फणीश्वर नाथ रेणु आज होते तो कहां होते ?
रेणु यकीनन नेपाल में होते और और ‘जेन-जी ‘ के इस विद्रोह का जीवंत विवरण अपनी समीक्षा के साथ दे रहे होते।
रेणु होते तो इस ‘जेन-जी ‘ को राणाशाही के खतरों, साम्राजी खेल से सावधान कर रहे होते…
रेणु होते तो नेपाली युवाओं को 1947 के नेपाली जनांदोलन के बारे में बताकर आंदोलन को सही दिशा देते हुए दीखते।
होते जो आज रेणु तो 1950 और 51 की नेपाली क्रांतिगाथा का पुनरावलोकन कर रहे होते ,नौजवानों को इसके सबक बता रहे होते, इतिहास तक सीमित न रहते, बल्कि दुनिया देखती और याद करती कैसे रेणु के एक हाथ में कलम दूसरे में बंदूक रहती थी …
सन 1947 में रेणु विराट नगर के पूंजीपतियों के आंदोलन में शोषित मिल मज़दूरों के साथ लड़ते हैं। जनांदोलन का नेतृत्व करते हैं और राणाशाही को ललकारते हैं।

इसी जनांदोलन में रेणु पूर्णिया जिले के सोशलिस्टों को ही नहीं कोइराला बधुओं को भी नेतृत्व देने के लिए लाते हैं। इस ऐतिहासिक आंदोलन पर रेणु एक रिपोर्ट ‘विराट नगर की खूनी दास्तान’ लिखते हैं, जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित होती है। ये और बात है कि बाद में इसकी कोई प्रति आज तक न उपलब्ध हुई।
रेणु की एक और रिपोर्ट ‘सरहद के उस पार’, ‘जनता’ के 2 मार्च, 1947 अंक में प्रकाशित हुई, जो बाद में उनकी पुस्तक ‘समय की शिला पर ‘ में भी शामिल की गई।
ये रेणु की जीवंत और आम आदमी से बात करती हुई रिपोर्ट है।
इस रिपोर्ट में रेणु ने गरीबों और पीड़ित मज़दूरों की पीड़ा और दर्द को चित्रित किया है। उनकी इस रिपोर्ट को पढ़िए लगेगा नेपाल के उस जनांदोलन में आप शामिल हैं ।
रेणु लिखते हैं – ‘…आपको मेरी बात लग गयी, लेकिन मैं कहता हूं इन मिलों में पंद्रह बीस हजार मज़दूरों की पिसाई होती है, मगर कभी आह भी नहीं करने दिया जाता है …मांगों और हड़तालों की चर्चा तो कभी स्वप्न में भी नहीं की जाती…. देखिये दाहिने ओर वह मजदूर कॉलोनी है या ‘सूअर के खुहारों’ का समूह ! इनके बच्चों ओर औरतों की दशा देखिये, कितनी दर्दनाक सूरत है ……….मैं कहता हूं, सुनिए –बहुत शीघ्र ही यहां जबरदस्त क्रांति होगी ओर सफल क्रांति होगी।
निरंकुश नेपाली शासकों के साथ -साथ इन पूंजीपतियों के गठबंधन ने कोढ़ में खाज का काम किया है। नेपाल के चैतन्य समाज की आंखें खुल चुकी हैं … यही है बहादुर गोर्खा ! रूस के कज्जाकों का चचेरा भाई ! इनकी लाल सेना , दुनिया की किसी भी रंग की सेना के छक्के छुड़ा सकती है। इस कौम को यहां की सरकारों ने सदियों से मूर्ख ओर अपढ़ बनाकर अंगरेज सरकार की सेवा के लिए रिजर्व रखा है …’
1950 में

के खिलाफ हुए विद्रोहों ओर क्रांतिकारी आंदोलनों के फलस्वरूप 1951 में नेपाल में पहली बार लोकतंत्र का जन्म हुआ। इस आंदोलन में रेणु कोइराला परिवार के साथ सदस्य के तौर पर ही नहीं बंदूक ओर कलम के साथ पूरे वक़्त मौजूद थे।
इस आंदोलन में शामिल होकर रेणु ने लेख, रिपोर्ट, गीत ओर पर्चे ही नहीं लिखे, बल्कि स्वतंत्र प्रजातंत्र रेडियो की स्थापना भी करवाई। ‘हिल रहा हिमालय’ जैसी धारावाहिक रिपोर्ट लिखकर इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की। बाद में 1971 में यह ‘नेपाली क्रांतिकथा’ धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुई। यही रिपोर्ट पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित हुई थी।
दरअसल , ‘नेपाली क्रांतिकथा’ रिपोर्ट नेपाल के 1951 के विद्रोह का एक जीता जागता, बतियाता, पल -पल का आंखों देखा विवरण देता, कमजोरियों-उत्साह-लड़ाई-प्लानिंग का एक रोमांचक दस्तावेज है। पत्रकारिता और साहित्य के लिए मिसाल है। आज के पत्रकारों को जो नेपाल में माइक लिए बेसिर पैर की बातें कर रहे हैं, उन्हें रेणु को पढ़े बिना मैदान में उतरना ही नहीं चाहिए।
नेपाली जनता के सशस्त्र संग्राम में शामिल रेणुजी का ‘लाइव’ देखिये -” तराई के घने अन्धकार में -पेड़ की फुनगियों पर कैसी लाली छा रही है ? लाली बढ़ती ही जाती है …आग ?
आग ! आग लगी है आग ..!!
तुमुल कोलाहल – कलरव के बीच झापा ट्रेजरी धू -धू कर जल रही है, अब बैरक में भी आग लग गयी ? कैसे लगी आग ? आग, आग! दौड़ो- बुझाओ -बुझाओ !!
जय नेपाल !
जनता रुक गई। जनता समझ गई यह जनक्रांति की आग है। इसको बुझाने के बदले इसमें घी डालना ही जनता का पुनीत कर्त्तव्य है। भाइयों यह राणाशाही मेधयज्ञ है –आहुति डालो इसमें। सदियों से नेपाल की छाती पर बैठकर रक्त चूसने वाली राणा सरकार का नाश हो …।”
राणा सरकार से प्रभावित पत्रकार जब जानबूझकर ‘कोइराला ‘शब्द को बिगाड़ कर लिखते हैं ,पत्रवार्ता में इनके सवालों का सतर्कता से जवाब देते हैं रेणु …
” पत्रकारों के प्रश्न : – अधिकांश गोर्रिला दलपतियों के नाम के साथ कोइराला जुड़ा है…यह कोइराला क्या है ?कामरेड जैसा कोई शब्द ?………………..
रेणु बताते हैं उन्हें, नेपाल में अर्जुन वृक्ष को कोइराला कहते हैं। किसी उपाध्याय पंडित के दरवाजे पर या पिछवाड़े में कोई कोइराला का पेड़ रहा हो ओर वह कोइराला के रूप में प्रसिद्धि पा गए हों …लोहिया का उदाहरण देते हुए बताते हैं, उन्होंने लोहिया को कहते सुना उनके पूर्वजों में कोई लोहे का कारोबारी रहा होगा जिसके प्रताप से यह लोहिया उपाधि चल निकली ..”
रेणुजी नेपाली क्रांति कथा की रिपोर्ताज को समाप्त कर कहते हैं, ” शेष हुआ -विराटनगर का यह मृत्यु यज्ञ !
अपने प्राणों की आहुतियां डालकर जिन योद्धाओं ने इसे सफल ओर संपन्न किया -उनके नाम इतिहास के पृष्ठों में कभी नहीं लिखे जाएंगे। वे सदा अनाम रह जाएंगे। किन्तु मुक्त नेपाल में जब कभी ‘स्वाधीनता दिवस ‘ या ‘प्रजातंत्र दिवस ‘ का उत्सव होगा –आकाश -पाताल में उनकी मृत्यु वाणी गूंजती रहेगी –” जय नेपाल ! जय नेपाली प्रजातंत्र। ”
” 17 फरवरी , शनिवार , 1951
हो गया समझौता ! मोहन शमशेर प्रधानमंत्री होंगे ओर वी पी डिप्टी प्राइम मिनिस्टर ! बबर शमशेर [राणा पक्ष ] रक्षा मंत्री ओर सुवर्ण शमशेर [ने. का ]अर्थमंत्री ..”
..” लोग जो भी कहें मैं इसे असमाप्त क्रांति ही कहूंगा , असफल नहीं ..”
‘ …नेपाल मेरी सानो -आमां …नेपाल मेरी मौसी ,अम्मा , मेरा नमस्कार ग्रहण करो ..’
रेणुजी के न रहने पर नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वेश्वर प्रसाद कोइराला ने उनके लिए एक लम्बा लेख लिख कर कह था ..” …रेणु मेरा छोटा भाई था .उसकी क्रांतिकारी प्रवृत्ति ओर अन्याय तथा दमन का विरोध करने की उग्रता मेरे ही जैसी थी। उसके विचार मेरे अपने जैसे लगते थे ….वह स्वतंत्रता का प्रचंड योद्धा था।
नेपाल में हमारे संघर्ष में उसने हमसे कंधे से कंधा मिलाया। राणा शासन को अपदस्थ करने के हेतु नेपाली कांग्रेस ने 1950 में जो सशस्त्र क्रांति छेड़ी थी, उसमें रेणु भी शामिल हो गया ओर मुक्ति सेना की फौजी वर्दी में मेरे साथ बंदूक लेकर मोर्चे पर कूद पड़ा।
क्रांति के समय उसने नेपाली कांग्रेस के प्रचार -प्रकाशन तथा विराट नगर में स्थापित एक ‘ग़ैरक़ानूनी ‘ आकाशवाणी के संगठन महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ………… मेरे लिए रेणु मरा नहीं है, वह मेरे ह्रदय में जीवित है …. हम प्रजातंत्र के सारे नेपाली या भारतीय सिपाहियों के ह्रदय में जीवित है ……….रेणु जिंदा है अपनी ज़िंदादिली के लिए , अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए , तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष के लिए ….”
- अपूर्व गर्ग स्वतंत्र लेखक हैं
इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।
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