बहुजन विचारक कांशीराम की पुण्यतिथि के मौके पर लखनऊ में हुई रैली के जरिये बसपा सुप्रीमो मायावती ने जिस तरह से अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने की कोशिश की है, उसमें छिपे संदेशों का साफ पढ़ा जा सकता है। अव्वल तो यही गौर करने वाली बात है कि मायावती ने 2021 की अपनी पिछली रैली के चार साल बाद इस तरह की रैली की है।
दरअसल बीते एक दशक में बसपा का जो क्षरण शुरू हुआ, उसका नतीजा यह है कि बसपा जहां 2022 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में राज्य की 403 में से केवल एक सीट जीत सकी थी, वहीं लोकसभा और राज्यसभा में उसके एक भी सदस्य नहीं हैं! यह उस पार्टी का हाल है, जिसकी सुप्रीमो को कभी प्रधानमंत्री पद की दावेदार की तरह भी देखा जा रहा था।
खुद मायावती ने याद किया है कि 2007 में बसपा ने उत्तर प्रदेश में अपने दम पर बहुमत हासिल किया था, और तब उसके पास राज्य के 30 फीसदी से अधिक वोट थे, जो आज घटकर 12 फीसदी के करीब रह गए हैं। देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती के नेतृत्व में आज बसपा एक-एक सीट के लिए भी संघर्ष करती दिख रही है, तो यह उन्हें सोचने की जरूरत है कि उनकी पार्टी की यह दशा कैसे हो गई?
आखिर क्यों उनका जनाधार कमजोर होता गया और उनकी बहुचर्चित सोशल इंजीनियरिंग कैसे नाकाम हो गई? मायावती ने कहा है कि उनकी पार्टी ने जब-जब गठबंधन किया उसकी हालत कमजोर होती गई है, इसलिए 2027 के विधानसभा चुनाव में वह अपने दम पर अकेले ही चुनाव लड़ेगी।
क्या यह सही नहीं है कि मायावती ने बसपा के भीतर दूसरी लाइन बनने ही नहीं दी, जिसकी वजह से उनके करीबी रहे अनेक लोग या तो सपा के साथ चले गए या भाजपा के। और लखनऊ की इस रैली में भी मायावती ने जिस तरह से अपने भतीजे आनंद को आगे किया है, उससे भी साफ है कि पार्टी में नेतृत्व का कितना अभाव है।
यही नहीं, उन्होंने गुरुवार को लखनऊ में कांशीराम स्मारक के रैली स्थल की मरम्मत करवाने के बहाने उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार की तारीफ की है और कांग्रेस तथा सपा पर तीखे हमले किए हैं, उसके अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं।
दरअसल बसपा का क्षरण उसकी अपनी विचारधारा से भटकने और उसकी नेता के विचलन का नतीजा भी है। यह उस पार्टी का हाल है, जिसे कांशीराम ने अपनी वैचारिक ऊर्जा और प्रतिबद्धता से खड़ा किया था।
मायावती की चुनौती पहाड़ जैसी है, जहां उन्हें लगभग शून्य से शुरूआत करनी है। सवाल यही है कि क्या वह जमीनी स्तर पर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को जोड़ने के लिए उसी तरह की लड़ाई लड़ने को तैयार हैं, जिसके दम पर बसपा को कांशीराम ने एक बड़ी ताकत बना दिया था।