केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में लंबे समय से चल रहे पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षक सोनम वांगचुक के अहिंसक आंदोलन के दौरान गुरुवार को भड़की हिंसा बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, जिसमें चार आंदोलनकारियों की मौत हो गई है।
केंद्र सरकार ने लद्दाख के प्रतिनिधियों से छह अक्टूबर को वार्ता तय कर रखी है, लेकिन उससे पहले लेह की सड़कों पर जिस तरह युवा प्रदर्शनकारी भड़क उठे, उससे समझा जा सकता है कि लद्दाख के लोगों और केंद्र सरकार के बीच विश्वास की कितनी गहरी खाई है।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जब पांच अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और 35 एक को निष्प्रभावी करते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने का एलान किया था, तब यह भी कहा गया था कि स्थितियां सामान्य होने पर पूर्ण राज्य के दर्जे की बहाली हो जाएगी।
हालांकि अपनी भौगोलिक स्थितियों के कारण लद्दाख-कारगिल के लोग लंबे समय से अपने लिए एक अलग पूर्ण राज्य का दर्जा मांग रहे थे। इसके उलट उन्हें लद्दाख पर्वतीय स्वायत्त विकास परिषद (एलएचडीसी) से संतोष करना पड़ा है, जहां 2020 से भाजपा का कब्जा है।
सोनम वांगचुक बीते पांच सालों से लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने और संविधान की छठी अनुसूची को लागू किए जाने की मांग को लेकर गांधीवादी तरीके से आंदोलन कर रहे हैं। दरअसल बुधवार को जब उनके साथ बैठे दो आंदोलनकारियों की तबियत बिगड़ने लगी और उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा, तो लेह के खासतौर से युवा आंदोलित हो गए और सड़कों पर उतर आए और अपना गुस्सा उन्होंने यहां भाजपा के मुख्यालय पर तोड़फोड़ कर और वाहनों को फूंक कर उतारा।
दूसरी ओर पुलिस ने भी उन पर बर्बरता करने से गुरेज नहीं किया। यह स्थिति सचमुच बेहद पीड़ादायक है, और खुद वांगचुक ने इसे लेकर गहरा दुख जताया है। उनकी वाणी में उभर आई बेबसी सरकार की लगातार अनदेखी का नतीजा है। वांगचुक ने इसे जेन-जी आंदोलन कहा है और इसे बेरोजगारी का नतीजा बताया है, लेकिन इसकी तुलना नेपाल के जेन-जी आंदोलन से नहीं की जा सकती।
दरअसल इन युवाओं की तकलीफों को समझने की जरूरत है। इस आंदोलन की एक प्रमुख मांग में सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों की शत-प्रतिशत भरती की मांग भी शामिल है। यह कहने से गुरेज नहीं किया जाना चाहिए कि या तो केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लद्दाख की जानबूझकर अनदेखी की है या फिर उसकी वृहत जम्मू-कश्मीर नीति में लद्दाख का कोई महत्व ही नहीं था।
क्या यह याद दिलाने की जरूरत है कि जब सरकार ने लेह में उनकी आवाज नहीं सुनी, तो सोनम वांगचुक पिछले साल इन्हीं दिनों हजार किलोमीटर पैदल चलकर दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि तक पहुंचे थे! लद्दाख के लोगों की लड़ाई अपनी जमीन, अपनी पहचान और अपने संवैधानिक हकों को बचाने की लड़ाई है, जिस पर पूरी संवेदनशीलता के साथ गौर करने की जरूरत है।

