
अपूर्व गर्ग, स्वतंत्र लेखक
सवाल है, भगत सिंह किनके? भगत सिंह की पुस्तिकाएं ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ ? और ‘बम का दर्शन’, जिनके दर्शन से मिलता हो उनके उन्हीं के….। भगत सिंह की भतीजी वीरेंद्र सिंधु ने लिखा है, भगत सिंह ने फांसी कोठरी में बैठे -बैठे वक्तव्य तो जाने कितने लिखे थे,पर कई पुस्तकें भी लिखी थीं। इनमें कई महत्वपूर्ण पुस्तकें थीं, जो गायब हुईं इनमें एक ‘आइडियल ऑफ़ सोशलिज्म’ भी थी।
तो भगत सिंह उन्हीं के जिनके प्रेमचंद। तो प्रेमचंद किनके? प्रेमचंद साहित्य, प्रेमचंद के पत्र, लेख उपन्यासों के पात्र, जो कहते हैं, उससे जाहिर है प्रेमचंद पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता।
प्रेमचंद का एक सबसे महत्वपूर्ण लेख ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’, जो जागरण में 15 जनवरी को प्रकाशित हुआ था, जिसका लोग सरसरी तौर पर या सिर्फ एक लाइन का ज़िक्र कर आगे बढ़ जाते हैं। इस लेख के एक पैराग्राफ पर नजर डालिये तो पता चलेगा उर्दू से हिंदी में आया लेखक ज़बरदस्त प्रगतिशील, सेक्युलर चिंतक ही नहीं साम्प्रदायिकता के खिलाफ बिगुल बजाने वाला हिंदी का पहला सबसे बड़ा लेखक है। साथ ही सनद रहे प्रेमचंद का सोज़े-वतन जिसे अंग्रेज सरकार ने खतरनाक माना, देशद्रोह कहा और जलवा दिया उर्दू में लिखा गया था।
सेवासदन, प्रेमाश्रम और रंगभूमि जैसे महान उपन्यास पहले उर्दू में लिखे गए पर छपे हिंदी में पहले। प्रेमचंद लिखते हैं -” साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल चढ़ा कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को क़यामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को दोनों ही अभी तक अपनी -अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि न अब कहीं मुस्लिम संस्कृति है न कहीं हिन्दू संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति।
मगर हम आज भी हिन्दू मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं, हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है , अरब संस्कृति है लेकिन ईसाई संस्कृति या मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है …” ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ ही नहीं ‘महाजनी सभ्यता’ तथा ‘साहित्य का उद्देश्य से ज़ाहिर है प्रेमचंद स्वाधीनता संग्राम के दौर के सबसे प्रगतिशील लेखक थे।
क्या प्रेमचंद कम्युनिस्ट थे ? तो ‘विश्वमित्र’ के प्रेमचंद अंक को देखिये। प्रेमचंद मराठी के साहित्यकार टी. टिकेकर से कहते हैं – ‘ मैं कम्युनिस्ट हूँ ! किन्तु मेरा कम्युनिज्म यही है कि हमारे देश में जमींदार, सेठ आदि जो कृषकों के शोषक हैं, न रहें।” प्रेमचंद जो गांधीजी के प्रभाव -आंदोलन से प्रेरित होकर अपनी 15 -20 साल की पक्की सरकारी नौकरी छोड़ते हैं, जो ये कहते हैं ‘ मैं महात्माजी के चेंज ऑफ़ हार्ट के सिद्धांत में विश्वास रखता हूं, इसलिए जमींदारी मिटेगी यह मानता हूँ…।’ क्या प्रेमचंद पूरी तरह गांधीवादी थे ?
इसका जवाब प्रेमचंद देते हैं, ” मैं गांधीवादी नहीं हूँ, केवल गांधीजी के चेंज ऑफ़ हार्ट में विश्वास रखता हूँ।”
याद रखिये प्रेमचंद की पहली सीढ़ी आर्य समाज थी फिर तिलक से बेहद प्रभावित हुए पर गोखले ने उनके तन -मन विचारों को सर्वाधिक प्रभवित किया, जिसे नवंबर 1905 के ‘जमाना ‘ के गोखले पर लिखे उनके लेख से समझा जा सकता है। उनके सुपुत्र अमृत राय ने लिखा है – ‘इससे गोखले के प्रति उनके झुकाव को समझा जा सकता है। गांधी में तिलक और गोखले का अद्भुत समन्वय मिलता ही था, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि मुंशी जी ने देश प्रेम की राजनीति का पहला सबक तिलक से न लेकर गोखले से लिया।’
प्रेमचन्द नमक सत्याग्रह का समर्थन करते हैं, 1931 की कराची कांग्रेस में जाने का इरादा था, पर भगत सिंह की फांसी की खबर से उनका दिल टूट जाता है और नहीं जाते।
तो पार्टनर प्रेमचंद आपकी पॉलिटिक्स क्या है ? इसका जवाब वो अपने सबसे करीबी मित्र दयानारायण निगम को देते हुए लिखते हैं कि –” आपने मुझसे पूछा मैं किस पार्टी के साथ हूँ। मैं किसी पार्टी में नहीं हूं। इसलिए कि इस वक़्त दोनों [ स्वराज पार्टी और नो- चेंजर ] में कोई पार्टी असली काम नहीं कर रही है। मैं उस आने वाली पार्टी का मेंबर हूं, जो अवाम अलनास की सियासी तालीम को अपना दस्तरूल अमल बनाएगी।” [प्रेमचंद जीवन और कृतित्व ]
प्रेमचंद के ‘प्रेमाश्रम का युवा किसान जब कहता है, …रूस देश में काश्तकारों का ही राज है। वह जो चाहते हैं, करते हैं ..काश्तकारों ने राजा को गद्दी से उतार दिया है और अब किसानों और मज़दूरों की पंचायत राज करती है ..।”
इसे समझने की जरूरत है।