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लेंस संपादकीय

लैंसेट रिपोर्टः जानलेवा हवा, जिम्मेदार कौन?

Editorial Board
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Published: October 30, 2025 8:36 PM
Last updated: October 30, 2025 8:36 PM
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Lancet Report
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प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल द लैंसेट की स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर आई ताजा रिपोर्ट ने उन जोखिमों की पुष्टि कर दी है, जिसे लेकर अब कुछ भी छिपा नहीं है। यह रिपोर्ट अपनी पिछली रिपोर्ट्स की पुनरावृत्ति की तरह लग रही है, तो यह अपने नागरिकों के प्रति सरकारों की अकर्मण्यता को ही दिखा रहा है।

2025 की स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन पर केंद्रित द लैंसेट काउंडाउन रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण फैलाने वाला मानवजनित कण पीएम 2.5 2022 में भारत में 17 लाख से भी अधिक मौतों के लिए जिम्मेदार है! दरअसल पूछा तो यह जाना चाहिए कि पीएम 2.5 के इतने खतरनाक स्तर पर पहुंचने के लिए कौन जिम्मेदार है?

2010 के बाद यानी बीते डेढ़ दशक में यह 38 फीसदी की बढ़ोतरी है, जिसका अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते जोखिमों से हमने कोई सबक नहीं लिया है। इस रिपोर्ट ने जीवाश्म ईंधन को इनमें से 44 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार बताया है।

इस आंखें खोल देने वाली रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन सिर्फ असमय मौतों का सबब ही नहीं बन रहा है, इसकी एक बड़ी आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ रही है। लैंसेट के मुताबिक 2022 में वायु प्रदूषण के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को 9.5 फीसदी का नुक्सान हुआ है।

दूसरी ओर स्वास्थ्य को लेकर हमारी सरकारों की प्राथमिकता का यह हाल है कि आज भी स्वास्थ्य संबंधी बजट की जीडीपी में हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है, जबकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में इसे 2025 तक 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव था! यह गंभीर चिंता का कारण होना चाहिए कि लैंसेट की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि भारत में स्वास्थ्य संबंधी 20 सूचकांक में से 12 खतरनाक रूप से रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुके हैं।

दुखद यह है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकारें, चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें तदर्थ उपायों से ऊपर नहीं उठ सकी हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण राजधानी दिल्ली और एनसीआर में देखा जा सकता है, जहां सरकारें इसी में उलझी हुई हैं कि हर इस साल मौसम में वहां की वायु की गुणवत्ता को खराब करने के लिए पड़ोसी राज्यों में जलाई जाने वाली पराली जिम्मेदार है, या लाखों वाहन से निकलता जहरीला धुआं या फिर दीवाली के दौरान जलाए जाने वाले पटाखे। हैरत नहीं कि इसी साल बीती दीवाली को दिल्ली-एनसीआर में एक्यूआई सूचकांक कई जगह पांच सौ को पार कर गया था।

यों तो जलवायु परिवर्तन को लेकर एक दशक पहले पेरिस में हुए कॉप-2015 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) में गंभीर चिंता जताई गई थी और भारत सहित सभी प्रमुख देशों ने जीवाश्म ईंधन में कटौती को लेकर प्रतिबद्धताएं जताई थीं, लेकिन लैंसेट की रिपोर्ट बता रही है, जमीन पर हालात सुधरने के बजाय बिगड़े ही हैं।

इसका सर्वाधिक खामियाजा वंचित तबके और गरीबों को उठाना पड़ता है, क्योंकि वायु प्रदूषण से होने वाली सांस और दिल संबंधी बीमारियों के महंगे इलाज उनकी पहुंच से अब भी बहुत दूर हैं। यही नहीं, इसकी वजह खासतौर से असंगठित क्षेत्र के कामगारों के रोजगार पर भी असर पड़ता है। दरअसल जलवायु परिवर्तन का एक आयाम बढ़ती असमानता में भी देखा जाना चाहिए, जिसके लिए जिम्मेदार कोई और वर्ग है और इसकी कीमत किसी और वर्ग को चुकानी पड़ रही है।

इस रिपोर्ट में मदद करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहायक महानिदेशक डॉ. जर्मी फरार ने चेतावनी दी है कि जलवायु आपातकाल कोई भविष्य का जोखिम नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी आपदा में बदल चुका है। क्या कोई उनकी चेतावनी सुन रहा है?

TAGGED:air pollutionEditorialLancet Report
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