“यह बात बेकार है कि उम्र का कोई असर नहीं होता… उम्र का असर होता है।” उन्होंने बड़ी संज़ीदगी की मेरी आँखों में झांकते हुए कहा।
मैं उनकी बात सुनकर सोचने लगा कि यह सच भी है, हर उम्र की अपनी उमंग, अपना आवेग, अपनी थकान होती है। हम चीजें जैसी हैं, उन्हें वैसे कहां स्वीकार कर पाते हैं?
हम 61 साल की उम्र में दुनिया के प्रति 16 साल जैसे उत्सुक नहीं हो सकते। उत्सुकता उस उम्र की मांग थी, मगर उम्र के हर पड़ाव की मांग अलग हो सकती है। कभी चंचलता, कभी उत्सुकता, कभी साहस, कभी ठहराव, तो कभी सुकून। हर वक्त सक्रिय रहने की मानसिकता, हर वक्त प्रोडक्टिव बने रहना; दरअसल उपभोक्तावादी समाज की मांग है। जहां पर हमें हर वक्त खुद को सोसाइटी के लिए उपयोगी साबित करते चलना है।
हमें जीवन में बहुत बार ठहराव भी चाहिए होता है। एक हरी कोंपल की ऊर्जा अलग होती है मगर ‘एक पीली शाम’ में ‘पतझर का ज़रा अटका हुआ पत्ता’ अपना एक अलग सौंदर्य लिए होता है। प्रकृति से ही जीवन को सीख सकते हैं। सुबह हलचलों से भरी होती है। शाम आती है तो आवाजें भी डूबने लगती है। हवा भारी हो जाती है और तालाब का पानी कई बार आईने की तरह ठहरा हुआ नज़र आता है। जीवन भी आपसे बहुत बार ऐसे ही ठहराव की मांग करता है।
जीवन की इस कमजोर-कांपती मांग को अनसुना करना खुद के प्रति अनकही हिंसा है। हममें से बहुत सारे लोग जीवन के एक हिस्से में पहुंचकर उसे शाम की सुंदरता की तरह निहारना चाहते होंगे। रूसी उपन्यासों के कर्मठ किसानों की तरह, दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद शाम को चटकती लकड़ियों की आग के पास खामोश बैठना चाहते होंगे। कोई ऐसा गीत गाना चाहते होंगे, जो बहुत दिनों से मन में उठ-गिर रहा है।
सक्रिय रहना- इसलिए तो अच्छा है कि हम जी रहे हैं, मगर हम सेहतमंद रहें तो भी हम बुढ़ापे में युवावस्था जैसी सक्रियता नहीं हासिल कर सकते, फिर उसका अतिरिक्त आग्रह क्यों?
जीव-जंतु भी बूढ़़े होते हैं और उनकी भी मृत्यु होती है। मगर जंगली जानवर दुख या पीड़ा को कम व्यक्त करते हैं। यह उनके प्राकृतिक व्यवहार का हिस्सा है; क्योंकि जंगल के जीवन में जहां हर पल सरवाइव करने के लिए संघर्ष करना है, कमजोर दिखना खतरे को आमंत्रण देना होता है। इसलिए जंगली जानवर जब कमजोर या बीमार होते हैं तो अक्सर झुंड से अलग हो जाते हैं।
मनुष्य अपने बुढ़ापे को चेतन अनुभव के रूप में जीता है, उसमें स्मृतियां, बिछोह, मृत्यु के प्रति भय और लालसा होती है। जानवरों में यह आत्मचिंतन नहीं होता। वे वर्तमान में जीते हैं। इसलिए उनके बुढ़ापे में दुख का भाव कम और प्राकृतिक स्वीकृति अधिक होती है। वे बुढ़ापे को त्रासदी नहीं, बल्कि एक शांत अवसान की तरह स्वीकार करते हैं।
प्रकृति में मौजूद जीवों के भीतर एक गहरी बुद्धिमत्ता है, वह कुछ कहती या विचार नहीं करती, बस उसे जीती है। मनुष्य अपनी चेतना के कारण अभिशप्त है। वह बूढ़ा होने के बाद बुढ़ापे और उसकी अवधारणा से भी जूझता है।
मनुष्यों में उम्र का यह पड़ाव शरीर को सुरक्षित या चलायमान रखने वाली दवाइयों, बीत चुके समय की स्मृतियों और वर्तमान के प्रति अस्वीकार के साथ गुजरता है। जबकि जानवर बुढ़ापे को भी जीवन की एक अवस्था की तरह स्वीकारते हैं। उनके लिए मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि जीवन के वृत्त का अंतिम बिंदु है, जो उसी धरती में उनको समाहित कर देता है, जहाँ से वे जन्मे थे।
सृष्टि में जीवन की अपनी एक लय होती है। वह किसी संगीत की तरह है। कभी मद्धम, कभी तीव्र और कभी शांत। प्रकृति के इस मौन संगीत में एक अनमोल संदेश छिपा है। जीवन का सौंदर्य उसकी लंबाई में नहीं, उसकी सहजता में है। जानवर हमें सिखाते हैं कि जीना, बूढ़ा होना और मर जाना; तीनों ही एक ही संगीत के अलग-अलग उठते-गिरते स्वर हैं।
जो इस संगीत को समझ लेता है, वही प्रकृति के लय में जीता और समाहित हो जाता है।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

