महात्मा गांधी के नाम पर आम आदमी पार्टी की तर्ज पर बिहार में बनाई गई जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी को बहुमत मिलने का दावा किया है।
चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘या तो हम पहले स्थान पर होंगे या आखिरी। इस चुनाव में कोई बीच का रास्ता नहीं है।‘ हालांकि चुनावी अभियान के बीच कही जा रही उनकी बातों और उनकी गतिविधियों में काफी फर्क दिखा जा रहा है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या यह ‘राजनीतिक स्टार्टअप’ बिहार की सियासत में हलचल मचाएगा या सिर्फ वोट काटेगा?
प्रशांत किशोर ने 9 अक्टूबर को 26 जिलों के 51 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की। इस सूची में 17 अत्यंत पिछड़ा वर्ग, 11 अन्य पिछड़ा वर्ग, सात मुस्लिम, सात अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों से, और नौ सामान्य वर्ग से शामिल हैं। बिहार जाति सर्वेक्षण 2023 के अनुसार, राज्य में ईबीसी का अनुपात सबसे अधिक 36 प्रतिशत और ओबीसी का 27.12 प्रतिशत है। इसलिए इन दोनों श्रेणियों से सबसे अधिक उम्मीदवार आते हैं।

मुसलमानों की आबादी 17.7 प्रतिशत है और इस समुदाय को सात उम्मीदवार दिए गए हैं। 15.53 प्रतिशत की हिस्सेदारी करने वाले सामान्य वर्ग को नौ सीटें दी गई है। महिला उम्मीदवारों की संख्या बहुत कम है। हालांकि उम्मीदवारों की पूरी सूची घोषित होने के बाद यह अनुपात बदल सकता है।
अपने अभियान एवं इंटरव्यू के दौरान प्रशांत किशोर कई यह कह चुके हैं कि टिकट उन्हीं लोगों को दिया जाएगा, जिन्होंने शुरू से पार्टी के लिए काम किया है। टिकट लेने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ेगी। टिकट पाने के लिए कम से कम तीन साल की मेहनत जरूरी है। हवाई जहाज से उतरने वालों को तो किसी भी कीमत पर टिकट नहीं मिलेगा।
वहीं जन सुराज पार्टी की पहली सूची आने के बाद भाजपा से जुड़े पंकज झा चुटकी लेते हैं कि, ‘प्रशांत किशोर परिवारवाद के खिलाफ हैं। बस माधुरी सिंह के बेटे उदय सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष का छोटा-सा पद दे दिया है और आरसीपी सिंह की बेटी लता सिंह और कर्पूरी ठाकुर की पोती जागृति ठाकुर को टिकट दे दिया है। बाकी प्रशांत किशोर परिवारवाद के खिलाफ हैं।‘
प्रशांत किशोर ने 12वीं करने के बाद तीन साल पढ़ाई छोड़ दी थी। बाद में वह संयुक्त राष्ट्र की नौकरी छोड़ कर नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान से जुड़ गए थे। लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वह नीतीश कुमार के साथ चले गए थे।
प्रशांत किशोर ममता बनर्जी, जगन मोहन रेड्डी और एम के स्टालिन के चुनाव अभियानों से भी जुड़े रहे हैं। दावा किया जाता है कि छह साल में उन्होंने छह लोगों को मुख्यमंत्री बनवाया। और अब वह खुद अपनी पार्टी के साथ चुनाव मैदान में हैं।
विरोधी उन्हें भाजपा की बी टीम कहते हैं। राजद कार्यकर्ता कहते हैं कि इतने विरोध के बावजूद एवं इतने पैसे खर्च करने के बावजूद उन पर छापे नहीं पड़ते। इन चर्चाओं के बीच जहां तक रुझान और नैरेटिव का सवाल है, पीके बिहार में तीसरी ताकत के तौर पर उभर रहे हैं। उन्होंने खूब शोर मचाया है, लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या वह इस धारणा को वोटों में बदल पाएंगे।
15 अक्टूबर को सीतामढ़ी के रीगा विधानसभा क्षेत्र के धीरज जायसवाल ने जन सुराज पार्टी से टिकट न मिलने पर पार्टी के परिवार लाभ कार्ड और अन्य सामग्री को जला दिया एवं पार्टी से इस्तीफा भी दे दिया। उन्होंने रीगा इमली बाजार स्थित अपने आवास पर प्रचार सामग्री को आग के हवाले करते हुए कहा, ‘एक साल तक 50 लाख रुपए की उनके खून पसीने की कमाई को प्रशांत किशोर ने लुटवाया है।‘
जन सुराज पार्टी से टिकट वितरण के बाद ऐसी कई खबर मीडिया एवं सोशल मीडिया पर देखने को मिल रही है। उजियारपुर में टिकट बंटवारे के बाद राजू सहनी और जन सुराज के प्रदेश अध्यक्ष के बीच हुई बातचीत का ऑडियो क्लिप वायरल हो रहा है, जिसमें राजू सहनी कह रहे हैं कि काम हमसे करवाया और टिकट किसी और को मिला।
अबतक जन सुराज के तीन उम्मीदवारों ने भाजपा उम्मीदवारों के समर्थन में अपना नाम वापस ले लिया है। जिनमें दानापुर, ब्रह्मपुर, गोपालगंज विधानसभा शामिल है। इस पर प्रशांत किशोर ने कहा है कि अमित शाह ने जन सुराज के प्रत्याशियों को अपने पास रखकर उन्हें नामांकन करने से रोका, ताकि जन सुराज की लहर को थामा जा सके।
पीआर एजेंसी में क्रिएटिव टीम में मैनेजर के पद पर काम कर रहें आशीष कुमार बताते हैं, ‘दक्षिणपंथी पत्रकार अजीत भारती ने एक इंटरव्यू में कहा था कि टिकट बंटने दीजिए, भाजपा की रैली और प्रचार शुरू होने दीजिए…..प्रशांत किशोर खुद ही हवा हो जाएंगे। मीडिया ने उन्हें जिस तरह जरूरत से ज्यादा महत्व दिया है, उसका असर अब टिकट वितरण के बाद उतरने लगा है। ऐसे ही केजरीवाल की टीम माहौल बनाया करती थी। इस रणनीति के अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी।”
दिल्ली से बिहार आकर ग्राउंड रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकार कविता तिवारी कहती हैं, ‘भारत में पद यात्राएं हमेशा फलदायी साबित हुई हैं। दांडी से लेकर भारत जोड़ो तक आप इतिहास उठाकर देख लीजिए। प्रशांत किशोर और जन सुराज इस बार बिहार में सरप्राइज एलिमेंट होने वाले हैं।‘
प्रशांत किशोर खुद चुनाव क्यों नहीं लड़ रहे हैं?
प्रशांत किशोर ने बिहार विधानसभा चुनाव से कुछ हफ्ते ऐलान किया कि वह इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने बताया कि यह फैसला उनकी पार्टी के सदस्यों ने लिया है। उन्होंने कहा कि “मैंने चुनाव लड़ने पर विचार किया था, लेकिन पार्टी का फैसला सबसे अहम है और मैं उसके साथ हूं।’ कुछ दिन पहले उन्होंने तेजस्वी यादव की विधानसभा सीट राघोपुर से चुनाव लड़ने का ऐलान किया था।
राघोपुर के स्थानीय निवासी बंटी यादव कहते हैं कि, उनके विचार अच्छे हैं, लेकिन उन्हें जनता का समर्थन नहीं मिल रहा है। क्योंकि बिहार में जाति आज भी सबसे पहले आती है।। क्षेत्र का ज़्यादा विकास तो नहीं हुआ है, लेकिन तेजस्वी यहाँ के लोगों से जुड़े हुए हैं।
मैथिली लेखक अमरेश्वर झा कहते हैं कि, प्रशांत किशोर का चुनाव ना लड़ना उनके भय और असुरक्षा का द्योतक है। इस निर्णय का असर जन सुराज के कार्यकर्ताओं पर पड़ेगा। यह उनके स्वयं के ‘नेता’ होने की योग्यता पर भी प्रश्न उठाता है। इनके वोट शेयर का आकलन 10% से नीचे 5-7% पर चला गया है।
इन सारे विमर्शों से इतर दिलचस्प बात यह है कि ‘सबसे पसंदीदा सीएम चेहरे’ के रूप में पीके की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। सी-वोटर सर्वे में प्रशांत किशोर को सबसे पसंदीदा मुख्यमंत्री चेहरों की सूची में दूसरे (23.1%) स्थान पर रखा गया था। पहले स्थान पर राजद के तेजस्वी यादव (35.5%) थे। मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (23%) से आगे थे।
वहीं वोट वाइब के स्टेट वाइब बिहार चुनाव सर्वेक्षण में, 56% उत्तरदाताओं ने जन सुराज को मुख्यतः “वोट कटवा” के रूप में देखा। हालांकि, शेष 44% में से लगभग 8.4% का मानना था कि प्रशांत मुख्यमंत्री बन सकते हैं, जबकि 15.8% का मानना था कि अगर नवंबर में होने वाले चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनती है, तो जन सुराज पार्टी किंगमेकर की भूमिका निभा सकती है।
भागलपुर के रिटायर्ड शिक्षक और गांधीवादी शंकर झा कहते हैं,’ राजनीतिक विचारों से तय होती है। प्रशांत किशोर ऐसे व्यक्ति के इलेक्शन मैनजमेंट का हिस्सा रहे जिसके दामन पर दंगे का भी आरोप रहा है और हत्या का भी। उनका राजनीतिक मॉडल भी पैसों का मॉडल है। पैसे पर काम कर रहे युवा उनका प्रचार कर रहे हैं। यदि यह मॉडल सक्सेसफुल रहा तो कॉर्पोरेट के लिए यह एक मॉडल हो जाएगा, क्योंकि उसके पास तो अथाह पैसा है। हालांकि वे रोजी और रोजगार के साथ ही पलायन पर बात कर रहे हैं। लोगों को यह बात अच्छी ही लगेगी।‘
टिकट बंटवारे को लेकर जो हालात दिखे, उससे यही लग रहा है कि राजनीति का वही पुराना खेल यहाँ भी दोहराया जा रहा है। जहां पैसे और खानदान वालों को टिकट मिलता है। अब ये तो जनता के हाथ में है कि जन सुराज की असली पहचान क्या है, जनता की पार्टी या जनधन पार्टी?
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