छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में स्थित दल्ली-राजहरा खदान क्षेत्र में काम करने आए झारखंड के दो मजदूरों की ट्रेन से कटकर हुई मौत बेहद दर्दनाक और शर्म से सिर झुका देने वाली घटना है। ये मजदूर अपने साथियों के साथ दल्ली-राजहरा से कुसुमकसा की ओर पटरियों के सहारे पैदल चले जा रहे थे और थक कर पटरियों पर सो गए थे। कुछ घंटे बाद एक तेज रफ्तार ट्रेन ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। इस घटना ने देश में लगातार हाशिये पर जा रहे मजदूरों के दर्द को एक बार फिर सामने ला दिया है। इस सामूहिक स्मृतिलोप वाले दौर में याद किया जा सकता है कि पांच साल पहले कोरोना काल में मनमाने ढंग से लाागू किए गए लॉकडाउन के दौरान आठ मई को महाराष्ट्र के सतारा में इसी तरह पटरियों पर सो रहे 16 मजदूर एक तेज रफ्तार ट्रेन से कटकर मारे गए थे। ये मजदूर काम छिन जाने के कारण रेल पटरी के सहारे अपने गांव की ओर लौट रहे थे, क्योंकि तब उनके पास घर लौटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। पता चला है कि दल्ली-राजहरा में काम की उम्मीद में आए मजदूर भी ठेकेदार की मनमानी से क्षुब्ध होकर घर लौट रहे थे। सारे देश में मजदूरों की तकरीबन ऐसी ही हालत है। यह घटना राजधानी दिल्ली से सुदूर दल्ली-राजहरा में मंगलवार तड़के उस दिन हुई, जब मोदी सरकार अपने 11 वें साल का जश्न मना रही थी। वहीं आर्थिक विकास के तमाम दावों के बीच सबसे अधिक कीमत तो मजदूर ही चुका रहे हैं। वास्तव में पटरियों पर हुई मजदूरों की इन मौतों को व्यवस्था के हाथों हुई गैर इरादतन हत्या क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
उन्हें मौत नहीं, नींद चाहिए थी!

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