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सरोकार

अक्ति : खेती और संतति का उत्सव

Editorial Board
Last updated: May 17, 2025 10:51 am
Editorial Board
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Akti Tihar
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पीयूष कुमार

छत्तीसगढ़ में बैसाख में जब गर्मी उरूज पर आने लगती है, तो राह चलते माटी के पुतरा -पुतरी की धज सड़क किनारे देखकर जी जुड़ाने लगता है। मन खुद से पूछता है, अक्ति कब है? मन में छत्तीसगढ़ी बिहाव के नेंग की रील्स चलने लगती है और पारंपरिक गड़वा बाजा की धुन बजने लगती है। रंग-बिरंगे, घिबली आर्ट जैसी मासूमियत मुखड़े वाले अक्ति के अवसर पर बिकनेवाले ये मिट्टी के पुतरा – पुतरी जहां मन में अमलतास और गुलमोहर खनका देते हैं, वहीं करंज के मोती जैसे फूल आंगन में बगरा देते हैं। हिंदी लोक अक्ति को विवाह का सबसे शुभ लग्न मानता है पर यह बात विवाह तक ही नहीं है, बल्कि बहुत… बहुत आगे है।

यह आगे कैसे है, इसे समझने हमें टाइम मशीन में पीछे जाना होगा। सभी जानते हैं कि मनुष्य की सभ्यता आदिम युग से विभिन्न पड़ावों को पार करते वर्तमान तक पहुंची है। इस यात्रा में मनुष्य की हर क्रिया प्रकृति सम्मत रही है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण आदिवासी समुदाय, खासतौर से बस्तरिया कोयतोर (गोंड) समूह की परम्पराओं में हम आज भी देख सकते हैं। अक्ति के दिन को आज बस्तर में अखातीज कहते हैं। यह खेती का नववर्ष है। गौरतलब है कि चैत में ही प्राकृतिक नववर्ष का आगमन इस महादेश में हो जाता है। सर्वत्र नव पल्लवन, कुसुमन और फलन दिखाई देता है। ऐसे में मनुष्य जो इस लिहाज से दुर्लभ जीव है कि उसे अपने भोजन की व्यवस्था खेती करके करना पड़ता है, उसे भी प्रकृति चक्र के हिसाब से तैयारी करनी पड़ती है।

छतीसगढ़ में अक्ति का दिन नए सत्र के कृषि कार्य का प्रथम दिवस है। इसके लिए यहां का लोक अपने लोक देवता की उपस्थिति में विधि विधान पूर्वक नए ‘पोक्खा’ (साबुत, स्वस्थ) बीजों को फसल के लिए छाँट लेता है और ‘बोदरा’ (बीजविहीन) को अलगा लेता है। प्राचीनकाल में इन्हीं पोक्खा बीजों को मुट्ठी में भरकर खेतों में छिड़का जाता रहा है। इसे ‘मूठ लेना’ कहा जाता है। आज जब कृषि तकनीक के कारण बहुत आगे आ गई है, किसान यह प्रक्रिया सांकेतिक तौर पर अब भी अपनाए हुए हैं। यहां पर बस्तर की एक परंपरा का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। आज हर लिहाज से छीजती जाती दुनिया को जरूरी शिक्षा किताबों से परे परम्पराओं के मूल में जाने से मिल सकती है। इसी शिक्षा का एक शानदार उदाहरण है, बस्तर का मरका पंडुम या आमा जोगानी का उत्सव। गोंडी भाषा में पंडुम का मूल अर्थ है निर्माण जो कि त्योहार या उत्सव के रूप में दिखाई देता है। मरका अर्थात आम। सारी दुनिया जब आम के टिकोरों को देखते ही ललचाती है, बस्तर के कोयतोर (गोंड) समूह की प्राचीन संस्कृति उसके बड़े होने का इंतज़ार करती है। उनके पुरखों ने कभी बताया था कि जब तक आम के इन टिकोरों में अंदर गुठली नहीं आएगी, इन्हें खाने की दृष्टि से देखना भी वर्जित है।
यह इसलिए कि अगर इन्हें इसी कच्ची अवस्था मे ही खा लिया जाएगा तो इसके बीज नहीं होंगे। बीज नहीं होने की दशा में प्रकृति का यह चक्र टूट जाएगा और दुबारा आम नहीं हो पाएंगे। इसलिए इन अम्बियों के परिपक्व होने पर इन्हें सर्वप्रथम पेन (पुरखों) को जिसने पहली बार यह ज्ञान दिया था, उन्हें समर्पित किया जाता है फिर इसका उपभोग/उपयोग किया जाता है। यह उत्कृष्ट शिक्षा और समझ समकालीन उपभोक्तावादी समाज शायद ही समझ सकेगा।

आम में चेर धरें, वह परिपक्व हो, तब उसे खाने का संस्कार मनुष्य होने का उत्तम आदर्श है। इसी तरह खेती या अन्य खाद्य वनस्पतियों के बीजों का चयन करना खेती मात्र नहीं है, बल्कि उस वनस्पति की संतति को आगे लेकर जाने का उदिम भी है। ठीक यही भाव मनुष्य पर लागू होता है और इसीलिए प्राचीनकाल में आदिम समूहों में मनुष्य की संतति के लिए परिपक्व वर – वधु का चयन कर उनका बिहाव आज अक्ति के दिन किया जाता रहा है। प्रकृति, संतति और मनुष्य के इस अन्तर्सम्बन्ध की जड़ें कितनी पीछे से चली आ रही हैं और विडम्बना ही है कि आज की आधुनिक दुनिया इससे पीठ किये बैठी है। बात शुरू हुई थी खेती के लिए पोक्खा बीजों के चयन से और यह मनुष्य पर कितनी प्रकृति सम्मत है, अक्ति के दिन की इन विशेषताओं से बेहतर जाहिर होती हैं। उत्तर भारत मे प्रचलित अक्षय तृतीया यही अक्ति है जो सम्भवतः इसके खेती और संतति के मूल भाव से अनभिज्ञ है।

छत्तीसगढ़ के गांवों में बच्चे अक्ति के दिन पुतरा – पुतरी का बिहाव करते हैं और सामाजिक संस्कार की शिक्षा लेते हैं। इसके लिए बाकायदा बराती और घराती होते हैं। पारम्परिक गड़वा बाजा की व्यवस्था की जाती है और विहाव के नेंग की सारी प्रक्रियाएं यथा, मड़वा, चुलमाटी, तेल, मायन और बिदाई का खेल रचा जाता है। यह उसी तरह है जैसे पोरा तिहार में बच्चे खेती और भोजन बनाने की प्रक्रिया को सीखते हैं। न जाने किसने इसे बाल विवाह से कभी जोड़ दिया था जबकि इसके मूल में ऐसा है ही नहीं। अभी इधर कुछ सालों से हर अक्ति को इन पुतरा – पुतरी का एक जोड़ा लेता हूँ और कभी रुचिसम्पन्न नवदम्पति को उनके बिहाव के अवसर पर उपहार में भी देता हूँ। लगता है, इन माटी की मूरतों से अच्छा उपहार क्या ही होगा क्योंकि लाखों के दहेज और विलासिता की कृत्रिम चीजों वाली शादियों का हश्र तो देख ही रहे हैं।

आप सभी को प्रकृति जोहार! हरियर सलाम !

( लेखक साहित्यकार और संस्कृति अध्येता हैं)

इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

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