नई दिल्ली। यह 1983 की सर्दियों के दिन थे। समूचा मध्य पूर्व अशांत था। फिलिस्तीन लिबरेशन फ्रंट, यासिर अराफात के नेतृत्व में लेबनान के त्रिपोली में खतरनाक स्थिति में फंसा हुआ था। सीरिया समर्थित गुटों द्वारा अन्य क्षेत्रों से खदेड़े जाने के बाद उन्होंने त्रिपोली में शरण ली थी, लेकिन भीषण लड़ाई में वे फंस गए। फिर जो हुआ, उसकी चर्चा विश्व इतिहास में यदा-कदा होती है।
अराफात के सलाहकार और इंदिरा गांधी

यासिर अराफात के मुख्य सलाहकार बस्सम अबू शरीफ 9 दिसंबर 1983 को अराफात के कहने पर दिल्ली पहुंचे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जैसे ही खबर मिली, उन्होंने शाम 4:45 बजे उन्हें मिलने के लिए बुला लिया। बस्सम अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मुलाकातियों में मेरा नंबर आखिरी था। एक बड़े कमरे में छोटी-सी मेज पर इंदिरा जी बैठी थीं। मुझे वे उदास लगीं।
यह वह वक्त था जब संजय गांधी की दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी। मेरे प्रवेश करते ही उन्होंने पूछा कि यासिर अराफात के क्या हाल हैं?’ अबू शरीफ अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि मैंने उन्हें पूरी स्थिति बताई और कहा कि अराफात त्रिपोली में बुरी तरह फंसे हुए हैं और आप उन्हें निकालने में मदद करें। श्रीमती गांधी ने कहा कि अराफात के साथ समस्या यह है कि वे अरब लोगों के लिए बहुत अधिक समर्पित हैं। उन्हें सावधान रहना होगा और यह समझना होगा कि ये लोग उन्हें पसंद नहीं करते।
इंदिरा का फोन और अराफात को सलाह

अबू शरीफ कहते हैं कि अगले ही पल उन्होंने अपने सचिव को बुलाया और कहा, ‘सीरिया के तत्कालीन राष्ट्रपति हाफिज अल असद को फोन लगाइए।’ चूंकि असद को कुछ ही दिन पहले दिल का दौरा पड़ा था, उन्होंने सचिव से कहा कि पूछ लें कि वे बात करने की स्थिति में हैं या नहीं। थोड़ी ही देर में असद फोन पर थे। श्रीमती गांधी ने पहले उनकी तबीयत के बारे में पूछा, फिर कहा कि अराफात को सीरिया के रास्ते जाने की इजाजत दीजिए, अगर वे समुद्र के रास्ते गए तो खतरे में पड़ जाएंगे, क्योंकि समुद्री मार्ग इजरायल के नियंत्रण में है। बात खत्म हुई। इंदिरा गांधी ने अबू शरीफ से कहा, ‘राष्ट्रपति अराफात से कहिएगा कि भारत न केवल उनसे प्यार करता है, बल्कि उनकी इज्जत भी करता है। सीरिया इजाजत नहीं देगा, उन्हें हर हाल में यूरोप से संपर्क करना होगा।’ अंततः वही हुआ। सुरक्षा परिषद ने अराफात को त्रिपोली से निकाला।
हर दौर में बेहतर रहे हैं खाड़ी देशों और भारत के संबंध
आज कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने ‘द हिंदू’ में फिलिस्तीन और ईरान के साथ संबंधों को लेकर एक बेहद सामयिक लेख लिखा है। उन्होंने गाजा और ईरान के मामले में भारत सरकार से तत्काल हस्तक्षेप की मांग की है। यकीनन, हिंदुस्तान में एक वक्त ऐसा रहा जब भारत न केवल हस्तक्षेप करता था, बल्कि तमाम मौकों पर अपनी स्वतंत्र राय भी देता था। फिलिस्तीन और भारत के संबंध न केवल इंदिरा गांधी के दौर में, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भी बेहद शानदार रहे।
अटल बिहारी का वह ऐतिहासिक भाषण
जनता पार्टी की जीत के बाद 1977 में अटल बिहारी वाजपेयी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ऐतिहासिक भाषण दिया था। उन्होंने कहा था, ‘हम जानते हैं कि एक गलतफहमी पैदा की जा रही है कि जनता पार्टी की सरकार बन गई है, वह अरबों का साथ नहीं देगी, इजरायल का साथ देगी। मोरारजी भाई स्थिति को स्पष्ट कर चुके हैं। गलतफहमी को दूर करने के लिए मैं कहना चाहता हूं कि हम हर प्रश्न को गुण और अवगुण के आधार पर देखेंगे। लेकिन मध्य पूर्व के बारे में स्थिति साफ है कि अरबों की जिस जमीन पर इजरायल कब्जा करके बैठा है, उसे वह खाली करेगा।
आक्रमणकारी आक्रमण के फलों का उपभोग करे, यह हमें अपने संबंध में स्वीकार नहीं है। जो नियम हम पर लागू हैं, वे दूसरों पर भी लागू होंगे। अरबों की जमीन खाली होनी चाहिए। जो फिलिस्तीनी हैं, उनके अधिकारों की स्थापना होनी चाहिए। इजरायल के अस्तित्व को तो रूस और अमेरिका ने भी स्वीकार किया है। मध्य पूर्व का एक ऐसा हल निकालना होगा, जिसमें आक्रमण का परिमार्जन हो और स्थायी शांति का आधार बने। गलतफहमी की गुंजाइश कहां है?’
जब बेहतर दोस्त थे भारत और ईरान

1979 में हुई ईरान क्रांति के दौरान तेहरान में भारत का दूतावास था, लेकिन उसमें कोई दूत नहीं था। फरवरी 1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में आते ही ईरान में अकबर खलीली को राजदूत बनाकर भेजा। ‘इंडिया एंड ईरान रिलेशंस इन 21 सेंचुरी’ किताब लिखने वाले डॉ. मुख्तार अहमद लिखते हैं कि खलीली ने एक इंटरव्यू में साफ कहा था कि भारत और ईरान के संबंध हमेशा से अच्छे रहे हैं। इनमें ईरान की क्रांति और भारत के सत्ता परिवर्तन से कोई बदलाव नहीं आएगा।
इस बेहतर माहौल का नतीजा यह हुआ कि ईरान में नई सरकार बनते ही वाणिज्य मंत्री रजा सदर आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल लेकर भारत आए और ताबड़तोड़ समझौते किए। यह जानना चाहिए कि 2009 तक भारत अपने कुल क्रूड ऑयल आयात का लगभग 40 प्रतिशत ईरान से करता था। 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के ईरान दौरे में हुए तेहरान समझौते और फिर 2003 में ईरान के राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी के दिल्ली दौरे में हुए समझौतों ने एक नई राह खोली थी, जिसे हमने 2017 आते-आते बंद कर दिया।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ

आज सोनिया गांधी भी अपने लेख में उसी संबंध की बात कर रही थीं। यह विदेश नीति की मजबूती का ही परिचायक था कि हम फिलिस्तीन और इजरायल, ईरान और इराक, सभी के नजदीक थे, जबकि वे आपस में लड़ रहे थे।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के यूरोपियन स्टडीज के प्रोफेसर गुलशन सचदेवा कहते हैं कि सोनिया गांधी के सवाल वाजिब हैं, लेकिन अभी फिलहाल ईरान ने अपने आपको जिस स्थिति में ला खड़ा किया है, उससे पुराने तरीके की गर्मजोशी पैदा करना मुश्किल है। प्रोफेसर सचदेवा कहते हैं कि यकीनन गाजा समेत तमाम जगहों पर ऐसे मौके आए, जहां हमें बोलना था, पर हम खामोश रहे। लेकिन यह सच है कि अगर फिलिस्तीन और ईरान को छोड़ दें, तो बाकी के साथ हमारे संबंध अच्छे हैं।