भारत एक समय में केवल एक संकट का सामना नहीं कर रहा है, बल्कि वह पॉलीक्राइसिस यानी बहुसंकट से जूझ रहा है। 1970 के दशक में इतिहासकार एडम टूज ने एक साथ आने वाली कई तरह की बाधाओं को बताने के लिए सबसे पहले अंग्रेजी के एक शब्द ‘पॉलीक्राइसिस’ का इस्तेमाल किया और उसे बोलचाल का हिस्सा बना दिया।
टूज ने इसे समझाने के लिए साइकिल का इस्तेमाल किया और कहा कि यदि इसे चलाते हुए कोई गिर जाए, तो मुसीबत में पड़ जाए और जिसे यह चलानी आ जाए, तो उसका जीवन बदल जाए।
टूज के इस रूपक का इस्तेमाल भारत के मौजूदा संकटों के लिए किया जा सकता है, जिसे अभी जलवायु परिवर्तन से मिल रहे झटकों, ट्रेड पेनाल्टी, प्रवासियों के संकट और आर्थिक तनाव से जूझना पड़ रहा है।
इसे समझने के लिए पंजाब को उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है।
पंजाब में पॉलीक्राइसिस कोई सैद्धांतिक मामला नहीं है, बल्कि यह जमीनी हकीकत है। अमेरिका को यार्न यानी धागा निर्यात करने वाली लुधियाना की गंगा एक्रोवूल्स लिमिटेड के अमित थापर वैश्विक कारोबार के बढ़ते तनाव से सीधे जूझ रहे हैं।
पांच हजार कामगारों वाली उनकी कंपनी अपने यहां तैयार होने वाला करीब आधा माल अमेरिका को भेजती है, जिनमें कारपेट यार्न और क्राफ्ट यार्न शामिल हैं।

दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ पर 25 फीसदी पेनाल्टी लगाने के बाद कुल टैरिफ 50 फीसदी हो गया है। नया बाजार तलाशने स्पेन गए थापर ने फोन पर हुई बातचीत में कहा, हमारी जैसी कंपनियां इससे नहीं लड़ सकतीं।
ऐसा नहीं है कि केवल छोटे कारोबार ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि यह संकट बड़े उद्यमों के साथ भी है जिनके खरीदारों का दायरा बड़ा है। दंडात्मक उपायों से बचने प्रतिष्ठा और पैमाना दोनों काम नहीं आ रहे हैं।
थापर आगाह करते हैं कि टैरिफ कायम रहता है, तो तुर्किये, वियतनाम, बांग्लादेश, कंबोडिया, श्रीलंका और नेपाल जैसे देश भारत को महत्वपूर्ण बाजारों से बेदखल कर देंगे। ऐसे में उम्मीदें भारत-अमेरिका ट्रेड डील के प्रस्ताव, ईयू-भारत मुक्त व्यापार समझौता और अब भी ब्रिटेन से लंबित समझौते पर टिकी हुई हैं।
हालांकि थापर कहते हैं कि वह प्रतिबद्ध हैं कि एक भी कर्मचारी की नौकरी से छुट्टी नहीं करेंगे। उन्हें उम्मीद है कि सरकार की पहलों से उन्हें इस संकट से उबरने में मदद मिलेगी।
केवल टैरिफ ही अकेला संकट नहीं है। पंजाब में इस बार भयंकर बाढ़ ने भी तबाही मचाई है। बड़े औद्योगिक शहरों को जहां अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ है, वहीं बारिश ने सप्लाई चेन को खासा बाधित किया है। वहीं खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। हजारों गांव जलमग्न हो गए, खेतों की फसलें डूब गईं।
अनुमानित नुकसान हजारों करोड़ रुपये में है। लेकिन असली नुकसान बुआई में हुई देरी, बढ़ती लागत और फसलों की बर्बादी में निहित है, जिसके आकलन में थोड़ा समय लग सकता है। बाढ़ ने आधारभूत ढांचे और नियोजन की खामियों को उजागर कर दिया है।
बाढ़ के मैदानों पर अतिक्रमण, बंद नालियां और खराब तटबंधों ने प्राकृतिक आपदा को मानव-निर्मित संकट में बदल दिया। बेसिन-स्तरीय योजना, जलाशयों का वास्तविक समय में समन्वय और जलवायु-प्रतिरोधी ढांचे की सिफारिश की गई है, लेकिन अमल नहीं हो पा रहा।
माइग्रेशन यानी प्रवासन कभी पंजाब की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार था, लेकिन अब यह डगमगा गया है। ग्रामीण परिवारों में से कई के कम से कम एक सदस्य विदेश में है, और उनके भेजे पैसे से आजीविका, शिक्षा और स्थानीय अर्थव्यवस्था चलती थी। लेकिन हाल ही में अमेरिका से हुए निर्वासन ने इस मॉडल को प्रभावित किया है।
प्रवासन के लिए भारी कर्ज लेने वाले परिवार अब भावनात्मक और आर्थिक दबाव झेल रहे हैं। लैटिन अमेरिका के रास्ते ‘डॉन्की रूट’, जो कभी जोखिम भरा लेकिन संभव मार्ग माना जाता था, अब हताशा और टूटी उम्मीदों का प्रतीक बन गया है। आर्थिक प्रभाव स्पष्ट है।
कभी प्रवासियों के भेजे पैसे से फलने-फूलने वाले गांवों में अब उपभोग, निवेश और यहां तक कि विवाह की संभावनाएं भी कम हो रही हैं। प्रवास, जो कभी समृद्धि का रास्ता था, अब जोखिम भरा जुआ बन गया है।

पंजाब का यह संकट अकेला नहीं है। केरल, बिहार और उत्तर प्रदेश में भी ऐसी जगहें हैं, जहां प्रवासियों का पैसा बेरोजगारी और आर्थिक कमजोरी को छिपाता है।
उत्तराखंड में जलवायु की अस्थिरता ने मानसून को निरंतर आने वाली आपदा में बदल दिया है। बादल फटना, भूस्खलन और अचानक बाढ़ के आ जाने ने पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बाधित किया है। राज्य की पारिस्थितिकी को बेतरतीब विकास और मौसम के बदलते पैटर्न ने मुश्किल में डाल दिया है।
दूसरी ओर दक्षिण में तमिलनाडु के कपड़ा केंद्र तिरुपुर में, वैश्विक व्यापार झटकों ने निर्यातकों को तोड़ दिया है। कच्चे माल की बढ़ती लागत, श्रमिकों की कमी, और घटते ऑर्डर छोटे-मध्यम उद्यमों के लिए खतरा बन गए हैं। पंजाब के निर्यातकों को सताने वाले अमेरिकी टैरिफ की छाया यहां भी मंडरा रही है। पानी की कमी और बिजली की बाधाएं दबाव को और बढ़ा रही हैं।
इन औद्योगिक केंद्रों में एक समान समस्या है: कई संकट एक साथ मिलकर बढ़ रहे हैं। व्यापार में रुकावटें उद्योगों को नुकसान पहुंचा रही हैं। जलवायु आपदाएं खेती और प्रवास को प्रभावित कर रही हैं। आर्थिक दबाव सामाजिक अशांति पैदा कर रहा है। यह बहुसंकट एक के बाद एक नहीं, बल्कि एक साथ हो रहा है।
फिर भी, इन्हें लेकर प्रतिक्रिया ठंडी है।
फिर भी जवाब टुकड़ों में हैं। शासन व्यवस्था अलग-अलग काम करती है। मंत्रालय अकेले चलते हैं। राहत प्रतिक्रियात्मक है, पहले से तैयार नहीं। बहुसंकट के लिए एकीकृत योजना, अनुकूल शासन और समन्वित कार्रवाई की जरूरत है। मौजूदा मॉडल एक साथ निपटने के लिए नहीं, बल्कि रोकथाम के लिए बनाया गया है।
फिर भी, स्थानीय स्तर पर प्रयास उभर रहे हैं। पंजाब में, निर्माता क्लस्टर-आधारित सहकारी समितियां बना रहे हैं, ताकि लॉजिस्टिक्स को साझा करें और अफ्रीका व पश्चिम एशिया के खरीदारों से बेहतर दरें तय करें। पंजाब स्मॉल इंडस्ट्रीज एंड एक्सपोर्ट कॉर्पोरेशन नई दिल्ली और दुबई में व्यापार मेलों में भागीदारी को सब्सिडी दे रहा है, जिससे निर्यातक अमेरिकी बाजार से आगे बढ़ सकें।
पंजाब कृषि विश्व विद्यालय ने धान की सीधे खेत में बुआई और ड्रिप सिंचाई से संबंधित पायलट कार्यक्रम लागू किया है। स्टार्ट अप्स किसानों को मोबाइल ऐप से जोड़कर मिट्टी के विश्लेषण और बाजार की भविष्यवाणियों के जरिये मदद कर रहे हैं।
मोगा और होशियारपुर जैसे शहरों में प्रवासन से मिले झटके से प्रभावित परिवार अब स्थानीय कारोबार में निवेश कर रहे हैं, जैसे ट्रांसपोर्ट, मोबाइल रिपेयर की दुकानें और निजी ट्यूशन केंद्र।
माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं ने बताया है कि उनके यहां ग्रामीण उद्यमों के लिए अचानक लोन के लिए आवेदन बढ़ गए हैं, खासतौर से ऐसे घरों से जो पूर्व में रेमिटेंस (विदेश से भेजे जाने वाले पैसे) पर निर्भर थे।
बाढ़ से हुए नुकसान से उबरने का काम स्थानीय स्तर पर हो रहा है। मुक्तसर और फाजिल्का में गुरुद्वारे और पंचायतें मिलकर दान की मिट्टी और श्रम से तटबंध बना रहे हैं। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के इंजीनियर ड्रोन से बाढ़ वाले इलाकों का नक्शा बना रहे हैं और हिमाचल प्रदेश व हरियाणा के साथ बांधों के लिए बेहतर तालमेल की मांग कर रहे हैं।
नीतिगत मोर्चे पर पंजाब सरकार ने बाढ़ प्रबंधन के लिए पंजाब, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा के साथ मिलकर एक त्रि-राज्य प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव दिया है। यह जलाशयों से पानी छोड़ने और बाढ़ नियंत्रण की योजना बनाएगा। पिछले साल इस पर चर्चा हुई थी, लेकिन प्रगति धीमी रही, इसलिए 2025 में इसे फिर से जोर दिया जा रहा है।
ये प्रतिक्रियाएं केवल लचीलापन दिखाने के अलग-अलग कार्य नहीं हैं—ये रणनीतिक बदलाव हैं। ये इस बात को दर्शाते हैं कि बहु-संकट अस्थायी नहीं है। यह संरचनात्मक है। इसके लिए केवल ठीक होने की नहीं, बल्कि पुनर्रचना की मांग है।
भारत के बहु-संकट केंद्र—पंजाब, उत्तराखंड, तिरुपुर—अपवाद नहीं हैं। ये संकेतक हैं। ये प्रतिक्रियात्मक शासन से दूरदर्शी योजना की ओर बदलाव की मांग करते हैं। टुकड़े-टुकड़े में राहत से एकीकृत प्रतिक्रिया की ओर।
बहु-संकट यहां है। सवाल यह नहीं कि भारत को और ऐसे संकटों का सामना करना पड़ेगा या नहीं। सवाल यह है कि क्या हर राज्य इसके लिए तैयार होगा।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।
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