बस्तर दशहरे से जुड़े पारंपरिक मुरिया दरबार में इस बार केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के सामने जिस तरह से एक माझी ने बस्तर की बहुचर्चित बोधघाट परियोजना को लेकर हजारों आदिवासियों की बेदखली का मुद्दा उठाया है, उस पर गौर करने की जरूरत है।
दरअसल बड़ी बांध परियोजनाओं को लेकर सरकारें अक्सर विकास के दावे करती आई हैं, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि इनकी वजह से पारिस्थितिकी और स्थानीय लोगों को सर्वाधिक खामियाजा भुगतना पड़ता है। ऐसी परियोजनाओं के लिए विस्थापन एक अनिवार्य शर्त है, और अक्सर स्थानीय लोगों की अनदेखी कर दी जाती है। 1979 से प्रस्ताविक बोधघाट परियोजना के साथ भी यही हो रहा है, जिस पर हाल के महीने में तब तेजी आई, जब मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर इसकी जानकारी दी।
ऐसे में अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाने के लिए मुरिया दरबार से बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती थी, जिसका इसलिए ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि इसमें पुराने समय में बस्तर के राजा सीधे अपने लोगों से संवाद कर उनकी समस्या सुनते थे और उसका निपटारा करते थे और आजादी के बाद राजा की जगह मंत्रियों और अधिकारियों ने ले ली है।
मुरिया दरबार के मौके पर केंद्रीय गृहमंत्री शाह से मुखातिब होकर करेकोट के परगना मंगलू मांझी ने हलबी में जिस अंदाज में सीधे सवाल किया जिसका अंदाजा तो शायद वहां मौजूद अधिकारियों को भी नहीं रहा होगा!
यह उन आदिवासियों की पीड़ा है, जिन्हें इंद्रावती नदी पर प्रस्तावित बोधघाट परियोजना के कारण अपनी जमीन और जंगल से बेदखल होना पड़ेगा। मगलू मांझी का सरकार से सीधा सवाल है कि बोधघाट परियोजना के कारण हम आदिवासियों को कहां भगाया जाएगा। हम पीढ़ी दर पीढ़ी यहां रहते आए हैं और सरकार हमें यहां से भगाना चाहती है। माझी के ये शब्द सरकारों की नीतियों और नीयत पर सवालिया निशान की तरह है, ‘हर सरकार आती है और बांध बनाने की बात करती है!’
बेशक, सिंचाई और बिजली परियोजनाओं के लिए ऐसी बांध परियोजनाओं की जरूरत है, जैसा कि बोधघाट परियोजना को लेकर दावा है कि इससे 5000 हजार मेगावाट बिजली पैदा होगी, दंतेवाड़ा, बीजापुर और सुकमा जिलों में हजारों एकड़ में खेती हो सकेगी और मछली पालन किया जा सकेगा। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इसकी वजह से पचास से अधिक गांवों के पचास हजार से अधिक आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल कर दिए जाएंगे और करीब 14 हजार हेक्टेयर वनभूमि और निजी भूमि डूबान क्षेत्र में आ जाएगी।
इससे यह भी पता चलता है कि बस्तर जैसे सघन वनसंपदा और खनिज संपदा तथा जैवविविधता से समृद्ध क्षेत्र में स्थानीय लोगों को विश्वास में लिए बिना किस तरह से फैसले लिए जा रहे हैं। बस्तर में ग्राम सभाओं को दरकिनार कर लिए जा रहे फैसलों पर कुछ महीने पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम ने सवाल उठाया ही था।
ऐसे समय में जब केंद्र और राज्य सरकार बस्तर सहित पूरे देश में अगले साल मार्च तक माओवाद के सफाए का ऐलान कर चुकी है और जैसा कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे मुरिया दरबार में दोहराया भी है, इसलिए यह और भी जरूरी हो जाता है कि बस्तर के भावी रोडपैम को लेकर वहां के लोगों को पूरे विश्वास में लिया जाए। दरअसल मंगलू मांझी के शब्दों में छिपे दर्द को महसूस करने की जरूरत है।
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