वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2025 की लैंगिक असमानता की 148 देशों की सूची में भारत की स्थिति बदतर ही हुई है और वह अब पिछले साल की तुलना में दो अंक खिसक कर 131 वें स्थान पर पहुंच गया है। इस खबर से समझा जा सकता है कि जिस आर्थिक रफ्तार का दावा किया जा रहा है, उसमें देश की आधी आबादी की जगह कहां है! खासतौर से कॉर्पोरेट हितों को साधने वाला वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम आर्थिक भागीदारी और अवसर; शिक्षा; स्वास्थ्य; और राजनीतिक सशक्तीकरण जैसे चार पैमाने पर महिलाओं की स्थिति को आंकता है। उसके इन पैमानों पर भारत खरा नहीं उतरा है। दरअसल आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक सशक्तीकरण दो ऐसे आधार हैं, जिन पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे टिके हुए हैं। भारत में महिलाओं के लिए अभी दिल्ली कितनी दूर है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले साल की तुलना में संसद में महिलाओं की संख्या 14.7 फीसदी से एक फीसदी घटकर 13.8 हो गई है। वास्तविकता यह है कि संसद से भले ही महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का बिल पास हो चुका है, लेकिन अब भी ज्यादातर बड़े राजनीतिक दलों में पुरुष वर्चस्व है और वे महिलाओं को चुनावों में एक तिहाई टिकट तक देने को तैयार नहीं है। यही स्थिति आर्थिक भागीदारी के मामले में है।महिलाओं की औसत आय और पुरुषों की औसत आय में भी यह अंतर देखा जा सकता है, यहां तक कि कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां समान काम के बावजूद वेतन में अंतर है। इस असमानता के बीच हाल ही में नेशनल डिफेंस एकेडेमी से 17 महिला कैडेट के पहले बैच के पास होने की सुखद खबर आई है, लेकिन यहां तक पहुंचने में 76 साल लग गए। और इसे अपवाद ही माना जाना चाहिए, वास्तव में महिलाओं को बराबरी पर खड़ा देखने के लिए न तो अब तक समाज तैयार हो सका है, न संसद!