सकते हैं, जहां से अपने-अपने हिस्से के सपनों के साथ ये लड़कियां यहां तक पहुंची हैं।
यों तो भारत में महिला क्रिकेट का इतिहास सौ साल से भी पुराना है, लेकिन व्यवस्थित रूप में भारतीय महिला क्रिकेट टीम 1975 में ही अस्तिव में आ सकी थी। इसके बावजूद पुरुषों के क्रिकेट के मुकाबले महिला क्रिकेट अपने देश में कई दशकों तक उपेक्षित ही रहा है।
यह हिचक दोनों स्तरों पर थी, देश में खेल प्रबंधन और समाज तथा परिवार के स्तर पर। गौर करने वाली बात यह है कि उपेक्षाओं और आर्थिक तंगी के बावजूद लड़कियां घरों से बाहर निकल कर क्रिकेट खेलने आ रही थीं।
भारतीय महिला क्रिकेट टीम की प्रथम कप्तान शांता रंगास्वामी तक बता चुकी हैं कि किस तरह से शुरुआती दिनों में महिला क्रिकेटरों को कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। भारतीय महिला क्रिकेट आज शिखर पर है, तो इसके पीछे डायना एडुलजी, अंजुम चोपड़ा से लेकर मिताली राज और झूलन गोस्वामी जैसी भारतीय कप्तानों का भी अहम योगदान है, जिन्होंने हौसला नहीं छोड़ा।
निश्चित रूप से इस जीत से लड़कियों को सिर्फ क्रिकेट ही नहींस बल्कि अपनी मर्जी के दूसरे खेलों और क्षेत्रों में बाहर निकलने के लिए हौसला मिला होगा। दरअसल यह जीत लड़कियों की पसंद और उनकी आजादी की भी जीत है। इसे समझना हो तो भारतीय टीम की उपकप्तान स्मृति मांधना के इन शब्दों पर गौर किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि यह जीत ‘कल्चरल शिफ्ट’ लाएगी।
वह चाहती हैं कि लड़कियों की टीमें मोहल्लों में भी क्रिकेट खेलती नजर आएं! सचमुच यह बहुत खूबसूरत सपना है, आखिर लड़कियां अपनी मर्जी क्यों नहीं चला सकतीं, चाहे वह मोहल्ले में लड़कों की तरह क्रिकेट खेलना ही क्यों न हो।
					
