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Home » स्वराज से आर्थिक आजादी तक कहां पहुंची कांग्रेस

देश

स्वराज से आर्थिक आजादी तक कहां पहुंची कांग्रेस

The Lens Desk
Last updated: April 13, 2025 2:18 pm
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बेहद मुश्किल दौर से गुजर रही कांग्रेस का 8-9 अप्रैल को गुजरात में 86वां अधिवेशन हो रहा है। देश की सबसे पुरानी और सबसे अधिक समय सत्ता संभालने वाली पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को हुई। 139 साल पुरानी इस पार्टी के अधिवेशन (वार्षिक सभाएं) और महाधिवेशन (विशेष सभाएं) समय के साथ राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्र बन गए। कांग्रेस के अधिवेशनों में पार्टी की दशा और दिशा देने के लिए नीतियां बनाई गईं। “गरीबी हटाओ”, “पूर्ण स्वराज” और “भारत छोड़ो आंदोलन” जैसे प्रस्ताव पास हुए, साथ ही गांधी के अहिंसा का दर्शन इन सभाओं में उभरकर सामने आया। 139 साल की यात्रा में कांग्रेस कहां पहुंची यह देखना दिलचस्प है। हम यहां ऐसे चुनींदा अधिवेशनों और महाधिवेशनों का जिक्र कर रहे हैं, जो मील का पत्थर साबित हुए हैं…

पहला अधिवेशन (बॉम्बे, 28 दिसंबर 1885) : नींव का पहला पत्थर

28 दिसंबर 1885 को दोपहर 12 बजे बॉम्बे (अब मुंबई) के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज के हॉल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन हुआ। यहीं से कांग्रेस की दिशा तय होनी शुरू हुई। अधिवेशन में सबसे पहले ए. ओ. ह्यूम, सुब्रह्मण्यम अय्यर और के. टी. तेलंग ने हिस्सा लिया। उन्होंने प्रसिद्ध वकील डब्ल्यू. सी. बनर्जी को बैठक का पहला अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया। 

पहले यह तय हुआ था कि यह बैठक पुणे में होगी, लेकिन वहां हैजा फैलने की खबर के कारण यह मुंबई में कराई गई। कॉलेज और बोर्डिंग हाउस के संचालकों ने अपनी इमारत कांग्रेस को दे दी। 27 दिसंबर 1885 की सुबह तक इस इमारत को अधिवेशन लायक तैयार कर लिया गया था। 

इस अधिवेशन में कुल 9 प्रस्ताव पास किए गए। भारतीय प्रशासन की जांच के लिए एक आयोग, भारत परिषद को खत्म करने, विधान परिषदों में चुने हुए सदस्यों को जगह, आईसीएस की परीक्षा भारत और इंग्लैंड में एक साथ कराने, ऊपरी बर्मा को भारत में मिलाने का विरोध जैसे महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पास किए गए। 

कलकत्ता, 1886, दूसरा अधिवेशनः गरीबी की शिनाख्त

कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में साल 1886 में हुआ। “गरीबी हटाओ” का नारा सबसे अधिक चर्चित रहा। इस नारे और विचारधारा का जन्म कांग्रेस के कलकत्ता के दूसरे अधिवेशन में हुआ। यह अधिवेशन दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में हुआ। इसमें सुरेंद्रनाथ बनर्जी और पंडित मदन मोहन मालवीय भी शामिल हुए थे। इस अधिवेशन में भारत की गरीबी खत्म करने पर जोर दिया गया। एक लोक सेवा समिति नियुक्त की गई और उसे कांग्रेस को रिपोर्ट करने के लिए कहा गया। दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता वाली समिति ने तुरंत एक आठ सूत्री बयान प्रस्तुत किया और कांग्रेस ने इसे मंजूरी दे दी और इसे अपना लिया। इस अधिवेशन में प्रतिनिधियों की संख्या 434 थी। अधिवेशन के अंत में कांग्रेस ने पूरे देश में प्रांतीय कांग्रेस कमेटियाँ गठित करने का फैसला किया।

सूरत अधिवेशन, 1907: जूते चल गए

1907 में कांग्रेस का अधिवेशन विवादित रहा। पहले यह अधिवेशन नागपुर में होना था। वहाँ की स्वागत समिति चाहती थी कि लोकमान्य तिलक अधिवेशन के अध्यक्ष बनें। नरमपंथी नेताओं को यह स्वीकार्य नहीं होने के कारण अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने स्थान बदलकर सूरत कर दिया। नरमपंथियों ने डॉ. रास बिहारी घोष को अध्यक्ष बनाने का निर्णय लिया था। अधिवेशन से लगभग एक सप्ताह पहले चर्चा के लिए विषयों की सूची प्रकाशित की गई थी। लेकिन इसमें स्वराज, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा पर प्रस्ताव शामिल नहीं थे। राष्ट्रवादियों ने कलकत्ता कांग्रेस द्वारा निर्धारित नीति से इस विचलन के खिलाफ लड़ने का फैसला किया। वे चाहते थे कि लाला लाजपत राय कुर्सी पर बैठें। परिस्थितियों के कारण वह अध्यक्षता करना पसंद नहीं करते थे। लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में अधिवेशन में विरोध हुआ और नरमपंथी नेताओं ने इसे दबाने की पूरी कोशिश की। इससे भ्रम और अशांति पैदा हुई, आम हाथापाई हुई और जूते फेंके गए और मारपीट का आदान-प्रदान हुआ। सत्र स्थगित करना पड़ा और उदारवादियों और राष्ट्रवादियों के बीच रास्ते पूरी तरह से अलग हो गए। कांग्रेस कई वर्षों तक एक उदारवादी संस्था बन गई।

कराची, 1913, 28वां अधिवेशन। गांधी ने शिरकत की

यह अधिवेशन जब हुआ तब कांग्रेस की कमान नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर के हाथों में थी। कराची अधिवेशन में कांग्रेस में हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया गया। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने स्वशासन के लक्ष्य को अपनाया और इस संकल्प को पारित किया गया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के स्वशासन के लिए एकता पर भाषण दिए गए। हालांकि, यह अधिवेशन मुख्य रूप से दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की स्थिति के सवाल पर केंद्रित रहा। मोहनदास करमचंद गांधी हाल ही में दक्षिण अफ्रीका से लौटे थे और उन्होंने वहां की कहानी सुनाई थी। गांधीजी और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए वीरतापूर्ण संघर्षों को ध्यान से देखा गया और देश से उनके लिए समर्थन की अपील की गई।

कलकत्ता, 1917, 32वां अधिवेशनः स्वराज का नारा बुलंद 

इस अधिवेशन के समय श्रीमती एनी बेसेंट कांग्रेस की अध्यक्ष थीं। इसमें कांग्रेस ने पहली बार स्वराज का नारा बुलंद किया। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में इस सत्र को एक मील के पत्थर की तरह देखा जाता है। सैन्य प्रशिक्षण, बंधुआ मजदूरी, रॉलेट समिति, प्रेस एक्ट और शस्त्र कानूनों की निंदा की गई। उपनिवेशों में भारतीयों की समस्याओं पर प्रस्ताव पास हुए। स्वराज की मांग मुख्य थी, जिसमें समय-सीमा और कांग्रेस-लीग योजना को लागू करने की बात हुई। पहली बार तिरंगा झंडा लाया गया।

बेलगांव, 1924, 39वां अधिवेशनः महात्मा गांधी की सरपरस्ती

इस अधिवेशन में कांग्रेस की कमान महात्मा गांधी को सौंपी गई। इसमें गांधी-दास-नेहरू समझौते को मंजूरी मिली। कांग्रेस के सदस्यता नियमों में बदलाव हुआ। अस्पृश्यता और वैकम सत्याग्रह पर प्रस्ताव पास किए गए। अकाली आंदोलन, शराब और अफीम के व्यापार को रोकने के लिए कदम उठाए गए। कोहाट से हिंदुओं के पलायन पर चिंता जताई गई। मुसलमानों से हिंदुओं की सुरक्षा की अपील की गई। विदेश में भारतीयों के लिए भी प्रस्ताव लाया गया। सरोजिनी नायडू और अन्य की सेवाओं की तारीफ हुई। कांग्रेस के संविधान में बदलाव किए गए।

मद्रास, 1927, 42वां अधिवेशनः साइमन गो बैक

इस अधिवेशन के समय कांग्रेस अध्यक्ष डॉ एम ए अंसारी थे। इसमें साइमन कमीशन का हर तरह से बहिष्कार करने का फैसला हुआ। कांग्रेस ने “पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता” का लक्ष्य घोषित किया, जिसे श्रीमती बेसेंट ने भी समर्थन दिया। कार्य समिति को संविधान बनाने का जिम्मा दिया गया। युद्ध के खतरे की चेतावनी दी गई और साम्राज्यवादी युद्ध में सहयोग न करने की बात कही गई। जनरल अवारी की भूख हड़ताल की तारीफ हुई। बर्मा को भारत से अलग करने की निंदा की गई। बंदियों की रिहाई की मांग की गई। साम्राज्यवाद, चीन, ब्रिटिश सामान बहिष्कार, हिंदू-मुस्लिम एकता और अफ्रीका में भारतीयों के लिए प्रस्ताव पास हुए।

कलकत्ता, 1928, 43वां अधिवेशनः सत्याग्रह की चेतावनी

इस अधिवेशन के समय मोती लाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे। अधिवेशन में मुख्य प्रस्ताव नेहरू रिपोर्ट पर आधारित था। गांधीजी ने दो साल के लिए डोमिनियन स्टेटस मंजूर करने का प्रस्ताव रखा। जवाहरलाल ने स्वतंत्रता पर जोर दिया। समझौता हुआ कि ब्रिटिश सरकार एक साल में रिपोर्ट माने, वरना सत्याग्रह होगा। स्वतंत्रता का प्रचार जारी रखा गया। वल्लभभाई पटेल को बरदोली सत्याग्रह के लिए बधाई दी गई। राज्यों में जिम्मेदार सरकार की मांग की गई। पुलिस छापों और ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार पर प्रस्ताव पास हुए।

लाहौर, 1929, 44वां अधिवेशन: जवाहर को कमान

इस अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष चुना गया। सम्मेलन में मुख्य प्रस्ताव भारत की आजादी पर लाया गया। तब के हालात में गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया गया। कांग्रेसियों से विधायिकाओं से इस्तीफा देने को कहा गया। एआईसीसी को सविनय अवज्ञा शुरू करने का अधिकार दिया गया। अल्पसंख्यकों को आश्वासन दिया गया कि कोई भी समाधान उनकी संतुष्टि के बिना स्वीकार नहीं होगा। जतिंद्रनाथ दास और फोंग्यी विजया के बलिदान की सराहना की गई। वायसराय की ट्रेन पर बमबारी की निंदा हुई और लॉर्ड इरविन की सलामती पर बधाई दी गई। कार्य समिति के लिए चुनाव की जगह नामांकन की प्रक्रिया पर प्रस्ताव पास किया गया। इसी सब के बीच श्रीनिवास अय्यर और सुभाष चंद्र बोस अपने समर्थकों के साथ अधिवेशन से बाहर निकले और कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई।

कराची, 1931, 45वां अधिवेशनः भगत सिंह की शहादत की याद

कराची में हुए इस अधिवेशन में सरदार वल्लभ भाई पटेल को अध्यक्ष चुना गया। यह अधिवेशन खुले मैदान में बिना टेंट के हुआ। इस अधिवेशन में भारत की आजादी के लिए भगत सिंह और उनके साथियों की बहादुरी की तारीफ की गई, लेकिन हिंसा की निंदा भी की गई। दोनों की फांसी की सजा को बदले की कार्रवाई बताया गया। कुछ युवाओं ने भगत सिंह को न बचाने के लिए गांधीजी के खिलाफ काला झंडा दिखाया। ब्रिटिश सरकार की सख्त नीति की आलोचना की गई। गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान की सराहना हुई। गांधी-इरविन समझौते पर कांग्रेस का रुख साफ किया गया। गांधीजी को दूसरी गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने का अधिकार मिला। मौलिक अधिकारों पर प्रस्ताव पास हुआ। सविनय अवज्ञा पीड़ितों, सांप्रदायिक दंगों, नशाबंदी, खद्दर, शांतिपूर्ण धरने, सीमांत लोगों, एन. डब्ल्यू. एफ. प्रांत और दक्षिण-पूर्वी अफ्रीका के भारतीयों पर प्रस्ताव आए। बर्मा के अलगाव की निंदा हुई, लेकिन स्वतंत्र बर्मा के अधिकार को माना गया।

हरिपुरा, 1938, 51वां अधिवेशनः पूर्ण स्वराज की मांग

गुजरात के हरिपुरा में हुए इस अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया। अधिवेशन का मुख्य मुद्दा फेडरेशन था। कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की माँग की और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आंदोलन करने का फैसला किया गया। प्रस्तावित संघीय योजना की निंदा हुई। राष्ट्रीय शिक्षा के लिए अखिल भारतीय बोर्ड बनाया गया। अल्पसंख्यकों को विकास का भरोसा दिया गया। मिदनापुर में कांग्रेस पर बैन और असम के गुइदाल्लो की रिहाई की मांग हुई। बिहार-यूपी में मंत्रियों के इस्तीफे पर घोषणा हुई। विदेशी भारतीयों, जंजीबार, सीलोन, चीन, फिलिस्तीन और युद्ध के खतरे पर प्रस्ताव पास हुए।

त्रिपुरी (जबलपुर), 1939, 52वां अधिवेशनः  नेताजी ने कांग्रेस छोड़ी

इस अधिवेशन में हिस्सा लेने के लिए सुभाष चंद्र बोस स्ट्रेचर पर गए थे, क्योंकि वो बीमार थे। गोविंद वल्लभ पंत ने प्रस्ताव रखा, जिसमें गांधीजी और पुरानी कार्य समिति पर भरोसा जताया गया। सुभाष से गांधीजी की पसंद की नई समिति बनाने को कहा गया। बहस के बाद प्रस्ताव पास हुआ। देशव्यापी संघर्ष की तैयारी और एकता पर जोर दिया गया। एआईसीसी को संविधान बदलने का अधिकार मिला। ब्रिटिश विदेश नीति की निंदा हुई। फिलिस्तीन, विदेशी भारतीयों पर प्रस्ताव पास किए गए। इसी सम्मेलन में सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अलग राह चुन ली।

मेरठ, 1946, 54वां अधिवेशनः संविधान सभा को मंजूरी

इस अधिवेशन के समय जेबी कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष थे।छह साल के बाद कांग्रेस का अधिवेशन मेरठ में हुआ। इस अधिवेशन को ‘डायमंड जुबली’ के रूप में भव्य करने की योजना थी। लेकिन, उस वक्त मेरठ में दंगों के कारण इस अधिवेशन को छोटा रखा गया। स्वागत समिति के इंतजाम रद्द कर दिए गए। कांग्रेस के इतिहास और योगदान पर आधारित प्रदर्शनी कैंसिल कर दी गई। विदेशी भारतीय (फिजी, मलाया, केन्या आदि) के प्रतिनिधि इस अधिवेशन में शामिल हुए। जनरल शाह नवाज ने कार्यकर्ताओं के साथ रैली निकाली। शोक प्रस्ताव में नेताओं (टैगोर, भुलाभाई देसाई आदि) को याद किया गया। पिछले 6 साल की घटनाओं, युद्ध, अकाल और दमन पर चिंता जताई गई। परमाणु बम और अंतरराष्ट्रीय तनाव पर चेतावनी दी गई। संविधान सभा और अंतरिम सरकार के फैसले मंजूर हुए। दक्षिण-पूर्व अफ्रीका, इंडोनेशिया और रियासतों पर प्रस्ताव पास हुए। सांप्रदायिक हिंसा (बंगाल, बिहार, मेरठ) की निंदा हुई, देश को सुरक्षा और पुनर्वास पर जोर दिया गया।

जयपुर, 1948, 55वां अधिवेशनः गांधी की शहादत का स्मरण 

इस अधिवेशन के समय बी पट्टाभि सीतारमैया कांग्रेस के अध्यक्ष थे। अधिवेशन में प्रवासी भारतीयों के प्रतिनिधियों ने कांग्रेस को भाईचारे की शुभकामनाएं दीं। महात्मा गांधी की हत्या पर गहरा दुख व्यक्त किया गया। राष्ट्रीय स्मारक और फंड के फैसले को मंजूरी दी गई ताकि गांधीजी के रचनात्मक, शैक्षिक और सामाजिक कार्य आगे बढ़ाया जा सके।

हैदराबाद, 1953, 58वां अधिवेशनः भूदान पर प्रस्ताव

इस अधिवेशन के समय जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। इसमें जनसम्मति से भूदान यज्ञ का प्रस्ताव पारित किया गया। आचार्य विनोबा भावे द्वारा किए गए कार्यों की तारीफ की गई। महाशक्तियों के बीच संबंधों में तनाव और गहराते संकट को गंभीर चिंता के साथ देखा गया। संयुक्त राष्ट्र संगठन की उपलब्धियों की सराहना की गई। इस बात पर ध्यान दिया गया कि अफ्रीका में स्वतंत्रता के लिए कुछ राष्ट्रीय आंदोलनों को बलपूर्वक दबाया जा रहा था।

बैंगलोर, 1960, 65वां अधिवेशनः विकेंद्रीकरण और पंचायती राज पर जोर

इस अधिवेशन के समय एन संजीव रेड्डी कांग्रेस के अध्यक्ष थे।  अधिवेशन ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर केंद्रित था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण और पंचायती राज की स्थापना के लिए चलाए जा रहे आंदोलन की तारीफ की गई। अंतरराष्ट्रीय मामलों पर अपने प्रस्ताव में अफ्रीका में कई नए देशों की स्वतंत्रता के उदय का स्वागत किया। इसने अफ्रीका के कुछ हिस्सों में नस्लीय अलगाव और भेदभाव की नीतियों के जारी रहने की निंदा की।

चंडीगढ़, 1975, 75वां अधिवेशनः निजी क्षेत्र पर जोर

इस समय कांग्रेस की कमान देवकांत बरूआ के हाथ में थी। चंडीगढ़ के इस अधिवेशन में कांग्रेस ने सामाजिक-आर्थिक नीतियों पर जोर दिया। देश की विकास प्रक्रिया को गति देने में निजी क्षेत्र की उपयोगी भूमिका को मान्यता दी गई। जमाखोरी, कालाबाजारी और कर चोरी के खिलाफ कांग्रेस ने प्रतिबद्धता जताई। हिंद महासागर को शांति के क्षेत्र के रूप में संरक्षित करने के लिए तटीय राज्यों के प्रयासों का समर्थन किया।

नई दिल्ली, 1978, 76वां अधिवेशनः सत्ता से बाहर हो चुकी थी कांग्रेस

इस अधिवेशन के समय इंदिरा गांधी सत्ता गंवा चुकी थीं और कांग्रेस अध्यक्ष थीं। नई दिल्ली के अधिवेशन में राजनीतिक स्थिति पर प्रस्ताव लाया गया, जिसमें वर्ष 1977 की बात की गई और कहा गया कि यह देश के हाल के इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण और निर्णायक वर्ष था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तीन दशकों तक लगातार केंद्र में सत्ता में रहने के बाद सत्ता से बाहर हो गई थी। कांग्रेस ने सामाजिक-आर्थिक नीतियों पर फिर से जोर देना शुरू किया।

बॉम्बे, 1985, 78वां अधिवेशनः स्थापना के सौ साल

इस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री और कांग्रेस के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के 100 साल पूरे होने पर 78वां अधिवेशन बॉम्बे में आयोजित किया गया। इस अधिवेशन में कांग्रेस के संघर्ष और बलिदान को याद किया गया। राष्ट्रीय एकता, अखंडता, सामाजिक-आर्थिक विकास, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति पर इस अधिवेशन में चर्चा की गई।

तिरुपति, 1992, 79वां अधिवेशनः आर्थिक उदारीकरण की राह पर

इस समय पी वी नरसिंह राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष दोनों जिम्मेदारी संभाल रहे थे। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद यह अधिवेशन हुआ। प्रधानमंत्री नरसिंह राव की अगुआई में कांग्रेस सरकार ने आर्थिक और विदेश नीति के क्षेत्र में बड़े ऐतिहासिक कदम उठाए थे। वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीति पेश की थी। इस सत्र में तीन प्रस्ताव पारित किए गए। अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों के प्रतिनिधित्व पर बात हुई। उदारीकरण और विदेश नीति से जुड़े प्रस्तावों पर चर्चा की गई।

पचमढ़ी, 1998 :  सोनिया गांधी के नेतृत्व में पहला चिंतन शिविर

1998 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में पहला चिंतन शिविर मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में आयोजित किया गया था। उस दौरान कांग्रेस लगातार भाजपा से पिछड़ रही थी। सत्र के दौरान कांग्रेस ने फैसला किया कि उन्हें चुनाव जीतने के लिए गठबंधन की जरूरत नहीं है। कांग्रेस ने अपनी पार्टी के नेताओं पर भरोसा जताया।

बैंगलोर, 2001, 81वां अधिवेशनः गरीबी हटाने पर जोर

बैंगलोर में हुए इस अधिवेशन में सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पहली बार शामिल हुईं। इसमें देश की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की समीक्षा हुई। कांग्रेस ने राजनीतिक, कृषि, आर्थिक और अंतरराष्ट्रीय मामलों से जुड़े चार मुख्य प्रस्ताव पास किए। कांग्रेस ने 115 साल की यात्रा और राजनीति से जुड़े राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना नजरिया साफ किया। किसानों और खेत मजदूरों की तरक्की के लिए संकल्प लिया गया। गरीबी मिटाने और तेज विकास के लिए आर्थिक सुधार पर जोर दिया गया। सर्वसम्मति से विदेश नीति बनाने और विश्व शांति पर जोर दिया गया।

पांच साल बाद गठबंधन की सरकार

पचमढ़ी शिविर के पांच सालों के बाद 2003 में कांग्रेस को गठबंधन की अहमियत का एहसास हुआ। पार्टी ने 1998 के सापेक्ष 360 डिग्री टर्न करते हुए ‘प्रगतिशील सोच वाले राजनैतिक दलोंऔर सियासी आंदोलन के साथ’ गठबंधन को स्वीकार कर लिया।

हैदराबाद, 2006, 82वां अधिवेशनः यूपीए सरकार के संकल्प

कांग्रेस ने इसे महाधिवेशन का नाम दिया। 2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए सरकार बनी थी और डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। इस सम्मेलन में कांग्रेस ने चार संकल्प पारित किए। यूपीए सरकार के 20 महीनों में आर्थिक नीतियों पर लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया। बताया गया कि कैसे कांग्रेस सरकार ने अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी। अगले दशक में भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने और हर भारतीय को सम्मान, सुरक्षा व समान अवसर देने की योजना बनाई गई। इसके अलावा देश की बाहरी सुरक्षा व अंतरराष्ट्रीय मामलों और भविष्य में कांग्रेस की राजनीति कैसी हो, इस पर खाका खींचा गया।

रायपुर, 2023, 85वां महाअधिवेशन :  सोनिया के भाषण से उठी अफवाह

साल 2023 में कांग्रेस का 85वां राष्ट्रीय महाअधिवेशन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हुआ था। इस अधिवेशन की अहमियत इसलिए ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि कयास लग रहे थे कि इस अधिवेशन में 26 साल बाद  कांग्रेस कार्यसमिति का चुनाव भी संभव है लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

इस बैठक की खासियत यह रही कि  कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़ा वर्गों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों और युवाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण की गारंटी देने वाला संशोधन पारित कर दिया ।

इस अधिवेशन में सोनिया गांधी के भाषण की जमकर चर्चा रही। उन्होंने कहा कि  “मुझे सबसे अधिक खुशी इस बात की है कि मेरी पारी भारत जोड़ो यात्रा के साथ समाप्त हो सकी।

सोनिया गांधी के इस बयान से अटकलें लगाई जाने लगीं कि क्या सोनिया गांधी का भाषण उनके राजनैतिक संन्यास की घोषणा करने के लिए था। अफवाहों का बाजार गर्म होने से पहले ही कांग्रेस ने इसका खंडन कर दिया।

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