राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो फैक्टरियों से बाल श्रमिकों को मुक्त कराने में जिस तरह की मशक्कत करनी पड़ी है, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों और किशोरों का श्रम के नाम पर शोषण आज भी कितनी बड़ी चुनौती है।
हैरान करने वाली बात यह भी है कि इनमें से एक फैक्टरी से कुछ महीने पहले भी 97 मजदूरों को मुक्त कराया गया था, जिनसे मनमाने ढंग से काम लिया जा रहा था। यही नहीं, उनमें से अनेक लोगों को तो महीनों से भुगतान तक नहीं किया गया था और उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर किया गया था। और यदि उसी फैक्टरी से अब बच्चों और किशोरों को मुक्त कराना पड़ा है, तो समझा जा सकता है कि बिना किसी राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण के ऐसी मनमानी की ही नहीं जा सकती।
वास्तविकता यह है कि जुलाई की उस घटना के बाद फैक्टरी मालिक के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई थी और मुक्त कराए गए लोगों को एक तरह से उनके हाल पर छोड़ दिया गया था। दरअसल जुलाई में मशरूम फैक्टरी में मजदूरों को बंधक बनाए जाने की जानकारी तब मिली थी, जब वहां से कुछ मजदूर देर रात भाग निकले थे!
इन दो फैक्टरियों पर की गई ताजा कार्रवाई से साफ है कि उनके मालिकों और संचालकों में किसी भी तरह का भय नहीं था। बंधुआ और बाल मजदूरी पर भले ही कानूनी प्रतिबंध हो, लेकिन ऐसी घटनाएं बताती हैं कि फैक्टरी मालिकों और नियोक्ताओं की मनमानियां कम नहीं हुई हैं।
अभी यह पता नहीं है कि इन बच्चों को किस तरह से इन फैक्टरियों तक लाया गया था, लेकिन यह तो साफ है कि उनके काम के घंटों का कोई हिसाब नहीं था।
मुक्त कराए गए 109 बच्चों में से अधिकांश बच्चे उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के बताए गए हैं और उनमें 68 लड़कियां भी शामिल हैं। जाहिर है, ये बच्चे आर्थिक मजबूरी में ही इन फैक्टरियों तक आए होंगे। यह कार्रवाई बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे नारों की जमीनी हकीकत को भी बयां कर रही है और सत्ता के शिखर से किए जाने वाले विकास के गगनचुंबी दावों की भी।
यह भी पूछा ही जाना चाहिए कि यदि सरकार देश के 85 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दे रही है, स्कूलों में प्रधानमंत्री पोषण जैसा कार्यक्रम चल रहा है, करोड़ों महिलाओं के खातों में सीधे पैसा पहुंच रहा है, तो फिर ये बच्चे स्कूलों के बजाए फैक्टरियों में क्यों थे?

