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लेंस रिपोर्ट

टीम खंडेलवाल…दीयों का बक्सा और जुगनुओं का राज

राजेश चतुर्वेदी
राजेश चतुर्वेदी
Byराजेश चतुर्वेदी
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Published: October 30, 2025 1:21 PM
Last updated: October 30, 2025 3:13 PM
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याद करिए 2 जुलाई 2025 की तारीख, जब केन्द्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने हेमंत खंडेलवाल को बीजेपी का प्रदेशाध्यक्ष निर्वाचित होने का सर्टिफिकेट सौंपा था। मंच पर भीड़ थी, सब खंडेलवाल को फूलों का हार पहना रहे थे, शुभकामनाएं-मुबारकबाद दे रहे थे। लेकिन, एक शख्स ऐसा भी था, जिसने मुद्दे की बात रखी थी।

खबर में खास
“जबरा मारे, और रोने भी न दे”ऐसा पहली बार हुआ… कोष्ठक की एंट्रीमेहरा… और 17 टन शहद के लाभार्थी

और, वो थे- शिवराज सिंह चौहान, जिन्होंने हेमंत खंडेलवाल से कहा था- “29 की 29 लोकसभा हमारे पास हैं। विधानसभा में भी हमने 163 सीटें जीती थीं। वोट प्रतिशत भी बढ़ा था। पार्टी को इससे आगे ले जाना है। चुनौती बहुत बड़ी है।” खंडेलवाल ने पिछले दिनों जब अपनी टीम घोषित की तो चौहान के शब्द फिर याद आए।

साथ ही यह सवाल भी कि क्या 25 पदाधिकारियों की नई टीम के भरोसे वे ऐसा कर पाएंगे? हालांकि, लोकसभा में तो वे शायद ही कुछ कर पाएं, क्योंकि सीटें ही कुल 29 हैं। परिसीमन हो और सीटें बढ़ जाएं, तब अलग बात है। वर्ना, कितना ही शानदार काम करें, दम लगा लें, लेकिन 30 नहीं ला सकते! हाँ, विधानसभा में जरूर सीटों का इज़ाफ़ा कर सकते हैं।

वोट प्रतिशत भी बढ़ा सकते हैं। लेकिन पार्टी के भीतर उत्साहजनक माहौल नहीं है। बरसों से संगठन के लिए मेहनत करने वाले एकनिष्ठ कार्यकर्ताओं ने तो सोशल मीडिया पर अपनी पीड़ा रखी भी है। मसलन, जैसे ही सूची आई, एक साहब ने लिखा-“जो पेश करेगा, वही ऐश करेगा।” हालांकि, उन्होंने यह नहीं लिखा कि “क्या पेश करेगा और किसको पेश करेगा?” और किस-किसने पेश किया और कौन-कौन है, जो ऐश करेगा?

वैसे, यह पेश ‘करने-करवाने’ जैसी बातें पिछली बार वीडी शर्मा के कार्यकाल में भी उठी थीं। पेटी-खोखों की चर्चा हुई थी। कुछ सवाल पूर्व मंत्री दीपक जोशी, जो कांग्रेस से होते हुए बीजेपी में फिर वापसी कर चुके हैं, ने भी उठाए थे। एक नियुक्ति के बारे में तो आधे खोखे का जिक्र आया था।

हैरत की बात यह है कि बिना पुख्ता प्रमाण और “बेसिर-पैर” की ये बातें दो-तीन नियुक्तियों को लेकर इस बार भी की जा रही हैं। कहने का मतलब, इसमें कोई नई बात नहीं है। बल्कि, इस कानाफूसी को एक “शगुन” या “शुभंकर” माना जा सकता है। कारण- फिजूल की “इन बातों” के बावजूद वीडी भाई के कार्यकाल में पार्टी ने शानदार काम किया और चुनावी उपलब्धियां हासिल कीं।

इस हिसाब से तो हेमंत खंडेलवाल और उनकी टीम से भी कीर्ति पताका लहराने की उम्मीद की जाना चाहिए? मगर, दर्द तो दर्द है। जिनकी निष्ठा, मेहनत, ईमानदारी की कद्र नहीं होती, तो उन्हें तकलीफ़ होना स्वाभाविक है। ऐसे ही एक सज्जन ने फ़ेसबुक पर दर्द बयां किया-“सूर्य के ढलते ही कल से जुगनुओं का राज होगा, धैर्य से जलते दीयों की अब यहां कीमत नहीं है।”

दिक्कत यह है कि दीयों-जुगनुओं का यह संघर्ष हर जगह है और लंबे समय से है। दरअसल, जो निर्णय लेने वाला है, वो जुगनू को दीया मान कर चुन रहा है। काबलियत जुगनू की भी है कि वह दीये का इतना भ्रम पैदा कर देता है कि उसे ही “असली” दीया मान लिया जाता है। चाइनीज़ नहीं। खालिस, देसी मिट्टी का चाक पर बना हुआ, स्वदेशी, सनातनी। इसके लिए जुगनू को फिर चाहे जो करना पड़े, “आप्टिक्स” से लेकर “परिक्रमा” तक, वो सब करता है।

उधर, दीया इसी गुमान में खुद के तेल से मिलकने के लिए आतुर रहता है, कि वो तो दीया है, जुगनू थोड़े ही है। उसकी जरूरत तो पड़ेगी ही पड़ेगी। लेकिन, जब दिवाली आई तो मालूम हुआ कि जुगनुओं का राज है और बेचारे दीयों का बक्सा बंद का बंद ही रह गया, खुला ही नहीं!

“जबरा मारे, और रोने भी न दे”

हेमंत खंडेलवाल ने जिस ढंग से एक के बाद एक सबसे मुलाकात की और पदाधिकारियों की सूची आने से पहले संपर्क किया, लगा था कि नई सूची में सबका ‘अक्स’ दिखाई पड़ेगा। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। लिहाजा, प्रथम पंक्ति के क्षत्रप हैरान हैं। उनकी समझ, बुद्धि, मनीषा, विवेक, प्रज्ञा सब सुन्न पड़े हैं।

खोपड़ी काम ही नहीं कर रही, यह हुआ क्या? कैलाश विजयवर्गीय की एक बात ने तो इंदौर में जाहिर भी कर दिया कि 25 पदाधिकारियों की सूची से प्रादेशिक क्षत्रपों पर क्या बीत रही है। सच पूछो तो “जबरा मारे, और रोने भी न दे” वाला हाल है। शिवराज सिंह चौहान, खुद विजयवर्गीय, नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल वगैरह सब एक कश्ती के सवार बना दिए गए हैं।

24 कैरेट वाला किसी का एक नाम नहीं। इनसे बेहतर तो ज्योतिरादित्य सिंधिया की स्थिति रही, जिनके खाते से दो नामों को समायोजित किया गया। बगैर इस बात की परवाह किए कि डॉ. प्रभुराम चौधरी को उपाध्यक्ष बनाने से डॉ. गौरीशंकर शेजवार पर क्या बीतेगी? कई लोग प्रदेश मंत्री बनाए गए राजेंद्र सिंह को पूर्व मुख्यमंत्री चौहान की सिफारिश मानकर चल रहे हैं। जबकि ऐसा है नहीं।

बल्कि 25 की सूची में राजेंद्र अकेले ऐसे पदाधिकारी हैं, जो पिछले करीब 35 सालों से पार्टी और उसके नेताओं को नजदीक से “ऑब्जर्व” कर रहे हैं। सबसे एक जैसे रिश्ते हैं। पूरी लिस्ट में वाहिद ऐसा शख्स है, जो सबको जानता-पहचानता है। दिल्ली से लेकर भोपाल तक और झाबुआ से लेकर श्योपुर तक।

संघ से लेकर पार्टी तक। और “नदी का घर” से लेकर “कागपुर” तक। कथित बड़े नेताओं की स्थिति क्या है, इसे इंदौर शहर के केस से समझा जा सकता है। इंदौर से दो नाम लिये गए हैं। उपाध्यक्ष निशांत खरे और महामंत्री गौरव रणदिवे। विजयवर्गीय ने खुद यह बताया कि उन्हें जानकारी थी कि रणदिवे उपाध्यक्ष होंगे और खरे महामंत्री। लेकिन, हुआ उल्टा।

ऐसा पहली बार हुआ… कोष्ठक की एंट्री

आमतौर पर राजनीतिक पार्टियां पदाधिकारियों की सूची जारी करते समय कभी इस बात को जाहिर नहीं करतीं कि कौन किस धर्म या जाति का है। मतलब, अलग से इसका उल्लेख नहीं किया जाता। कभी नहीं देखा-सुना कि बीजेपी के मौजूदा नेताओं नरेंद्र मोदी, अमित शाह, राजनाथ सिंह या जेपी नड्डा के नाम-उपनाम के साथ कोष्ठक में धर्म या जाति का उल्लेख किया गया हो।

मगर, इस बार बीजेपी की सूची में महामंत्री बनाए गए राहुल कोठारी के नाम के साथ कोष्ठक में ‘जैन’ भी लिखा गया। इसके पीछे क्या मकसद है, पार्टी के भीतर कई लोग यह समझने में लगे हैं। खासकर, वे जो जनसंघ के जमाने से संगठन और उसकी रीति-नीति को देखते आ रहे हैं।

असल में, कोठारी सरनेम मुख्य रूप से गुजरात और राजस्थान के जैन व हिंदू बनिया-वैश्य समुदाय द्वारा लिखा जाता है। लेकिन, जाट समुदाय में भी यह एक गोत्र होता है और पारसी व्यापारी भी इसका इस्तेमाल करते हैं। हो सकता है, इसीलिए यह स्पष्ट किया गया हो कि राहुल कोठारी ‘जैन अल्पसंख्यक’ हैं।

इनको पारसी या जाट न समझा जाए। लेकिन याद नहीं कि पार्टी ने बड़े नेताओं में शुमार किए जाने वाले हिम्मत कोठारी के नाम के साथ कोष्ठक में कभी जैन लिखा हो। या, अटल बिहारी वाजपेयी के आगे हिंदू, ब्राह्मण, कान्यकुब्ज और लालकृष्ण आडवाणी के आगे हिंदू, सिंधी अथवा शरणार्थी…!

मेहरा… और 17 टन शहद के लाभार्थी

जैसे एक दिन में कोई राजा नहीं बनता, वैसे ही एक दिन में कोई व्यक्ति भ्रष्ट नहीं बन जाता। यह एक क्रमिक प्रक्रिया होती है। जैसे-जैसे दूसरों के सहयोग से व्यक्ति सफल होता जाता है, वैसे-वैसे उसका लालच और हौसला बढ़ता जाता है।

खासकर, सरकारी व्यवस्था में, जहां संतरी से लेकर मंत्री तक पूरा सिस्टम काम करता है, कोई बाबू, अफसर या मंत्री अगर चाहे भी तो अकेला भ्रष्टाचार नहीं कर सकता। कोशिश करता भी है तो पकड़ा जाता है। इसीलिए सिस्टम में नीचे से ऊपर तक जितने चैनल होते हैं, सबको साधा जाता है, ताकि कहीं से भी बात बाहर न जाए या कोई शिकायत वगैरह न हो। और यदि ऐसा हो भी तो कोई कार्रवाई या ऐक्शन न हो।

पीडब्ल्यूडी के सेवानिवृत्त चीफ इंजीनियर जीपी मेहरा का ताज़ा उदाहरण सबके सामने है, जिनके वर्षों की मेहनत से तैयार किए गए विशाल साम्राज्य पर लोकायुक्त के छापों में करोड़ों की चल-अचल संपत्ति का पता चला। जिसमें कई किलो सोना-चांदी से लेकर 17 टन शहद भी शामिल है।

सवाल इस बात का है कि क्या मेहरा ने सबकुछ भ्रष्टाचार से अर्जित किया? यदि हाँ, तो क्या एक दिन, महीना, साल या अपने पूरे सेवाकाल में किया? और क्या अकेले ही किया या दूसरों (बाबू से लेकर मंत्री) को साथ लेकर किया? अगर अकेले किया तो क्या दूसरों को कभी पता ही नहीं चला कि मेहरा साहब का आचरण भ्रष्ट है और वे भ्रष्टाचार से संपत्ति अर्जित करने में लगे हैं? किसी स्तर पर कभी कोई पकड़ ही नहीं पाया? कभी कोई विभागीय कार्रवाई नहीं, कोई ऐक्शन नहीं। बल्कि, वे प्रमोट होते रहे।

जाहिर है, जब कुछ गलत किया ही नहीं तो पकड़े कैसे जाते? गलत होते तो सरकार टाइम पर प्रमोट क्यों करती? क्यों इसी साल रिटायरमेंट के चंद माह बाद वेयरहाउसिंग एंड लॉजिस्टिक कॉपोर्रेशन में संविदा पर पुनर्नियुक्ति देती? साफ है कि या तो मेहरा बेदाग हैं या फिर उनके साथ दूसरे भी शामिल हैं। क्योंकि मेहरा और उनके करीबी अधिकारी राजेश नायक पर भ्रष्टाचार की एक नहीं बल्कि आठ गंभीर शिकायतें होने के बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।

सात शिकायतें शासन स्तर पर लंबित हैं, जबकि एक ईओडब्ल्यू में। ईओडब्ल्यू ने तो शासन को पत्र लिखकर कहा था कि या तो इन पर विभागीय कार्रवाई की जाए या फिर उसको प्रकरण दर्ज करने की अनुमति दी जाए। लेकिन न शासन ने अनुमति दी और न ही कोई विभागीय कार्रवाई की गई। इसक विपरीत मेहरा को मध्यप्रदेश वेयरहाउसिंग एंड लॉजिस्टिक्स कॉर्पोरेशन में संविदा पर नियुक्त कर दिया गया, और उनके सहयोगी राजेश नायक मध्यप्रदेश सड़क विकास निगम (आरडीसी) में पुनः पदस्थ कर दिए गए।

वेयरहाउसिंग एंड लॉजिस्टिक्स कॉर्पोरेशन में भी मेहरा पर तीन अपात्र फर्मों के टेंडर पास करने का आरोप लगा। शिकायत हुई, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। जब लोकायुक्त का छापा पड़ा तो रेट कान्ट्रैक्ट का टेंडर निरस्त कर दिया गया। बहरहाल, 17 टन शहद कम नहीं होता। आखिर क्या करते होंगे इतने शहद का? जाहिर है, मेहरा अकेले तो इस्तेमाल करने से रहे, बांटते ही होंगे। तो कौन-कौन था लाभार्थी? यही सबसे बड़ा और पहला सवाल है।

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