लेंस डेस्क। medical students case: पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स की लगातार 36 घंटे लंबी ड्यूटी का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। यूडीएफ की याचिका पर आज संबंधित पक्षों को नोटिस भेजने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मेडिकल स्टूडेंट्स को 33 साल बाद वर्ष 1992 के नियमों के अनुपालन की उम्मीद जगी है।
सरकारों को शिकायत रहती है कि न्यायपालिका उनके काम में दखल क्यों देती है, लेकिन अनगिनत मामले इस बात की गवाही देते हैं कि सरकारें अपने बुनियादी काम में पूर्णतया असफल हैं। केंद्र हो या राज्य सरकारें, विभिन्न मामलों में अदालत का चाबुक न चले, तो पूरा सिस्टम ही ठप हो सकता है।
ऐसा ही मामला पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स का है। सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के दशक के आरंभ में केंद्र सरकार को सेंट्रल रेजिडेंसी स्कीम बनाने का आदेश दिया था। इसके आलोक में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने वर्ष 1992 में सेंट्रल रेजिडेंसी स्कीम बनाई थी। इसके लिए एक डायरेक्टिव जारी की गई थी।
इसमें पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स के लिए सप्ताह में अधिकतम 48 घंटे ड्यूटी का प्रावधान किया गया था। एक बार में अधिकतम 12 घंटे लंबी ड्यूटी का नियम बनाया गया, लेकिन 33 साल में अब तक इसे सिर्फ कागजों पर लागू रखा गया। व्यवहार में फर्जी ड्यूटी रोस्टर बनाकर उनके वास्तविक कार्य घंटों के बदले बेहद कम घंटे दिखाए जाते हैं।
यूनाइटेड डॉक्टर्स फ्रंट ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दायर की है। अधिवक्ता सोनिया माथुर, सत्यम सिंह और नीमा के माध्यम से यह जनहित याचिका दायर की गई है। इसमें देश भर में रेजिडेंट डॉक्टरों का शोषण करते हुए असंवैधानिक तरीके से लंबी अवधि तक काम कराने को चुनौती दी गई है। याचिका (डायरी नंबर 211832/2025) में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की 1992 की डायरेक्टिव के अनुपालन का अनुरोध किया गया है।
नियम कागजों में
मेडिकल कॉलेजों में पीजी स्टूडेंट्स को रेजिडेंट डॉक्टर या जूनियर डॉक्टर कहा जाता है। लगातर 36 घंटे ड्यूटी के खिलाफ यूडीएफ के चेयरपर्सन डॉ. लक्ष्य मित्तल लंबे अरसे से लड़ रहे हैं। उनके अनुसार रेजिडेंट डॉक्टरों को नियमित रूप से बिना पर्याप्त आराम के प्रति सप्ताह 70-100 घंटे काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके कारण उनमें तनाव, शारीरिक थकावट और मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
इससे न केवल डॉक्टरों को खतरा होता है, बल्कि मरीजों की सुरक्षा भी खतरे में पड़ती है। डॉ मित्तल ने कहा कि देश भर के मेडिकल कॉलेजों में फर्जी ड्यूटी रोस्टर भरे जा रहे हैं। इनकी समुचित जांच हो जाए, तो बहुत सारे लोगों को जेल जाने की नौबत आ सकती है। अगर 36 घंटे ड्यूटी कराई जाती है, तो इसे रिकॉर्ड में क्यों नहीं लिया जाता? इसका मतलब साफ है कि यह गैरकानूनी है। एम्स में भी 1992 वाले नियम सिर्फ कागज पर लागू हैं। हकीकत में स्थिति काफी भयावह है।
पीआईएल के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के तीन दशक से अधिक समय पहले दिए गए स्पष्ट निर्देशों के बावजूद मेडिकल कॉलेजों में कार्य अवधि के नियमों का उल्लंघन किया जा रहा है। याचिका में चिकित्सा छात्रों की मानसिक स्वास्थ्य और तंदुरुस्ती पर एनएमसी के नेशनल टास्क फोर्स की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है। इसमें पांच वर्षों में 150 से अधिक चिकित्सा छात्रों की आत्महत्या के मामले सामने आए हैं, जिनमें से अधिकांश काम से संबंधित तनाव और नींद की कमी के कारण हुई हैं।
एडवोकेट सत्यम सिंह और नीमा (एओआर) ने अदालत से अनुरोध किया है कि सभी सरकारी और निजी चिकित्सा संस्थानों को ड्यूटी घंटों पर 1992 के निर्देश को लागू करने के लिए निर्देश जारी करें। साथ ही, संबंधित अधिकारियों को एक मनुष्य के बतौर स्टूडेंट्स की मनोवैज्ञानिक और शारीरिक सीमाओं का सम्मान करने वाले ड्यूटी रोस्टर लागू करने का अनुरोध किया गया है।
इसके अलावा, इन नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए प्रवर्तन तंत्र स्थापित करने की भी मांग की गई है। एडवोकेट सत्यम सिंह के अनुसार यह केवल श्रम अधिकारों के बारे में नहीं है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के मौलिक अधिकार के साथ गरिमा के साथ जीवन के अधिकार के बारे में भी है।
36 घंटे की ड्यूटी अमानवीय
यह पीआईएल अगस्त 2025 में कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के मद्देनजर दायर की गई है। उस मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने रेजिडेंट डॉक्टरों की लगातार 36 घंटे ड्यूटी को “अमानवीय” बताया था। अब इस मामले को आगामी सप्ताह में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किए जाने की संभावना है।
उल्लेखनीय है कि देश में मेडिकल शिक्षा की स्थिति भयावह है। वर्ष 2018 से 2022 के बीच 122 मेडिकल स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की। इनमें एमबीबीएस के 64 तथा पीजी के 58 स्टूडेंट शामिल थे। प्रतिवर्ष 24 आत्महत्या के मामले सामने आए थे। लेकिन 2025 के मात्र सात महीनों में लगभग 30 मामले सामने आ चुके हैं।
यानी इस वर्ष दोगुने से भी ज्यादा मामले हो चुके हैं। इसके अलावा, वर्ष 2018 से 2022 के बीच 1117 पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स ने पढ़ाई छोड़ दी। जबकि पीजी कोर्स में एडमिशन मुश्किल है। सीट छोड़ने के लिए दस से पचास लाख तक का जुर्माना भरना पड़ता है।
मानसिक यातना का दौर
पीजी स्टूडेंट्स की 24 से 36 घंटे की ड्यूटी के कारण मेडिकल कॉलेजों का वातावरण विषाक्त है। नेशनल मेडिकल कमीशन ने 2024 में एक नेशनल टास्क फोर्स बनाया था। उसकी रिपोर्ट के अनुसार 31.2 प्रतिशत पीजी मेडिकल स्टूडेंट्स में आत्महत्या का विचार आ चुका है। 10.6 प्रतिशत ने आत्महत्या की योजना तक बना ली। इनमें 2.4 प्रतिशत ने आत्महत्या का प्रयास तक किया। 15.3 प्रतिशत स्टूडेंट्स ने मानसिक पीड़ा से गुजरने की बात बताई।
लंबी ड्यूटी के कारण मेडिकल कॉलेजों में पीजी स्टूडेंट्स के साथ ही इंटर्नशिप करने वाले एमबीबीएस स्टूडेंट्स पर भी बुरा असर पड़ता है। यूजी इंटर्न और पीजी दोनों तरह के स्टूडेंट्स को व्यावहारिक कार्यों के साथ कई तरह की पढ़ाई और शोध कार्य भी करने पड़ते हैं। लंबी ड्यूटी के कारण उनकी आवश्यक नींद तक पूरी नहीं हो पाती है। ऐसे में एकेडमिक कार्य ज्यादा मुश्किल होते हैं।
धर्म और नफरत की चाशनी में डूबी राजनीति के इस दौर में बुनियादी मसलों पर बात करने लायक माहौल नहीं बचा है। मीडिया का बड़ा हिस्सा भी अमृतकाल के आनंद में मगन है। ऐसे में समाज के हर तबके को अदालतों का सहारा लेने की नौबत आ रही है। मेडिकल स्टूडेंट्स को भी अदालत का ही सहारा है।