बिहार की जब भी बात होती है, जो जिन चीजों का जिक्र आता है, उनमें यहां पैदा होने वाला मखाना भी शामिल होता है। विधानसभा चुनाव में भी इसकी चर्चा हो रही है, तो इसकी वजहें भी हैं।
दुनिया का 80 फीसद से ज़्यादा मखाना का उत्पादन बिहार कर रहा है। मखाना में खनिज, विटामिन और फाइबर की प्रचुरता की वजह से इसे सुपरफूड भी कहा जाने लगा है। इसी को देखते हुए अगस्त 2020 में भारत सरकार ने ‘मिथिला मखाना’ को GI टैग दिया है। वैश्विक मखाना बाजार का आकार 2023 में 44.4 अरब अमेरिकी डॉलर आंका गया था और 2030 तक 97.5 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है।

इन सबके बीच मुख्य मुद्दा यह है कि छूती कीमतों से किसे फायदा हो रहा है? क्या मखाना खेती से बिहार के किसानों की बदल सकती है तस्वीर?
बिहार के सुपौल जिला स्थित सुंदरपुर गांव में स्टेशन के बगल में जैबार और सुरेंद्र महतो सुल्तान और 5-7 लोग घुटनों तक गहरे तालाब में काम कर रहे थे। वो आधी नाव जैसे लकड़ी के औजार और एल्युमीनियम का बर्तन पकड़ के काले मोती यानी मखाने के बीज निकल रहे थे।
स्थानीय भाषा में इसे गुरिया कहा जाता है। मजदूरों के मुताबिक एक किलो मखाना या बीज इकट्ठा करने पर उन्हें 40 से 50 रुपये मिलते हैं। इस हिसाब से मजदूर 400 से 500 रुपये कमा लेते हैं। उन्होंने बताया कि हम गीले कपड़ों में ही दोपहर का खाना खाते हैं। 100 लेबर मिलकर 20 क्विंटल से ज्यादा मखाना एक दिन में निकाल लेते हैं।
बिहार का मखाना बना चुनावी मुद्दा
15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार यात्रा के दौरान पूर्णिया से राष्ट्रीय मखाना बोर्ड की औपचारिक शुरुआत की। 100 करोड़ रुपये की प्रारंभिक राशि के साथ बने इस बोर्ड से मखाना उद्योग को संबल मिलने की उम्मीद है। इसलिए माना जा रहा है कि यह कदम प्रदेश के किसानों की जिंदगी में बड़ा बदलाव लाने जा रहा है। इससे पहले भी बिहार यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह साल में 300 दिन इसका सेवन करते हैं। 4 अक्टूबर को पटना के ज्ञान भवन में कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मखाना महोत्सव का शुभारंभ किया।
23 अगस्त को वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी कटिहार के तिनपनिया गांव में मखाना किसानों से मिले। सोशल मीडिया पर वायरल तस्वीर में अपनी पतलून ऊपर चढ़ाकर राहुल गांधी पानी से भरे खेत में मखाना तोड़ते हुए और किसानों के एक समूह की बात ध्यान से सुनते हुए देखे गए। इस दौरान सीमांचल के किसान मखाना उगाने की पारंपरिक और खतरनाक प्रक्रिया के बारे में बता रहे थे और अपनी आशाओं और चिंताओं के बारे में बता रहे थे।
इस दौरान नजमुल हक ने राहुल गांधी से कहा कि “इतनी मेहनत के बाद भी हमें सही कीमत नहीं मिल रही है। मखाना के कच्चे बीज यानी गुरिया का भाव 250 रुपए किलो मिलता है जबकि तालाब में जाकर कठिन मेहनत से इस बीज निकालने वाले मजदूर को सिर्फ 40 रुपए किलो के हिसाब से मेहनताना मिलती है। सरकार से कोई मदद नहीं मिलती। गेहूं-धान की फसल की तरह मखाना फसल बर्बाद होने पर किसानों को मुआवजा भी नहीं मिलता है।
भागलपुर किसान संगठन से जुड़े विमल यादव कहते हैं कि, “बिहार में ओबीसी खासकर ओबीसी मल्लाह समुदाय के अधिकांश लोग मखाना कृषि में जुड़े हुए हैं। समुदाय के नेताओं की यह भी मांग है कि इस जाति को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किया जाए। इसके अलावा, पूर्वी और उत्तरी बिहार के नौ मखाना उत्पादक जिले राज्य विधानसभा की लगभग 25 प्रतिशत सीटों के लिए जिम्मेदार हैं।
प्रधानमंत्री मोदी जब भी मखाना का जिक्र करते हैं तुरंत पिछड़ा वर्ग का भी जिक्र करतेहै। बिहार की मखाना कहानी का लाभ उठाना भाजपा द्वारा एक सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध कदम है।” हाल ही में हुई जाति जनगणना के अनुसार, अकेले मल्लाह की जनसंख्या 34 लाख से अधिक है।
कीमतें इतनी ऊंची फिर भी क्यों नहीं मिल रहा किसानों को हक?
मखाना के खेतों में अधिकांश पिछड़ा एवं दलित समुदाय के लोग भी काम करते हैं, लेकिन भूनने और पॉपिंग इकाई में मल्लाह समुदाय के लोगों का दबदबा है। इसी समुदाय के नेता मुकेश साहनी महागठबंधन पार्टी में शामिल हैं। मखाना मल्लाहों की पहचान का अभिन्न अंग है। दरभंगा एवं मधुबनी जिला स्थित कई मल्लाह लोगों से हमने बात की।
मधुबनी के रहने वाले 25 वर्षीय अभिषेक कुमार मल्लाह जाति से आते हैं। पटना में पढ़ाई कर चुके अभिषेक बीएड करने के साथ-साथ मखान की खेती में भी लगे हुए हैं, वो बताते हैं कि, “अधिकांश पोखर जमींदारों के पास है। बटाई पर उन्हें 1000 से 1200 रुपया कट्ठा सालाना देना पड़ता है। इसके अलावा कुछ मखाना भी देना पड़ता है। इसके बाद पूरा खर्च हमें करना पड़ता है। अंकुरण का समय, तालाब की सफाई, बुवाई, अतिरिक्त पौधों की निराई, दवाइयां और हार्वेस्टर को भुगतान का खर्च हम ही उठाते हैं. जब बीजों की कीमतें गिरती हैं तो हमें ही नुकसान उठाना पड़ता है।
अभिषेक बताते हैं, “पहले मखाना सिर्फ पोखर में होता था। अब गड्ढे वाले खेत में भी होता है। फसल में नई-नई बीमारियां लगने लगी हैं। पहले कीड़े मारे वाले स्प्रे की जरूरत नहीं पड़ती थी, अब एक सीजन में चार से पांच बार स्प्रे करना पड़ता है। इसमें भी लागत लग जाता है।”

सुपौल में मखाना मजदूर अशरफी सादा बताते हैं कि, “कुछ साल पहले तक हमें बीज इकट्ठा करने पर 25 रुपये प्रति किलोग्राम मिलता था। अब हमें आमतौर पर 40 से 50 रुपये मिलते हैं। वही मखाना के दाम में कई ज्यादा वृद्धि हुआ है। लेकिन मजदूरी कुछ बढ़ा है। सरकार की तरफ से भी इसको लेकर कुछ नियम नहीं है। खेती में असली फायदा जमींदार और व्यापारी का है।”
बिहार सरकार के रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 104.32 लाख किसानों के पास कृषि भूमि है। जिसमें 82.9 प्रतिशत भूमि जोत सीमांत किसानों के पास है और 9.6 प्रतिशत छोटे किसानों के पास है।
पूर्णिया में मखाने की सबसे ज्यादा खेती होती है। यहां मखाना विकास योजना, एक जिला-एक उत्पाद जैसी योजनाएं चल रही हैं। सबुतर गांव में रहने वाले रुस्तम मियां बताते हैं कि,”बाजार में मखाना 800 से 1200 रुपए किलो बिक रहा है। क्वालिटी के हिसाब से अलग-अलग दम है। उस हिसाब से कच्चे माल का भाव 40 से 50 हजार रुपए क्विंटल मिलना चाहिए। जबकि सिर्फ 24-25 हजार रुपए क्विंटल मिलता है। सरकारी योजना सिर्फ कागज पर हैं। जमीन पर किसानों के लिए कुछ नहीं है।”
व्यवसाय में कई बड़े व्यापारी और कंपनी आ चुकी हैं

पूर्व कृषि पदाधिकारी अरुण कुमार झा बताते हैं कि,”मखाना के व्यवसाय में कई बड़े व्यापारी आ चुके हैं। कई बड़ी कंपनी इसमें काम कर रही हैं। ऐसी परिस्थिति में बड़ी मात्रा में मखाना का स्टॉक रहने की वजह से कभी-कभी कीमतों में शेयर बाजार की तरह उतार-चढ़ाव होता है।”
विशेषज्ञ के मुताबिक राजनीति की वजह से भी मखाना की कीमत में फर्क पड़ता है। राहुल गांधी के मखाना के खेतों के दौरे से मखाना की कीमतों में 100 रुपये प्रति किलोग्राम का उछाल आया था।
संजीव सिंह सोशल मीडिया पर बिहार में कृषि से संबंधित समस्याओं के बारे में लिखते रहते हैं। वह कहते हैं कि, “दिल्ली से बिहार जो भी आता है… वह सिर्फ मखाना की बात करता है। मखाना को वैश्विक पहचान मिले यह अच्छी बात है पर क्या सिर्फ एक उत्पाद से बिहार बदल सकता है?

मखाना प्रोसेसिंग में कितनी संभावना है… इस पर कोई सटीक अध्ययन तक नहीं हुआ है। इसका मार्केट साइज़ सालाना 6000 करोड़ रुपये से ज़्यादा नहीं है। ऐसे में क्या राज्य के सिर्फ एक उत्पाद को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना सही है?”
वह कहते हैं, “एक समय था जब बिहार देश में 76% लीची का उत्पादन करके पहले स्थान पर था। जब हम इतना आगे थे तो फूड प्रोसेसिंग सेक्टर में बिहार ने लीची आधारित कितना बिजनेस बनाया? आज लीची में बिहार का योगदान घटकर 44% पर आ गया है। जिस तरह लीची के मामले में हुआ… मखाना के साथ भी यही होगा। यदि हम मैन्युफैक्चरिंग और AI जैसी भविष्य की प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रहे हैं… तो मैं इसे बेईमानी से ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा।”
बिहार के सुपौल जिला स्थित मखाना का व्यवसाय करने वाले संजीव मंडल बताते हैं कि,” मखाना की खेती बहुत मुश्किल प्रक्रिया से गुजरती है। मखाना निकालने के लिए तालाब में गोता लगाना होता है या बांस के जरिए पानी से निकाला जाता है। पानी से भरे तालाब और कांटों से भरी मखानों की बेल को जितना लगाना कठिन है, उतना ही इसे निकालना भी मुश्किल होता है।
इसके बाद बड़े बर्तनों जैसे डैकची में इस तरह से हिलाया जाता है कि गंदगी साफ हो जाए। फिर बीज को बैग्स में भरकर सिलेंड्रिकल कंटेनर में भरा जाता है। नर्म करने के लिए इसे काफी देर तक रोल किया जाता है। फिर सुखाने के बाद फ्राई किया जाता है और फिर बांस के कंटेनर में स्टोर किया जाता है।
तापमान सही रहे, इसलिए गोबर का लेप लगाया जाता है और कुछ देर बाद एक बार फिर से फ्राई किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया के बाद बीज जब फटता है तो उसमें से निकलता है सफेद मखाना।
मखाना विकास योजना फाइलों से बाहर निकले तो बहुत फायदेमंद
पुराने मखाना व्यापारी अरविंद जैन बताते हैं कि,”बड़ा मखाना बड़ा मुनाफा देता है। मखाने के आकार के आधार पर कीमत बदलती रहती है। गुणवत्ता के आधार पर मखाने की कीमतें 900-950 रुपये प्रति किलो से लेकर 1400 रुपये प्रति किलो तक हो सकती हैं।”
बीजेपी प्रवक्ता सुमित शशांक बताते हैं कि ,” ‘बिहार के मखाना किसानों के लिए देश में पहली बार राष्ट्रीय मखाना बोर्ड बनाया गया है। इसके लिए बजट में 100 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। किसान को अब अच्छी किस्म का बीज और ट्रेनिंग मिलेगी। इससे उन्हें उपज दोगुनी करने में मदद मिलेगी।”
वही कांग्रेस के नेता अनुपम कहते हैं, “मखाना की खेती बड़े किसान नहीं करते, बल्कि गरीब, बटाईदार और मजदूर करते हैं। जिसके लिए सरकार की कोई योजना नहीं है। पानी में उतरकर मखाना निकालना, उसे तैयार करना बहुत मुश्किल काम है। किसान और मजदूर, बिचौलियों के शिकार हो रहे हैं। मखाना बोर्ड जमीन पर कहीं नजर नहीं आएगा। आप किसी किसान से जाकर पूछ लीजिए, उन्हें नहीं पता कि इस बोर्ड का काम क्या है। यह किसानों का मुनाफा कैसे बढ़ाएगा।”

