दलित चिंतक कांशीराम की 91वें जयंती के मौके पर उनकी अनुयायी और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने जातिगत जनगणना की मांग दोहराई है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि वह खुद अपनी नैतिक-राजनीतिक आभा खो चुकी हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि समकालीन भारत के राजनीतिक चिंतकों की जब भी चर्चा होगी, कांशीराम को दलितों और वंचितों के हक के लिए लड़ने वाले मौलिक चिंतक के रूप में याद किया जाएगा। यह कांशीराम ही थे, जिन्होंने एक दलित स्कूल शिक्षिका मायावती की शिनाख्त ऐसी उभरती नेता के रूप में की थी, जिसने देश के सबसे बड़े सूबे की कमान तक संभाली। मगर आज बहुजन समाज पार्टी अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष कर रही है, तो इसकी जिम्मेदार भी मायावती ही हैं, जिन्होंने भले ही अभी अपने भतीजे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है, लेकिन कुनबापरस्ती को बढ़ावा देने से गुरेज नहीं किया। वास्तविकता यह है कि बसपा आज कांशीराम की विचारधारा से बहुत दूर हो चुकी है, जबकि यह बसपा संस्थापक ही थे, जिन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त जाति की जटिल संरचना को न केवल ठीक से समझा, बल्कि यह स्पष्ट लाइन भी रखी कि, जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी! इसलिए हैरत नहीं कि प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी तक उन्हें याद कर रहे हैं। कांशीराम की जयंती पर मायावती खुद को भले ही “लौह महिला” बता रही हों, लेकिन उन्हें आत्ममंथन करने की जरूरत है कि मान्यवर कांशीराम के सपनों को लोकसभा के रास्ते ही अमल में लाया जा सकता है, जहां बसपा का आज एक भी सांसद नहीं है!
कांशीराम की विरासत

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