“शुरू करो अंताक्षरी, लेकर प्रभु का नाम। समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम।’’ कुछ लोग इसको ऐसे भी कहते हैं- “बैठे-बैठे क्या करें, करना है कुछ काम। शुरू करो अंताक्षरी, लेकर प्रभु का नाम।”
मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष हेमंत खण्डेलवाल आजकल यही कर रहे हैं। मतलब, अंताक्षरी खेल रहे हैं। जिस शहर-कस्बे, नगर-जिले में जाते हैं, वहां के पुराने संघी, नेता, कार्यकर्ता या पार्टी के शुभचिंतक के पास जाकर बैठते हैं। उससे बतियाते हैं, हाल-चाल जानते हैं।
उसके संस्मरण, अनुभव ग्रहण करते हैं और ‘मिलन की तस्वीर’ सोशल मीडिया पर शेयर कर देते हैं। 2 जुलाई 2025, जब हेमंत अध्यक्ष बने, के बाद से यह सिलसिला जारी है। पिछले दिनों ही उन्होंने एक खेप निपटाई है। कुछ के साथ तो वह एक से ज्यादा बार “बैठ” चुके हैं। सहज और सरल इतने हैं कि खुद तो मामूली कुर्सी का इस्तेमाल करते हैं और आगंतुक या अतिथि को सॉफ्ट गद्दी वाले सोफ़े पर बैठाते हैं।

बीजेपी का मीडिया प्रभाग, जिसका काम है अध्यक्ष की झांकी जमाना, अक्सर ऐसी तस्वीरों को जारी करता ही है। सो, ये तस्वीरें जब पब्लिक डोमेन में पहुंचकर विमर्श का विषय बनती हैं और “धारणा” बनाने का काम करती हैं, तो उसका मकसद भी पूरा हो जाता है-“अध्यक्ष की इमेज बिल्डिंग का।” कुलमिलाकर, “अंताक्षरी” खेलने में लगे हैं सब।
वैसे, अंताक्षरी है तो अच्छा खेल। खेलते हुए मज़ा भी आता है और समय कब कट जाता है, यह पता नहीं चलता। बस, पूरा दारोमदार “अंत के अक्षर” पर होता है। मसलन- स, सु, सो, श, शा, न, म, मो।
एक अदद कुर्सी…इसके सिवाय क्या बदला?

दरअसल, हेमंत खण्डेलवाल करें भी तो क्या? उनके सामने विकल्प क्या हैं? राष्ट्रपिता की जयंती 2 अक्टूबर को उन्हें तीन माह हो जाएंगे। सिवाय अध्यक्ष की कुर्सी के, इन तीन महीनों में उनको मिला क्या? कुछ नहीं। जिलों के अध्यक्ष पूर्ववर्ती वीडी शर्मा ही चुनवा गए। आधे जिलों में कार्यकार्णियों का गठन अब भी बाकी है।
प्रदेश कार्यकारिणी का गठन हो नहीं पा रहा। कार्यालय मंत्री, प्रभारी, संगठन महामंत्री सहित सारे महत्वपूर्ण पदों पर वे ही यथावत हैं, जिन्हें वीडी के कार्यकाल में तैनात किया गया था। सरकार में तमाम आयोग, निगम मंडल और सार्वजनिक उपक्रम खाली पड़े हैं, जिनमें राजनीतिक नियुक्तियां की जाना हैं।
शहरी निकायों में एल्डरमेन बनाए जाने हैं। लंबे समय से पार्टी का काडर प्रतीक्षारत है। पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में तो पिछले माह केबिनेट का विस्तार हो चुका, लेकिन मध्यप्रदेश में ये काम भी रुका पड़ा है। बल्कि यहां तो फेरबदल होना है। कुछ को बाहर किया जाना है, और कुछ को भीतर। जाहिर है, जब तक ये सब पूरा नहीं होगा, संगठन में लगेगा ही नहीं कि “कोई बदलाव” हुआ है।
कल भी भाई साहब, आज भी भाई साहब…
बीजेपी की संगठनात्मक बनावट में संगठन महामंत्री को बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता है। यदि अध्यक्ष राजनीतिक तौर पर बड़े कद का नहीं है, तो फिर कामकाज में दिक्कत होती है या कहें, सहजता नहीं रहती। इसीलिए, मध्यप्रदेश में संगठन महामंत्री के पद पर भी किसी नए व्यक्ति की आमद का इंतज़ार किया जा रहा है।
अभी तो हालत यह है कि हितानंद शर्मा को बेचारे खण्डेलवाल कल भी “भाई साहब” बोलते थे और आज भी बोलना पड़ रहा है। संभव है, परिस्थितियां हितानंद के लिए भी उतनी सहज न रही हों। कारण-कल तक आप जिसको इंतज़ार करवाते रहे हों, और वह अगर आपका “बॉस” बनाकर बड़ी कुर्सी पर बैठा दिया जाए तो क्या बीतेगी?
पार्टी का वाहन और ‘अपना रूमाल’
बात छोटी सी है, लेकिन यह बताती है कि बीजेपी में चल क्या रहा है? और, किसके हिसाब से चल रहा है? मसला था- पार्टी के पुराने वाहनों की बिक्री। आमतौर पर यह काम किसी एक दलाल (वाहनों का) के सुपुर्द करने की परंपरा रही है, लेकिन इस बार दो प्रकट हो गए। बल्कि, अपने-अपने हिसाब से दो एजेंट प्रकट “करवा” दिए गए।
जाहिर है, मुक़ाबला दो नेताओं के बीच हो गया। वैसे, पुराने वाहनों के प्रति मोह का यह कोई पहला मामला नहीं है। जो वाहन नेताओं को पसंद आ जाता है, उस पर वे पहले से ही नज़र रखते हैं। और, जब उसका वक्त आ जाता है तो घटी दरों में खुद ही खरीद लेते हैं।
ऐसा भी होता है कि पार्टी जिस वाहन की साज-सज्जा पर अतिरिक्त पैसा खर्च कर देती है, उस पर “अपना रूमाल” रख दिया जाता है। एक साहब ने ऐसा ही किया था। खैर, कफ़ील आज़र की एक नज़्म है, जिसकी लाइन है -“बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी, लोग ज़ालिम हैं, हरेक बात का ताना देंगे।”
शिवराज, भार्गव और समय की बलिहारी…

सियासत का पंचांग अपने हिसाब से कालचक्र की गणना करता है। और, उसके हिसाब में “कुर्सी” ही सबकुछ होती है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कल तक आप मंत्री या मुख्यमंत्री थे। और, 20 या 17 साल से थे। गणना में यह देखा जाता है कि आज आप क्या हैं? मंत्री-संतरी हैं कि नहीं? गोपाल भार्गव के साथ यही हो रहा है।
मोहन यादव की केबिनेट को छोड़ दें तो 2003 से भाजपा की तीनों सरकारों में मंत्री (सवा साल नेता प्रतिपक्ष भी) रहे, 1985 से विधानसभा का कोई चुनाव नहीं हारे, चाहे पूरे बुंदेलखंड में सूखा पड़ जाए, मगर “गढ़ाकोटा” में मानसून पहुंचता ही पहुंचता है। मगर, इतना तगड़ा “सीवी” होने के बावजूद भार्गव को डीएफओ, एसपी, कलेक्टर और रिजर्व बैंक से लेकर मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखना पड़ रही है।
नौबत ही ऐसी आ गई। आम आदमी सरीखी। मसला, नौरादेही (वीरांगना दुर्गावती) टाइगर रिजर्व से विस्थापित आदिवासियों से संबंधित है, जिनकी करीब 150 करोड़ रुपये की राशि का बीमा कर दिया गया। यह काम एचडीएफसी बैंक की रहली शाखा ने किया। भार्गव ने अपनी शिकायत में कहा है कि भोले-भाले विस्थापितों से जबरन चेक पर अंगूठा और हस्ताक्षर कराए गए, नॉमिनी भी अनजान लोगों को बना दिया गया।
खाताधारकों की बिना जानकारी के बीमा पॉलिसियां जारी कर दी गईं। नियम के मुताबिक विस्थापन मुआवजा राशि का उपयोग सिर्फ भूमि या संपत्ति खरीदने के लिए होना चाहिए, लेकिन बैंक कर्मचारियों ने बीमा कर दिया। भार्गव ने मुख्यमंत्री मोहन यादव को लिखे पत्र में यह भी कहा है कि उन्होंने प्रशासन में सबको अग्रिम तौर पर चेताया भी था, लेकिन “सागर के अधिकारी ढीले हैं।”
यह संयोग भी कम दिलचस्प नहीं कि मोहन सरकार में शिवराज सिंह चौहान को खिवनी वन्य अभयारण्य तो गोपाल भार्गव को नौरादेही टाइगर रिजर्व के विस्थापितों की तकलीफों के लिए लड़ना पड़ रहा है। एक 17 साल सीएम रहा तो दूसरा 20 वर्ष मिनिस्टर। सब समय की बलिहारी है।
दिग्गी का ‘हिसाब’ और कांग्रेस में ‘लिहाज’…

कांग्रेस में पीढ़ी परिवर्तन के लक्षण अब जमीन पर दिखाई देने लगे हैं। ‘पुरानों’ को सेंठा नहीं जा रहा। लिहाज कम होता जा रहा है। बड़े नेताओं में सिर्फ दिग्विजय सिंह इकलौते हैं, जो शारीरिक और राजनीतिक चेतना की स्केल पर खुद को सक्रिय बनाए रखते हैं।
अन्यथा, कमलनाथ लगभग निष्क्रिय हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया व सुरेश पचौरी जैसे अग्रिम पंक्ति के क्षत्रप पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं। कमान अब जीतू पटवारी के हाथ में है। कांग्रेसियों को भी मालूम चल गया है कि “बुजुर्गों” के दिन गए। तभी, इंदौर में पार्टी के शहर अध्यक्ष चिंटू चौकसे ने परोक्ष रूप से दिग्विजय पर निशाना साधा और नसीहत दी। कह दिया कि “भोपाल और बाहर से नेता आते हैं और बिना कोई सूचना के अपने स्तर पर आयोजन रख लेते हैं। ऐसा नहीं चलेगा।”
नाम भर नहीं लिया, लेकिन चौकसे ने दिग्विजय सिंह के लिए ही कहा ऐसा। क्योंकि, उस दिन दिग्विजय शीतलामाता बाज़ार जाकर दुकानदारों और प्रभावित मुस्लिम कर्मचारियों से मुलाकात करना चाहते थे। हालांकि प्रशासन ने उनको जाने नहीं दिया। दरअसल, बीजेपी विधायक मालिनी गौड़ के बेटे एकलव्य ने शीतलामाता बाज़ार के दुकानदारों को अपनी दुकानों से मुस्लिम कर्मचारियों को हटाने का आल्टीमेटम दिया था, जिसके विरोध में दिग्विजय पहुंचे थे।
मगर, कांग्रेस की स्थानीय ईकाई ने उनसे दूरी बना ली। चौकसे न तो उनके साथ शिकायत देने पुलिस थाने गए और न ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में मौजूद थे। बताते चलें, चौकसे को जीतू पटवारी का आदमी माना जाता है। और पटवारी अपने साथ सज्जन सिंह वर्मा को लेकर एक दिन पहले ही कमिश्नर को ज्ञापन सौंप आए थे।
मतलब, आधिकारिक तौर पर पार्टी को जो करना था, वो पटवारी द्वारा किया जा चुका था। तब दिग्विजय क्यों पहुंचे? शायद, पटवारी-सज्जन या स्थानीय ईकाई ने जो किया, वो अपर्याप्त रहा होगा, दिग्गी के “हिसाब” से। दिग्विजय चाहते थे कि पार्टी को सड़क पर उतरना चाहिए।
एक बोर्ड को छोड़ दिया, मामला सनातन का…
शिवराज सरकार ने 2023 के विधानसभा चुनावों से पहले अलग-अलग समाजों के 14 बोर्ड बनाए थे, जिनमें तमाम लोगों को उपकृत किया गया था। कुछ दिन पहले इन बोर्डों का दो साल कार्यकाल खत्म हो गया। एक को छोड़कर शेष 13 बोर्ड भंग कर दिए गए। एक इसलिए छोड़ दिया गया, क्योंकि “पंडितजी” पूर्व मुख्यमंत्री के पारिवारिक पंडित हैं।
शादी-ब्याह से लेकर हर पूजा-रचा उनकी देखरेख में ही होती है। और फिर भाजपा दफ्तर की पूजा-पाठ का जिम्मा भी उनके पास रहता है। जाहिर, उन्हें कैसे विदा करती पार्टी। आखिर मामला “सनातन” का है।