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लेंस संपादकीय

एसआईआरः यह जल्दबाजी लोकतंत्र के हक में नहीं

Editorial Board
Editorial Board
Published: November 24, 2025 7:57 PM
Last updated: November 24, 2025 7:57 PM
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बिहार के बाद नौ राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में हो रहे मतदाता सूची के पुनरीक्षण (एसआईआर) के दौरान कथित तौर पर काम के दबाव की वजह से कुछ बीएलओ के आत्महत्या कर लेने की खबर इस पूरी प्रक्रिया पर एक बड़ा सवालिया निशान है।

बिहार में एसआईआर के दौरान ही देखा गया था कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने इसे किस तरह से अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। बिहार के चुनाव के बीच ही एसआईआर के नए दौर का ऐलान कर दिया गया था, जबकि कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियां और तृणमूल कांग्रेस जैसे विपक्षी दल इस प्रक्रिया को लेकर असहमति जता चुके हैं।

गौर किया जाना चाहिए कि जिन राज्यों में एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है, उनमें से पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और इन दोनों राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं। जैसा कि बिहार चुनाव के दौरान देखा गया था, चुनाव आयोग के हर कदम का भाजपा समर्थन करती आ रही है और अक्सर विपक्ष के आरोपों पर चुनाव आयोग के बचाव में खड़ी हो जाती है।

इस कवायद के बीच चुनाव आयोग ने सारे राजनीतिक दलों को भरोसे में लेने की कोशिश तक नहीं की है, जबकि वह एक संवैधानिक संस्था है और देश की लोकतांत्रिक बुनियाद को मजबूत बनाए रखने की उस पर जिम्मेदारी है, और इस महान संस्था की परंपरा भी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार को चिट्ठी लिख कर इस प्रक्रिया को टालने की मांग की है, तो केरल सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को नोटिस भेजा है।

मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयोग भले ही अपनी पीठ ठोंक लें, लेकिन लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने मतदाता सूची की गंभीर खामियों और गड़बड़ियों को सामने रखा है, उसके जवाब अभी नहीं मिले हैं।

यदि चुनाव आयोग की नीयत साफ है, तो उसे इस पूरी प्रक्रिया को लेकर थोड़ी उदारता बरतने में क्या अड़चन है? इस जिद का क्या मतलब है, जिसे लेकर गंभीर सवाल खड़े हैं। मसलन, पश्चिम बंगाल के नाडिया जिले में आत्महत्या करने वाली 52 वर्षीय बीएलओ के बारे में पता चला है कि वह एक पैरा शिक्षक थीं और ऑनलाइन काम को लेकर वह सहज नहीं थीं, क्योंकि यह उनके काम का हिस्सा नहीं था। करोड़ों मतदाताओं के लोकतांत्रिक अधिकार से जुड़ी यह कवायद क्या निचले स्तर पर पर्याप्त प्रशिक्षण के शुरू की गई है?

उत्तर प्रदेश में कुछ जगहों पर बीएलओ ने काम के दबाव में काम करने से इनकार किया है, तो नोएडा के डीएम ने कुछ बीएलओ को निलंबित कर दिया है। आखिर ऐसी हड़बड़ी की क्या जरूरत है?

बात सिर्फ बीएलओ की नहीं, बल्कि ऐसे मतदाताओं की भी है, जिनके पास 2002 की मतदाता सूची के रिकॉर्ड मौजूद नहीं हैं। कहने की जरूरत नहीं, इसका सर्वाधिक खामियाजा वंचित तबके और प्रवासी मजदूरों पर पड़ेगा।

मतदाता सूची के समयबद्ध पुनरीक्षण से इनकार नहीं किया जा सकता। अच्छा होता कि केंद्रीय चुनाव आयोग सर्वदलीय बैठक बुलाकर इस पूरी कवायद पर फिर से विचार करता और सबकी सर्वसम्मति से इसे आगे बढ़ाया जाता। आखिर इससे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की साख जुड़ी हुई है।

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