यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक कारणों से भाजपा बस्तर में व्यापक अस्थिरता फैलाने वाले सलवा जुड़ूम अभियान और एसपीओ पर रोक लगाने वाले फैसले की वजह से उपराष्ट्रपति पद के विपक्ष के उम्मीदवार सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी को नक्सलवाद समर्थक बताकर उन पर हमले कर रही है।
पहले छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री विजय शर्मा ने और उनके बाद अब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आरोप लगाया है कि सलवा जुड़ूम पर रोक लगाकर जस्टिस रेड्डी ने नक्सलियों को पनपने का मौका दिया। याद किया जा सकता है कि किन परिस्थितियों में 2005 में दक्षिण बस्तर में नक्सलियों के सफाए के लिए सलवा जुड़ूम (जन जागरण) शुरू किया गया था और इसका नेतृत्व कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा कर रहे थे।
यह सब राज्य की तत्कालीन भाजपा सरकार के समर्थन से हो रहा था। इस अभियान में अशिक्षित या कम शिक्षित युवाओं की एसपीओ (विशेष पुलिस अधिकारी) के रूप में तैनाती की गई थी और उन्हें हथियार भी थमा दिए गए थे। जैसे-जैसे यह अभियान आगे बढ़ता गया, बस्तर के गांवों से सलवा जुड़ूम और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक टकराव शुरू हो गया।
हालत यह हो गई थी कि इस अभियान ने दक्षिण बस्तर को अराजकता की ओर धकेल दिया, नतीजतन छह सौ से ज्यादा गांव खाली हो गए और डेढ़ लाख से भी ज्यादा लोग विस्थापित हो गए। बहुत से लोगों ने तो पड़ोसी आंध्र प्रदेश में जाकर शरण ली थी।
इस बीच, 2007 में इतिहासकार रामचंद्र गुहा, प्रोफेसर नंदिनी सुंदर और पूर्व आईएएस ईएएस सरमा ने सलवा जुड़ूम और एसपीओ की तैनाती को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिस पर सुनवाई करते हुए जुलाई 2011 में सुप्रीम कोर्ट के जज बी सुदर्शन रेड्डी और एस एस निज्जर ने इस अभियान को असंवैधानिक करार दिया।
इस मामले की शुरुआती सुनवाई के दौरान जस्टिस के जी बालाकृष्ण ने भी सलवा जुड़ूम को गैरकानूनी करार दिया था। उस वक्त के हालात पर गौर करें, तो पता चलेगा कि तब केंद्र में यूपीए सरकार थी और छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह की अगुआई वाली भाजपा सरकार, लेकिन नक्सलियों से निपटने के मामले में दोनों की नीतियां एक जैसी ही थीं।
यह भी वास्तविकता है कि सलवा जुड़ूम पर रोक के दो साल बाद 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस के काफिले पर भीषण हमला किया था, जिसमें महेंद्र कर्मा सहित छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं की मौत हो गई थी। जाहिर है, नक्सली हिंसा को दलगत हितों से ऊपर उठकर देखने की जरूरत है।
जस्टिस सुदर्शन के समर्थन में सामने आए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के 18 पूर्व जजों ने रेखांकित किया है, ‘यह फैसला न तो स्पष्ट रूप से और न ही इसके पाठ के निहितार्थ से नक्सलवाद या उसकी विचारधारा का समर्थन करता है।‘ देश के संवैधानिक मूल्यों को स्थापित करने वाले इतने अहम फैसले पर यह विवाद न केवल अप्रिय है, बल्कि इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता भी प्रभावित होती है।