सीपीई (एमएल) के बाद बिहार के लिए इंडिया ब्लॉक ने अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है। इस घोषणा पत्र में नौकरी एक ऐसा मुद्दा है जो शायद बिहार के वोटर को आकर्षित करे क्योंकि जिस प्रदेश की करीब तीस फीसदी आबादी रोजगार के लिए प्रवासी हो, जिस प्रदेश में पिछली सरकारों ने नौकरियों के वादों को ठोस तरीके से निभाया ना हो उस प्रदेश में जन आकांक्षाओं के क्रम में नौकरी की उम्मीद तो ऊपर ही होगी।
तेजस्वी यादव इंडिया ब्लॉक की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं इसलिए इस घोषणा पत्र को ‘बिहार का तेजस्वी प्रण’ कहा गया है। इस घोषणा पत्र में बीस महीने के भीतर हर परिवार के एक सदस्य को नौकरी से लेकर 2 सौ यूनिट तक मुफ्त बिजली और महिलाओं को हर महीने 2 हजार 5 सौ रुपए तक नगद देने का वायदा शामिल है। जिन घोषणाओं को रेवड़ियां कह कर बदनाम किया जाता था आज वामपंथी दलों को छोड़ कर करीब–करीब हर दल ने उन्हें अपनाया है।
बिहार के इस तेजस्वी प्रण में आकर्षण है लेकिन अभी एनडीए गठबंधन का घोषणा पत्र आना बाकी है और नीतीश सरकार की मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना पर तो पहले ही अमल भी शुरू हो गया है ऐसे में वोटर की पसंद का इंतजार ही करना होगा।
यह सच है कि भारत के संसदीय इतिहास में चुनावी घोषणाएं कानूनी गारंटी ना हों लेकिन राजनीतिक महत्व हमेशा से रखती आई हैं।अगर राजनीतिक दलों की घोषणाओं पर नजर डालें तो अलग–अलग पार्टियों के राजनीतिक चरित्र को भी समझने का मौका मिलता है। जैसे भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र पर नजर डालें तो धर्म और संस्कृति को लेकर उसके वादे राष्ट्रवाद की उसकी राजनीति की तस्वीर साफ करते हैं। यह भी सच है कि चुनावी घोषणाओं को गारंटी के तौर पर पेश करने की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की थी। हालांकि उन गारंटियों में से कितनी पूरी हुईं इसके ऑडिट का कोई ठोस विकल्प अभी हमारा लोकतंत्र नहीं सुझाता।
भाजपा या एनडीए गठबंधन के चुनावी वादों में अगर ऐसे मुद्दे तलाशने हों जिनमें देश के विकास को संबोधित किया गया हो तो डिजिटल इंडिया से लेकर उज्जवला योजना और मुफ्त राशन जैसे उदाहरण ही देखने को मिलते हैं। भाजपा हमेशा ही हिंदुत्व की अपनी राजनीति से जुड़े धार्मिक सांस्कृतिक भावनात्मक मुद्दों को दांव पर लगाती है और इसी दांव से पिछला करीब डेढ़ दशक उसकी सफलता का भी रहा है।इसकी झलक उसके घोषणा पत्रों में तलाशी जा सकती है।
इसी क्रम में इंदिरा गांधी का चर्चित गरीबी हटाओ का नारा भी याद किया जाना चाहिए।माना जाता है कि इंदिरा गांधी ने अपने इस नारे को धरातल पर उतारने की कोशिशों के तहत ही प्रिवी पर्स खत्म करने से लेकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण तक किया। उन्होंने भूमि सुधार के लिए बहुत से कदम उठाए,ग्रामीण विकास की योजनाएं लागू की। इंदिरा गांधी का बीस सूत्री कार्यक्रम कांग्रेस पार्टी की नीतियों की एक झलक था।इस सब ने देश के विकास की एक दिशा तो तय की पर ये कदम भी अपने लक्ष्यों से दूर ही रहे।
भाजपा ने कहा ‘सबका साथ, सबका विकास’ लेकिन भूख ,गरीबी से लेकर आर्थिक विकास के तमाम पैमानों तक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धार्मिक आजादी तक हिन्दुस्तान हर रोज जिस तरह की गिरावट देख रहा है वो भी इस नारे के सच को उजागर करने के लिए काफी है।
इस मुकाबले यूपीए सरकार की मनरेगा,खाद्य सुरक्षा, मिड डे मील, सूचना का अधिकार जैसे कदम देश में बुनियादी परिवर्तन की दिशा में मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। यूपीए में शामिल कांग्रेस और वाम दलों के साझा न्यूनतम कार्यक्रम से यह संभव हुआ था।
बिहार में ही लालू यादव का दौर जंगल राज के रूप में बदनाम था और हालात बदलने के लिए सुशासन के नारे और सुशासन बाबू की जिस धमाकेदार छवि के साथ नीतीश कुमार लॉन्च हुए थे उस नारे और उस छवि की धज्जियां आज बिहार की गलियां देख रहीं हैं।
हिंदुस्तान लोकतंत्र की एक ऐसी प्रक्रिया से गुजर रहा है जिसमें जन आकांक्षाएं भी अभी आकार ही ले रहीं हैं।आज भी इन्हें भावनात्मक मुद्दों से बहला ले जाना कठिन नहीं है। यही वजह है कि अभी भी चुनावी घोषणाएं जवाबदेही का ठोस पैमाना नहीं बन सकी हैं।अगले चुनाव के आते–आते जनता की स्मृति पर ही सवाल होने लगते हैं।
ऐसे में लोकतंत्र की इस प्रक्रिया में राजनीतिक दलों के पास साख हासिल करने का भी अवसर है। अभी बिहार के राजनीतिक दलों के सामने यह अवसर है।
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