
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसे तो हर साल आपातकाल की सालगिरह यानी 25/26 जून को कोई न कोई कहानी सुनाते हैं, जिसमें वे बताते हैं कि लोकतंत्र के उस काले कालखंड में उन्होंने किस तरह भूमिगत रह कर लोकतंत्र को बचाने का संघर्ष किया था। इसके अलावा भी मोदी अपने प्रधानमंत्री बनने से पहले के दौर से जुड़ी दूसरी कहानियां भी आए दिन देश के सामने पेश करते रहते हैं। उनकी इन कहानियों में तथ्य अक्सर विरोधाभासी होते हैं, जिससे वे काफी मनोरंजक हो जाती हैं। आपातकाल संबंधी उनकी कहानियां भी उनकी डिग्रियों जैसी हैं, जिन पर सवाल उठते रहते हैं। हालांकि मोदी इन सब बातों की परवाह नहीं करते और मीडिया भी पूरे भक्तिभाव से उनकी कहानियां अपने दर्शकों व पाठकों को परोस देता है।
इस सिलसिले में 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मोदी की बायोपिक भी प्रदर्शित हुई थी जो कि फ्लॉप रही थी। ‘पीएम नरेंद्र मोदी’ के नाम से बनी उस बायोपिक में भी उन्हें ‘आपातकाल के भूमिगत महानायक’ के तौर पर पेश करने की फूहड़ और हास्यास्पद कोशिश की गई थी। इसके बावजूद उन्हें आपातकाल का भूमिगत आंदोलनकारी बताने का अभियान थमा नहीं है। आपातकाल के पांच दशक पूरे होने पर ‘ब्लूक्राफ्ट डिजिटल फाउंडेशन’ नामक प्रकाशन से ‘द इमरजेंसी डायरीज’ नामक एक किताब प्रकाशित हुई है, जिसमें मोदी की ‘आपातकालीन भूमिका’ के कई काल्पनिक किस्से पेश किए गए हैं।
इस किताब की प्रस्तावना पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से लिखवाई गई है। देवगौड़ा ने भी मोदी को ‘आपातकाल का नायक’ बताते हुए उनकी भूमिका की तारीफ की है, जो कि कर्नाटक की राजनीति में उनकी पार्टी और भाजपा के बीच बने समीकरणों के लिहाज से स्वाभाविक ही है। हालांकि हकीकत यह है कि आपातकाल के समय देवगौड़ा से मोदी का दूर-दूर तक कोई परिचय नहीं था। परिचय न होने की वजह यह थी कि मोदी की उस समय के राजनीतिक जीवन की शुरुआत भी नहीं हुई थी या यूं कहें कि उन्होंने उस समय आरएसएस के राजनीतिक जच्चाखाने में अपनी आंखें भी ठीक से नहीं खोली थीं, जबकि देवगौड़ा कर्नाटक विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे और आपातकाल की पूरी अवधि तक जेल में बंद रहे थे।
किताब में मोदी को यह दावा करते हुए पेश किया गया गया है कि आपातकाल के दौरान उन्होंने भूमिगत रह कर आपातकाल विरोधी संघर्ष में भागीदारी की थी। किताब में उनकी ‘बहादुरी’ के ‘मनोहर कहानियां’ टाइप कई किस्से हैं, जो गुजरात के ही कुछ लोगों से कहलवाए गए हैं। सवाल है कि मोदी को ये कहानियां अभी ही क्यों याद आई, जबकि आपातकाल तो 50 साल पुरानी परिघटना है? दरअसल पिछले दो महीने के दौरान अंतराष्ट्रीय स्तर पर मटियामेट हो चुकी अपनी छवि पर जारी विमर्श को बदलने की कोशिश के तहत उन्होंने यह काल्पनिक किस्से जारी करवाए हैं।
आपातकाल के बाद से अब तक देश में आठ ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए हैं, जिनमें से मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित तीन के अलावा शेष सभी आपातकाल के दौरान जेल में रहे थे (जेल में रहने वालों में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम भी शामिल है, हालांकि उन्हें शुरू के कुछ ही दिन जेल में रहना पड़ा था। बाक़ी समय उन्होंने पैरोल पर रहते हुए बिताया था)। लेकिन उन सभी प्रधानमंत्रियों में से किसी ने कभी भी आपातकाल को इतना ज्यादा और इतने कर्कश तरीक़े से याद नहीं किया, जितना कि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी करते हैं।
राजनीतिक विमर्श में आपातकाल मोदी का प्रिय विषय रहता है। इसलिए वे कांग्रेस पर निशाना साधने के लिए आपातकाल को हर साल सिर्फ़ 25-26 जून को ही नहीं, बल्कि अक्सर याद करते रहते हैं। यह और बात है कि मोदी आपातकाल के दौरान एक दिन के लिए भी जेल तो दूर, पुलिस थाने तक भी नहीं ले जाए गए थे।
दरअसल जून 1975 में जब आपातकाल लागू हुआ था तब नरेंद्र मोदी महज 25 साल के नौजवान थे और आरएसएस के एक सामान्य स्वयंसेवक हुआ करते थे। चूंकि उस वक्त मोदी की कोई राजनीतिक पहचान नहीं थी, इसलिए उनके भूमिगत हो जाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वैसे भी मोदी भाजपा के उन नेताओं में से हैं जो अपने जीवन में किसी आंदोलन के दौरान न तो गिरफ्तार हुए और न ही उन्होंने किसी तरह की पुलिस प्रताड़ना झेली है।
आपातकाल लागू होने से पहले गुजरात में छात्रों के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार से शुरू हुए जेपी आंदोलन के संदर्भ में भी शरद यादव, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, शिवानंद तिवारी, नीतीश कुमार, अरुण जेटली, राजकुमार जैन, मुख्तार अनीस, मोहन प्रकाश, चंचल, मोहन सिंह, अख्तर हुसैन, सुशील मोदी, रामबहादुर राय, लालमुनि चौबे, गुजरात के ही प्रकाश ब्रह्मभट्ट, हरिन पाठक, नलिन भट्ट आदि नेताओं के नाम चर्चा में आते हैं, लेकिन इनमें इन नेताओं के हमउम्र रहे मोदी का नाम कहीं नहीं आता। कहा जा सकता है कि मोदी संघ और जनसंघ के सामान्य कार्यकर्ता के रूप में आपातकाल के एक सामान्य दर्शक ही थे।
मोदी भले ही यह दावा करें कि वे आपातकाल के दौरान भूमिगत रह कर काम कर रहे थे, लेकिन इस दावे की पुष्टि के लिए कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। वैसे भी जब आपातकाल लगा था तब गुजरात में कांग्रेस विरोधी जनता मोर्चा की सरकार थी, जिसके मुख्यमंत्री बाबूभाई पटेल थे। इस वजह से गुजरात में विपक्षी कार्यकर्ताओं की वैसी गिरफ्तारियां नहीं हुई थीं, जैसी देश के अन्य राज्यों में हुई थीं। इसी वजह से आपातकाल के खिलाफ भूमिगत संघर्ष में जुटे कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने गुजरात में शरण ली थी। मोरारजी देसाई, अशोक मेहता और पीलू मोदी जैसे गुजरात के वे ही दिग्गज नेता गिरफ्तार किए गए थे, जो गुजरात से बाहर दिल्ली में रहते थे।
आपातकाल के दौरान गुजरात में विपक्षी कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का दौर तभी शुरू हुआ था जब मार्च 1976 में बाबूभाई पटेल की सरकार बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। राज्य में विपक्षी दलों के कई नेता और कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए थे। जो लोग भूमिगत होने की वजह से गिरफ्तार नहीं किए जा सके थे उनके वारंट जारी हुए थे और उनमें से कई लोगों के परिवारजनों को पुलिस प्रताड़ना शिकार होना पड़ा था। लेकिन गुजरात के पुलिस, जेल और खुफिया विभाग के आपातकाल से संबंधित तत्कालीन सरकारी अभिलेखों में मोदी की फरारी का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कथित तौर पर भूमिगत हुए मोदी के परिवारजनों को पुलिस ने किसी तरह से परेशान किया हो। मोदी खुद भी ऐसा दावा नहीं करते हैं। मोदी अगर भूमिगत रहे होते तो उनकी गिरफ्तारी के लिए वारंट भी जारी हुआ होता, लेकिन उनका तो वारंट भी कहीं रिकॉर्ड पर नहीं हैं।
आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडीज, कर्पूरी ठाकुर जैसे दिग्गजों के अलावा समाजवादी नेता लाडली मोहन निगम और द हिंदू अखबार के तत्कालीन प्रबंध संपादक सीजीके रेड्डी जैसे कम मशहूर लोगों की भूमिगत गतिविधियां भी जगजाहिर हो चुकी हैं, लेकिन आरएसएस या जनसंघ के नेताओं के भूमिगत होकर काम करने के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं। दरअसल इसकी वजह यह है कि आरएसएस के तत्कालीन सर संघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बाला साहब देवरस ने अपनी गिरफ्तारी के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को तीन पत्र लिख कर आरएसएस पर से प्रतिबंध हटाने की गुजारिश करते हुए इसके बदले में उनके 20 सूत्रीय और संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने की पेशकश की थी।
देवरस ने उन पत्रों में इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनका चुनाव वैध ठहराने के लिए बधाई देने के साथ ही स्पष्ट किया था कि संघ का गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और जेपी के बिहार आंदोलन से कोई संबंध नहीं रहा है। जब इंदिरा गांधी से अपने पत्रों का जवाब नहीं मिला तो देवरस ने आचार्य विनोबा भावे को भी दो पत्र लिख कर संघ पर से प्रतिबंध हटाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने का अनुरोध किया था। इसी सिलसिले में उन्होंने एक पत्र महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकर राव चह्वाण को भी लिखा था। इन पत्रों को देवरस ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति’ में परिशिष्ट के तौर पर शामिल किया हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन जागृति प्रकाशन, नोएडा ने किया है।
इस प्रकार संगठन के स्तर पर आपातकाल का समर्थन करने और सरकार को सहयोग देने की देवरस की औपचारिक पेशकश जब बेअसर साबित हुई तो आरएसएस के जो कार्यकर्ता गिरफ्तार कर लिए गए थे, उन्होंने व्यक्तिगत तौर पर माफीनामे देकर जेल से छूटने का रास्ता अपनाया। जेल से बाहर आने की छटपटाहट सिर्फ सिर्फ संघ के कार्यकर्ताओं में ही नहीं थी बल्कि जनसंघ के कई नेता भी जेल से बाहर आने के लिए कसमसा रहे थे। कई ऐसे भी थे जिन्होंने गिरफ्तारी से बचने और अपनी पहचान छुपाने के लिए अपने घरों पर लगी हेडगेवार, गोलवलकर, सावरकर आदि की तस्वीरें हटा कर उनके स्थान पर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की तस्वीरें लगा दी थीं। लेकिन इन सब बातों पर मोदी कभी कुछ नहीं बोलते हैं।
दरअसल एक राजनीतिक कार्यकर्ता होते हुए भी आपातकाल से अछूते रहे मोदी अगर मौके-बेमौके आपातकाल को याद करते हुए कांग्रेस को कोसते हैं तो इसकी वजह उनका अपना ‘आपातकालीन’ अपराध बोध ही हो सकता है कि वे आपातकाल के दौर में कोई सक्रिय भूमिका निभाते हुए जेल क्यों नहीं जा सके! बार-बार आपातकाल की ज्यादतियों का जिक्र करना प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी नाकामियों को छुपाने की उनकी कोशिश के रुप में भी देखा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि मोदी कांग्रेस को कोसने के लिए गाहे-बगाहे आपातकाल का जिक्र कर अपने उन कार्यों पर पर्दा डालना चाहते हैं, जिनकी तुलना इंदिरा सरकार के आपातकालीन कारनामों से की जाती है। मसलन संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग, सूचना आयोग, रिजर्व बैंक जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता के साथ ही मीडिया की आजादी अपहरण और केंद्रीय एजेंसियों का विपक्षी नेताओं के खिलाफ दुरुपयोग।
प्रधानमंत्री मोदी के अलावा गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित भाजपा के कई नेताओं ने भी आपातकाल के पांच दशक पूरे होने पर लोगों को आपातकाल की याद दिलाते हुए कहा है कि आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का काला अध्याय है और इसे हमेशा याद रखा जाना चाहिए। निस्संदेह आपातकाल हमारे लोकतांत्रिक इतिहास का ऐसा काला अध्याय है जिसे कोई मोदी, कोई शाह या कोई नड्डा याद दिलाए या न दिलाए, देश के लोगों के जेहन में हमेशा बना रहेगा।
सवाल है कि क्या आपातकाल को दोहराने का खतरा अभी भी बना हुआ नहीं है या किसी नए आवरण में आपातकाल आ चुका है और भारतीय जनमानस उस खतरे के प्रति सचेत नहीं है? यह जरूरू नहीं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है और काफी हद तक हो भी रहा है, जिस पर पर्दा डालने के प्रधानमंत्री मोदी जब-तब दशकों पीछे लौटकर ‘कांग्रेस के आपातकाल’ को उठा लाते हैं।