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आंदोलन की खबर

टाइगर रिजर्व से आदिवासियों की बेदखली, उचित पुनर्वास न देने का आरोप

Lens News Network
Last updated: June 4, 2025 4:23 pm
Lens News Network
ByLens News Network
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बेंगलुरु। कर्नाटक के टाइगर रिजर्व से आदिवासियों को जबरन बेदखल करने की कार्रवाई पर आदिवासी समुदायों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कड़ा विरोध जताया है। आरोप है कि बेदखली की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है और प्रभावित समुदायों को न तो उचित पुनर्वास दिया जा रहा है और न ही उनकी सहमति ली जा रही है।

इस मुद्दे पर सरकार की ओर से अभी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन आदिवासी और कार्यकर्ता इस अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिए एकजुट हो रहे हैं।

डेकन हेराल्डन की खबर के अनुसार एक ऑनलाइन बैठक में आदिवासी नेताओं ने कहा कि ये जंगल उनके जीवन, संस्कृति और आजीविका का अभिन्न हिस्सा हैं। सरकार उनकी बेदखली रोककर उनके अधिकारों की रक्षा करे और संरक्षण नीतियों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करे।

नागरहोले में कराडीकल्लु ग्राम सभा के अध्यक्ष शिवु जे.ए. ने कहा कि सरकार की संरक्षण नीति के कारण उनकी जमीन छिन गई। 1980 के दशक में उन्हें और 52 परिवारों को उनकी पुश्तैनी जमीन, अट्टूर कराडीकल हाड़ी से बेदखल कर दिया गया। उन्होंने कहा, “हम अपनी जमीन पर वापस जाना चाहते हैं। टाइगर रिजर्व की अधिसूचना गैरकानूनी है, क्योंकि जंगल में पीढ़ियों से रहने वाले लोगों से इस बारे में कोई बात नहीं की गई।”

कम्युनिटी नेटवर्क्स अगेंस्ट प्रोटेक्टेड एरियाज (CNAPA) के प्रनब डोले ने कहा कि यह समुदाय एक नया रास्ता दिखा रहा है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर बहस चल रही है कि इन लोगों को न्याय कैसे मिलेगा। उन्होंने बताया कि “किले जैसा संरक्षण मॉडल” जंगलों की रक्षा के लिए सैन्य तरीके अपनाता है, जिससे आदिवासियों को उनके सामान्य संसाधनों और पवित्र स्थलों का उपयोग करने से रोका जाता है। यह हर रिजर्व में हो रहा है।

पर्यावरणविद् नितिन डी. राय ने कहा कि जंगल और नागरहोले में लोगों को अलग करने की जो नीति शुरू हुई है वह पिछले दो दशकों में असफल साबित हुई है। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश काल में आदिवासियों का शोषण और बेदखली हुई थी। बाघों की संख्या बढ़ने को सरकारी सफलता के रूप में दिखाया जा रहा है, जिससे पर्यावरण नियमों को कमजोर करने का बहाना मिलता है।

मुंबई की वकील लारा जेसानी ने बताया कि वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए गए व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार ऐतिहासिक अधिकारों की मान्यता हैं। यह कानून नए अधिकार नहीं देता, बल्कि पहले से मौजूद अधिकारों को कानूनी रूप देता है।

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