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Home » साहित्य क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समावेता युयुत्सव : सोशल मीडिया के युद्धक्षेत्र में साहित्यकारों की मोर्चाबंदी

साहित्य-कला-संस्कृति

साहित्य क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समावेता युयुत्सव : सोशल मीडिया के युद्धक्षेत्र में साहित्यकारों की मोर्चाबंदी

Editorial Board
Last updated: May 19, 2025 12:47 pm
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देश भक्ति मेरा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकती। मेरा आखिरी आश्रय मानवता है। मैं हीरे के दाम कांच नहीं खरीद सकता। जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देश भक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।  -रवीन्द्र नाथ टैगोर

खबर में खास
बिहार चुनाव तक चली गई बहसबीच बहस में अरुंधति रायवामपंथ बनाम दक्षिणपंथबिगाड का डर

जंग तो खुद ही एक मसअला है। जंग क्या मसअलों का हल देगी ?
आग और ख़ून आज बख्शेगी। भूख और एहतयाज कल देगी ! -साहिर लुधियानवी

विश्व की तमाम भाषाओं में ऐसे तमाम उदाहरण मिल सकते हैं, जो  इस बात की तस्दीक करते हैं कि कवि विश्व नागरिक होता है। देश की सीमाएं उसके लिए मानवता से ऊपर नहीं होती हैं।

अरुण आदित्य, चर्चित कवि और वरिष्ठ पत्रकार

इस दृष्टि से युद्ध का समय साहित्यकारों के लिए लिटमस टेस्ट की तरह होता है कि उनकी अंतरात्मा का झुकाव किस ओर है। महाभारत जो कि युद्ध का ही महाकाव्य है, में भी कृष्ण ने युद्ध को रोकने की हर संभव कोशिश की थी। वे पांडवों के लिए पांच गांव पर भी राजी थे। लेकिन दुर्योधन के हठ और भीष्म द्रोणाचार्य आदि विद्वज्जनों की निष्क्रियता के चलते युद्ध हुआ और दोनों पक्षों में भारी विनाश हुआ।

याचना नहीं अब रण होगा  जैसी ओजपूर्ण पंक्ति लिखने वाले रामधारी सिंह दिनकर ने भी महाभारत रोकने की हर संभव कोशिश का प्रभावी चित्रण किया है। युद्धोन्मत्त दुर्योधन से कृष्ण कहते हैं-

“दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पांच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे!”

हिंदी साहित्य की  प्रगतिशील धारा हमेशा युद्ध के विरोध में और मानवता के पक्ष में रही है। अमेरिका जैसी महाशक्ति ने वियतनाम जैसे छोटे देश पर आक्रमण किया तो महाशक्ति के विरुद्ध और मानवता के पक्ष में हमारे साहित्यकारों ने तेरा नाम मेरा नाम वियतनाम  जैसे नारे लगाए थे। यही नहीं गत वर्षों में जब इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध और रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत हुई तो हमारे साहित्यकारों ने खुलकर युद्ध को मानवता के विरुद्ध बताया था।

हाल में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के दौरान साहित्यकारों से वैसी ही विवेकशील, संवेदनशील प्रतिक्रिया की उम्मीद थी, लेकिन इस बार हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकार तो आपस में ही युद्ध करते नजर आए। मनुष्यता के नक्शे पर राष्ट्रधर्म की रेखा खींचकर दो पाले बना दिए गए। एक पाले में राष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध का समर्थन हो रहा था, तो दूसरे पाले के लोग मनुष्यता के नाम पर युद्ध के विरोध में खड़े थे। एक खेमे से दूसरे खेमे के लोगों को संघी, सांप्रदायिक, फासिस्ट जैसे सर्टिफिकेट दिए जा रहे थे तो दूसरे खेमे की तरफ से पहले खेमे के लोगों को वामी, कामी, गद्दार, देशद्रोही जैसे तमगे दिए जा रहे थे।

सोशल मीडिया पर युद्ध घोष इतना प्रचंड था कि कुछ साहित्यकारों ने युद्ध के विरुद्ध और मानवता के पक्ष में ‘से नो टु वॉर’ का हैशटैग चलाया तो उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज जितनी भी नहीं सुनाई दी। पर दूसरे खेमे के साहित्यकारों को यह मद्धिम आवाज भी सहन नहीं हुई। अनेक साहित्यकार उन पर ही पिल पड़े। भाषा के अनियंत्रित तीर किधर जा रहे थे, कुछ पता ही नहीं चल रहा था। वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने अपनी कविता का एक अंश फेसबुक पर पोस्ट किया-

 युद्ध में कोई नहीं जीतता, बस मनुष्यता हारती है

इसके जवाब में उन पर लानतों-मलामतों की बौछार शुरू हो गई। कवि राहुल राजेश ने लिखा –

 बस चांद रोएगा और चरस बोएगा!!

उल्लेखनीय है कि ‘बस चंद रोएगा’ मदन कश्यप के ताजा कविता संग्रह का शीर्षक है। राहुल राजेश का दक्षिणपंथी झुकाव पहले से स्पष्ट रहा है, लेकिन मदन कश्यप की लानत-मलामत करने में प्रगतिशील साहित्यकार भी पीछे नहीं रहे। पोस्ट के जवाब में आई अशालीन प्रतिक्रियाओं से आहत होकर मदन कश्यप ने लिखा, ”युद्ध के साथ होना और युद्ध हो जाने की स्थिति में देश और  सेना के साथ होना, दो अलग-अलग  स्थितियाँ हैं। इस बारीक अंतर को नहीं समझनेवाले आपस में ही सिरफुटौवल कर रहे हैं। मैं अपनी आँख की ख़राब स्थिति के चलते ज़्यादा स्क्रीन नहीं देख पाता और लंबा पोस्ट भी नहीं लिख पाता। गालियों का उत्तर नहीं दूँगा।”

मदन कश्यप, अनिल जनविजय, प्रभात रंजन

बिहार चुनाव तक चली गई बहस

गालियों की बात चली तो दो लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों के बीच का वाकयुद्ध याद आ गया। रूस में रह रहे साहित्यकार, कविताकोश की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले अनिल जनविजय ने पहलगाम आतंकी हमले को बिहार चुनाव से जोड़ते हुए मोदी के खिलाफ पोस्ट लिखी तो ‘कोठागोई’ व ‘हिंदी मीडियम टाइट’ जैसी उल्लेखनीय कृतियों के लेखक और वेब मैगजीन ‘जानकी पुल’ के संचालक प्रभात रंजन ने उन्हें चुनौती दी,

“तू आ इंडिया!”
प्रत्युत्तर में अनिल जनविजय ने थोड़ा और अशालीन होते हुए कहा,
‘तू क्या कर लेगा… ।’

यह संवाद इस बात की तस्दीक करता है कि सोशल मीडिया ने साहित्यकारों की भाषा को किस स्तर तक पहुंचा दिया है। धर्मवीर भारती के नाटक अंधा युग की पंक्तियाँ याद आती हैं-

टुकड़े -टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा

उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है

पांडव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा

यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है।

तू-तू मैं-मैं के बीच कुछ साहित्यकारों ने औचित्यपूर्ण बातें भी कही, मगर राष्ट्रवाद के उफान में उनकी सुनता कौन? प्रसिध्द आलोचक और वागर्थ के संपादक शंभुनाथ की टिप्पणी विचारणीय है,

”आतंकवाद के विरुद्ध एक संदेश जाना चाहिए, इसलिए मैं युद्ध के समर्थन में हूं, पर मैं लाखों दूसरे शांतिप्रिय नागरिकों की तरह युद्ध  का विरोधी हूं! यह समाधान नहीं है,  बल्कि इसके कई बड़े साइड इफेक्ट्स हैं। कई बार युद्ध को एक आवश्यक बुराई के रूप में चुना जाता है, पर यह एक बुराई है जिसकी शिकार सबसे अधिक स्त्रियां होती हैं!”

बीच बहस में अरुंधति राय

अरुंधति राय, वीरेंद्र यादव, अशोक कुमार पांडेय

निस्संदेह युद्ध का दुष्परिणाम स्त्रियाँ ही सबसे अधिक भुगतती हैं। जिन्हें इस बात में जरा भी शंका हो, गरिमा श्रीवास्तव की किताब ‘देह ही देश’ पढ़ सकते हैं। सोशल मीडिया पर चल रहे इस बौद्धिक युद्ध में भी शिकार सबसे ज्यादा स्त्रियाँ ही हुईं। सुजाता और अणुशक्ति सिंह जैसी मुखर लेखिकाओं पर व्यक्तिगत अशालीन टिप्पणियाँ करके उनका मुंह बंद करने की कोशिश की गई। पर वे नहीं जानते कि ये हर वार का प्रतिकार करना जानती हैं। व्यक्तिगत हमलों के प्रतिकार में सुजाता ने लिखा,

 “असहमति और आलोचना को जगह दो कहने वाले असहमत औरतों के चरित्र पर कीचड़ उछाल रहे हैं।  अपना धार्मिक होना और देशभक्त होना ऐसे ही साबित करोगे? दूसरों से उदारता चाहिए लेकिन टार्गेट पोस्ट बनाकर उसपर छिछले कमेंट्स अपने यहाँ आमंत्रित करने हैं। ‘कुछ अच्छा नहीं कह सकते तो चुप रहो’- ऐसा कहने वाले ख़ुद पर क्यों नहीं लागू करते यह?”

बुकर पुरस्कार विजेता ख्यात लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरुंधति राय ने युद्ध को नाटक बताया तो बवाल मच गया। अरुंधति ने कहा,” पाकिस्तान और भारत युद्ध में नहीं हैं, लेकिन उनकी सरकारें हैं। उनके व्यापारिक समुदाय, फिल्म उद्योग, और आम लोग एक-दूसरे से नहीं लड़ रहे हैं। यह युद्ध वास्तव में एक नाटक है जो दोनों तरफ के शासक वर्ग द्वारा रचा गया है, जो डर और नफरत से लाभ उठाते हैं। भारतीय और पाकिस्तानी अभिजात वर्ग राष्ट्रवाद और कश्मीर के मुद्दे को ज़िंदा रखते हैं ताकि अपने लोगों का ध्यान गरीबी, असमानता, सरकार की विफलताओं और अत्याचारों से हटाया जा सके।”

अरुंधति के इस बयान पर कश्मीरनामा जैसी बहुचर्चित कृति के लेखक, कवि और इतिहासकार अशोक कुमार पांडेय ने सख्त एतराज जताया। उन्होंने लिखा,

“कश्मीर में पाकिस्तान के सबसे बड़े समर्थक सैयद अली शाह गीलानी के साथ मुट्ठियाँ लहराते हुए अरुंधती ने कभी नहीं सोचा कि मसला-ए-कश्मीर बंदूक से हल नहीं होगा? याद कीजिए कि जब गीलानी से पूछा गया कि कश्मीर की आज़ादी से उनका क्या मतलब है तो उसने कहा- पाकिस्तान में मर्जर। अहिंसा का पाठ तो इन्होंने बस्तर में भी नहीं पढ़ाया जिसके नाम पर दिल्ली/पटना/इलहाबाद के पढे-लिखे लोग बुद्धिजीवी बन गए और आदिवासी शिकार होते रहे। किताबें लिखीं, वाहवाही और रॉयल्टी बटोरी और यूरोप चली गईं।”

अशोक के इस बयान पर साहित्यिक जगत में काफी बवाल हुआ। कई महत्वपूर्ण लेखक अरुंधति के बचाव में आ गए। वरिष्ठ कवि-कथाकार उदय प्रकाश ने अरुंधति का समर्थन करते हुए लिखा,

“हर स्वतंत्र, संवेदनशील, बौद्धिक और समाज से संबद्ध लेखक अरुंधति रॉय के फिक्शन, नॉन फिक्शन और उनकी सामाजिक सक्रियता के बारे में यही समझ रखता है। उनके अकेले हो जाने से उनके प्रति सम्मान और उनके प्रति चिंता कम नहीं होती। हमारे समय में वे कुछ बहुत ही गिनी चुनी लेखिकाओं में से एक हैं, जिन्होंने राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से अलग, नैतिक और वृहत्तर वैयक्तिक सोच को रचनात्मक तरीक़े से संभव बनाया। उनके निजी जीवन की आक्रांत स्थिति इसे प्रमाणित करती है।”

वरिष्ठ आलोचक वीरेंद्र यादव ने भी अरुंधति का समर्थन करते हुए लिखा, “अरुंधति राॅय ने भारतीय जनतंत्र के पक्ष मे एक बौद्धिक की चिंताओं को जिस बेबाकी, गहरे विश्लेषण और  धारदार तर्कों के साथ प्रस्तुत किया है, वह इधर के दौर में पहली बार है। इसीलिए वे लगातार सत्ता के निशाने पर रहती हैं । चालू तर्कों और राष्ट्रवादी भावुकता से जन्मी तर्क पद्धति से उनकी निंदा तो की जा सकती है, लेकिन स्वस्थ बौद्धिक संवाद नहीं। मैंने उनके दोनों उपन्यासों पर लिखा है, मैं समझ सकता हूँ कि उनकी वैचारिक  नाभिकता के सही संदर्भों को उजागर करने के लिए किस बौद्धिक मशक्कत की दरकार होती है।”

अरुंधति के बारे में अशोक कुमार पांडेय की उपरोक्त टिप्पणी पर बौद्धिक मशक्कत तो कम हुई, लेकिन ट्रोलिंग-प्रतिट्रोलिंग खूब हुई। सरकार के साथ खड़े होने वाले उनके बयान को लेकर भी काफी बहस चली। अशोक ने लिखा था,

” जरा सोचिएगा युद्ध में देश और सरकार के साथ मेरे जैसे जो लाखों लोग खड़े हुए उन्हें कथित प्रगतिशीलों ने संघी घोषित कर दिया।”

इस मुद्दे पर अशोक को कई प्रगतिशीलों के साथ-साथ दक्षिणपंथी साहित्यकार और अयोध्या राजघराने के राजकुमार यतीन्द्र मिश्र का भी समर्थन मिला। यतीन्द्र ने लिखा, “अशोक भाई, ये लोग तो दो अलग अलग वैचारिकी के बीच सद्भाव, आवाजाही और मैत्री भी नहीं सहन कर पाते। जो इनके साथ खड़ा नहीं है या टोक दे, उसको लांछित करने, संघी, दक्षिणपंथी और जाने क्या क्या तमगे बांटते रहते हैं। आपका स्टैंड काबिलेतारीफ़ था और बाद में पूछे गए सवाल भी। मगर इनका कट्टरपंथ, समझ से परे होता जा रहा।”

कहानीकार आलोक मिश्रा ने यतीन्द्र से एक कदम आगे बढ़कर फतवा जारी कर दिया, ” आप सही हो, बाकी कथित बौद्धिकों का देशद्रोही चेहरा बेनकाब हो चुका है।”

वैधानिक गल्प और कीर्तिगान  जैसे चर्चित उपन्यासों के लेखक चंदन पांडेय ने अशोक पांडेय जैसे लेखकों  द्वारा सरकार को बिन मांगा समर्थन देने पर तंज करते हुए पूछा,

 “समर्थन देने वाले सज्जनों, एक बार उनसे भी पूछ लो। क्या पता उन्हें आपका समर्थन चाहिए भी या नहीं।”

 चंदन की इस पोस्ट पर विश्व भारती यूनिवर्सिटी के शोधार्थी राम तेज ने अत्यंत विचारणीय बात कही, “जो समर्थन नहीं करेंगे उन्हें संदेह से देखा जाएगा, जो मानवता की बात करेंगे वे देशद्रोही माने जाएंगे। उन्होंने ने हमारे यहां के नागरिकों को मारा, हमारे यहां के सैनिकों ने उनके यहां के… । इस तरह मारना उपलब्धि मानी जा रही है। बचाना नहीं मारना उपलब्धि मानी जा रही है। युद्ध के उन्माद में सब शामिल होकर खुशी मना रहे हैं। जैसे युद्ध और हत्याएं मानवता या मानव सभ्यता के विकास की कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हों।”

इसी मुद्दे पर शशिभूषण ने सवाल उठाया तो कथाकार महेश कटारे ने कटाक्ष की कटार निकाल ली। शशिभूषण ने लिखा,

“कमाल की बात यह है कि जो युद्ध का विरोधी है जिसे मानवतावादी ही कहा जा सकता है उसे भी देशद्रोही कह, मान लिया जाता है। युद्ध का विरोध अगर देशद्रोही कायरता है, तो प्राणी सेवा क्या है?” इसके जवाब में कहानीकार महेश कटारे की टिप्पणी पढ़िए,

“मेरा मत है कि बेवक्त की शहनाई बजाने से चुप रहना अधिक अच्छा है। पर कुछ लोग उपदेश दिए बिना रह ही नहीं पाते। मरोड़ उठती है। ऐसे मित्रों को सपरिवार सीमा पर पहुंच जाना चाहिए, वहाँ शांति का सन्देश देने पर पता सही चलेगा।”

 गनीमत है कि महेश जी ने सीमा पर ही जाने को कहा, आजकल के प्रचलित मुहावरे में पाकिस्तान जाने का निर्देश नहीं दिया।

वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ

उदय प्रकाश, चंदन पांडेय

सोशल मीडिया के इस युद्ध में सबसे ज्यादा गोले वामपंथ और प्रगतिशीलों पर बरसाए गए। वामपंथ के हिमायती संख्याबल में लगातार कम होते जाने के बावजूद डटे रहे। राष्ट्रवादी साहित्यकार प्रेम शशांक ने वामपंथियों को तिलचट्टा घोषित कर दिया,

“वामपंथी तिलचट्टों ने केवल सरकार का विरोध नहीं किया, बल्कि सरकार द्वारा देशहित में लिए जा रहे हर फैसले का विरोध किया और अभी भी इसी काम में लगे हैं।”

इस संदर्भ में प्रभात रंजन और विजेंदर चौहान का विमर्श भी काबिल-ए-गौर है। प्रभात रंजन कहते हैं,

“तथाकथित वामपंथी दिन भर गिनती गिनने में लगे रहते हैं कि अलाँ भी दक्षिणपंथी हो गया फलाँ भी संघी हो गए। जो हर तरह की परिस्थिति में उनकी तरह एक तरह की शब्दावली में न बोले, उनकी तरह बात न करे उनकी निगाह में वह संघी हो जाता है!”

इस बहस को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर विजेंदर चौहान नहले पर दहला मारने का प्रयास करते हैं,

“वामपंथी क्या करते हैं ये अहम नहीं है, अहम ये है की उनके कहने का असर क्यों हो जाता है, जबकि उनकी गिनती तो अब मुट्ठी भर रह गई है। वरना तो बाक़ी सब सत्ता के कालीन बने ही हुए हैं, उन्हें आपस में एक दूसरे को वेलिडेशन देने से ये मुट्ठी भर वामपंथी रोक सकते हैं क्या? असल बात बस ये है जिन्हें आप वामपंथी कह रहे हैं, आप जानते ही हैं कि उनकी क्रेडिबिलिटी कहीं ज़्यादा है. खैर बेचारे थोड़े से ही बचे हैं – तब तक संघी और नवसंघियों को एक दूसरे के मनोरंजन में लगे रहने दीजिए।”

इस युद्ध में ईमान की बात करने पर बिगाड़ भी खूब हुए। कवि-गद्यकार बोधिसत्व ने युद्ध विराम को लेकर एक गाने की पंक्ति की पैरोडी लिखी तो उनके एक तथाकथित रिश्तेदार रमेश तिवारी आग बबूला हो गए। बोधि ने लिखा था,

“जितनी चाभी भरी प्रभु ने

उतना चले खिलौना।”

इस पंक्ति से खफा रमेश तिवारी इसे फेसबुक से उठाकर एक्स पर ले गए। लिखा कि दुर्भाग्य से ये मेरे रिश्तेदार हैं। इसके बाद जो बातें लिखीं, वह प्रमाण ह़ैं कि उनके दिमाग में राष्ट्रवाद किस कदर कूट-कूट कर भरा हुआ है।

बिगाड का डर

ईमान और धर्मनिरपेक्षता की बात करने पर बुजुर्ग कवि विष्णु नागर को भी गद्दार की उपाधि से विभूषित किया गया। विष्णु नागर ने बस इतनी सी अपेक्षा की थी,

“क्या प्रधानमंत्री से यह उम्मीद करना ग़लत होगा कि वे राष्ट्र के नाम संदेश देते हुए साफ कहें कि हिंदू- मुस्लिम सद्भाव को बिगाड़ने की कोई भी कोशिश देशद्रोह मानी जाएगी। वे अपनी पार्टी की सरकारों को भी निर्देश दें कि ऐसी हरकत अगर हिंदूवादी संगठन करते हैं तो उनके खिलाफ भी निष्पक्षता के साथ कठोर कार्रवाई की जाए!”

इसके जबाब में उन्हें अपेक्षा से बहुत अधिक मिला। राष्ट्रवादियों की तरफ से स्वामी प्रेम पूरक ने आश्वासन दिया, “आप जैसे सेकुलर गद्दारों का इलाज भी जल्दी होगा।”

क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे? मुंशी प्रेमचंद के इस वाक्य ने युद्ध शुरू होने से पहले और युद्धविराम के बीच कई साहित्यकारों के दिल-दिमाग पर दस्तक दी होगी, लेकिन वर्तमान परिदृश्य को देखकर लगता है कि बिगाड़ के डर या इनाम की आशा में या राष्ट्रवाद के तुमुल कोलाहल में वह दस्तक अनसुनी ही रह गई। हालांकि कुछ लोगों ने बिगाड़ की परवाह किए बिना ऐसे लोगों पर उंगली उठाने का साहस दिखाया। सुपरिचित आलोचक और ‘आलोचना’ पत्रिका के संपादक आशुतोष कुमार ने विभिन्नक कोटि के बुद्धिजीवियों को आईना दिखाया। ‘आलोचना’ के कविता विशेषांक को लेकर पहले ही बहुत से लोगों के प्रहार झेल रहे आशुतोष ने विरोध की परवाह न करते हुए लिखा,

 “उदारवादियों ने उदारता त्याग दी।
बहुजनवादी बहुत से उग्रराष्ट्रवादी हो गए।
कुछ वामपंथी मध्य की ओर सरक आए। 
प्रखरतम स्त्रीवादियों ने दे दी तिलांजलि स्त्रीवाद को।
विचारधारा केंचुल की तरह उतार दी गई।
और युद्ध अभी शुरू तक नहीं हुआ।”

आशुतोष कुमार की इस बात पर व्यापक प्रतिक्रिया होनी थी और हुई भी। स्त्रीवादियों की तरफ मोर्चा संभालते हुए सुपरिचित कहानीकार गीताश्री ने प्रतिवाद किया, “बहुत निराश न हों। ये वक्त बीत जाने दें। हमें पता है कि कब कहां क्या स्टैंड लेना है। अतिवादी नहीं हैं हम। वैसे भी स्त्री विमर्श के चैंपियन सारे आपके अनुसार बोल ही रहे हैं। दो चार खिसक गए तो क्या रोना। मरने दीजिए। बहुत जल्दी फ़ैसले पर मत पहुँचिए साथी।”

सोशल मीडिया का संसार अपार है। इस रणांगण में इतने योद्धा हैं कि सबके शब्दबाणों को इस छोटे से आलेख में समेट पाना मुश्किल है। अत: इस लेख का समापन हमारे दौर के शीर्षस्थ कथाकार, कवि उदय प्रकाश की एक प्रार्थना से करते हैं। बुद्धपूर्णिमा के दिन उदय प्रकाश ने यह प्रार्थना लिखी,

 “बुद्ध सदा युद्ध और हिंसा के विरुद्ध रहे हैं। आज का दिन युद्धोन्मादियों की चेतना, मनोविज्ञान, समझ को चंद्रमा के शीतल किरणों से नहलाये। उन्हें सद्बुद्धि और वृहत्तर नैसर्गिक दृष्टि दे। यह प्रार्थना है।”

अब जबकि युद्ध विराम हो चुका है, किसी भी विवेकवान संवेदनशील व्यक्ति की यही आकांक्षा होगी कि कवि की यह प्रार्थना फलीभूत हो। सीमाओं के आर-पार सभी को सद्बुद्धि मिले।

जय हिंद !

जय जगत !

(जय हिंद का नारा जैन-उल-आब्दीन हसन ने लिखा और नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इसे आजाद हिंद फौज का आधिकारिक उद्घोष बना दिया था। जय जगत का नारा आचार्य विनोबा भावे ने दिया था।)

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