सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के पर रोक लगाने से इनकार कर एक तरह से केंद्रीय चुनाव आयोग की स्वायत्तता की ही पुष्टि की है। उल्लेखनीय यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई का इंतजार किए बिना ही चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण का पहला चरण पूरा कर लिया। दरअसल याचिकाकर्ताओं ने एसआईआर पर रोक लगाने की मांग नहीं की थी, बल्कि उन्होंने चुनाव आयोग की पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाया था, जिसे लेकर अंदेशा है कि यह मतदाता सूची संशोधन के बहाने नागरिकता का परीक्षण भी है। जिस तरह से बीएलओ और वालिंटियर के जरिये इस प्रक्रिया को अंजाम दिया गया है, उसे लेकर शुरू से सवाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पिछली सुनवाई के दौरान ही चुनाव आयोग को सुझाव दिया था कि वह अपने खुद के द्वारा जारी मतदाता पहचान पत्र, आधार प्रमाण पत्र और राशन कार्ड को भी मान्यता दे, लेकिन चुनाव आयोग ने इससे इनकार कर दिया था। हैरानी की बात है कि इन सरकारी दस्तावेजों को लेकर चुनाव आयोग ने अपने जवाब में कहा कि इनमें जालसाजी का खतरा है। सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही सवाल किया है कि चुनाव आयोग ने जिन 11 डाक्यूमेंट की सूची दी है, उनमें भी जालसाली किए जाने का उतना ही खतरा है। दरअसल, सरकारी दस्तावेजों में किसी भी तरह की जालसाजी पूरे तंत्र की नाकामी है, और इसकी सजा निर्दोष नागरिकों को नहीं दी जा सकती। यह पूछा जाना चाहिए कि जिस आधार कार्ड को हर स्तर पर लागू करने के लिए सरकार ने सारा जोर लगा दिया और जिसे हर तरह के सरकारी कामकाज में पहचान के रूप में स्वीकार किए जाने पर जोर रहा है, वह अवैध कैसे हो सकता है? जिस राशन कार्ड के दम पर देश के 83 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देकर सरकार अपनी पींठ ठोक सकती है, तो क्या ये सब इस देश के नागरिक नहीं हैं? और यह भी पूछा जा सकता है कि केंद्रीय चुनाव आयोग जिस मतदाता पहचान पत्र को खुद जारी करता है, वह अचानक अवैध कैसे हो गया? क्या अपनी साख पहले ही खो चुका चुनाव आयोग देश की सर्वोच्च अदालत की सुनेगा?

