कभी अपनी विविधता, बहस और असहमति को सम्मान देने वाली कांग्रेस पार्टी आज पहले जैसी उदार नहीं दिखती। यह वही पार्टी है, जहां मणिशंकर अय्यर का प्रधानमंत्री मोदी को लेकर विपरीत टिप्पणी करना भी संगठनात्मक कठोरता का कारण नहीं बना। यही पार्टी शशि थरूर जैसे नेताओं के साथ खड़ी रही, जिन्होंने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर केंद्र सरकार का खुलकर समर्थन किया।
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह लगातार केंद्र की मोदी सरकार की UAPA कार्रवाइयों पर सवाल उठाते रहे, फिर भी कांग्रेस ने उन्हें कभी अचानक कठोर अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना नहीं करवाया। तेलंगाना की कुख्यात नक्सली रह चुकीं दानासारी सिथिक्का को कांग्रेस ने मुख्यधारा में लाया और आज वे कैबिनेट मंत्री हैं।
लेकिन इसी कांग्रेस पार्टी ने अपनी उभरती हुई युवक़ कांग्रेस नेता प्रीति मांझी को 24 घंटे के अंदर सिर्फ इसलिए पद से हटा दिया, क्योंकि उन्होंने अपने फेसबुक हैंडल में स्टोरी फोटो डालते हुए लिखा था “लाल सलाम कॉमरेड हिडमा “!
इतिहास बताता है कि कांग्रेस में वैचारिक विविधता को हमेशा जगह मिली। कांग्रेस की पहचान ही यह रही है कि एक ही पार्टी में अलग-अलग विचारधाराओं वाले नेता साथ रहते थे। नेहरू यूरोपीय समाजवाद से प्रभावित थे; उनका झुकाव लोकतांत्रिक समाजवाद और अंतरराष्ट्रीयतावाद की ओर था।
नेहरू के समय भारत की चीन और रूस से घनिष्ठ मित्रता ने भी कांग्रेस की वैचारिक उदारता की छवि को मजबूत किया। दूसरी ओर, भगत सिंह से मतभेदों के बावजूद गांधी ने कभी उन्हें ‘हिंसक अपराधी’ नहीं कहा। अहिंसा के अपने दर्शन पर दृढ़ रहते हुए भी गांधी ने क्रांतिकारियों की त्याग और भावना को स्वीकार किया।
कांग्रेस में तिलक, लाल-बाल-पाल जैसे उग्र राष्ट्रवादी भी थे; लाजपत राय और लाला हरदयाल जैसे नेता भी। मदन मोहन मालवीय और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे हिंदुत्व विचारधारा वाले नेता भी कांग्रेस में रहे।
आज भी मीडिया और बीजेपी द्वारा “टुकड़े-टुकड़े गैंग” कहे जाने वाले कन्हैया कुमार कांग्रेस में ही हैं। और इतिहास गवाह है कि सुभाष चंद्र बोस, अपने उग्र विचारों के बावजूद, गांधी के प्रिय और सम्मानित थे।
यानी कांग्रेस हमेशा से अलग-अलग विचारों का एक बड़ा घर रही है। यही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी।
लेकिन क्या यह ताकत अब कमजोर पड़ रही है?
प्रीति मांझी प्रकरण में इतनी सख्ती क्यों?
इन्हीं ऐतिहासिक उदाहरणों के बीच पेंड्रा आदिवासी अंचल की युवा कांग्रेस नेता प्रीति मांझी पर अचानक हुई कड़ी कार्रवाई कई सवाल उठाती है।
विवाद तब शुरू हुआ, जब प्रीति मांझी के फेसबुक से एक AI जनरेटेड स्टोरी फोटो पोस्ट हो गया—
“लाल सलाम कॉमरेड हिडमा।”
जिसे विवाद बढ़ते ही तुरंत हटा दिया गया।
उन्होंने साफ कहा कि—
यह पोस्ट भावनाओं में भूलवश हो गया,
लगातार हो रही आदिवासी मौतों से मन भारी था।
हिड़मा की मौत पर उठ रहे सवाल
माओवादी नेता माड़वी हिड़मा की मौत पर बस्तर में भी कई सवाल उठे हैं। सोनी सोरी, मनीष कुंजाम और स्वयं हिड़मा के परिजन पुलिस व सरकार के दावों पर गंभीर प्रश्न उठा रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में बस्तरिया समाज में आक्रोश और शोक दोनों मौजूद हैं।
कांग्रेस एक विपक्षी दल है। उसे सरकार के दावों की सचाई और संवेदनशीलता दोनों पर नज़र रखनी चाहिए, क्योंकि कितनी भी रणनीति हो, सबसे ज्यादा दर्द आज भी आम आदिवासी ही झेलता है।
क्या प्रीति मांझी की गलती इतनी बड़ी थी?
राजनीतिक रूप से यह पोस्ट असावधान में हो सकती है, पर इतनी बड़ी भी नहीं कि— बिना सुनवाई, बिना कारण पूछे, सीधे कार्रवाई कर दी जाए।
क्योंकि यह वही कांग्रेस है, जो हमेशा कहती है— “हम असहमति का स्वागत करते हैं।”
“हम संवाद में विश्वास रखते हैं।”
“हम गांधीवादी सिद्धांतों पर चलते हैं।”
फिर इतनी जल्दी और इतनी कठोरता क्यों?
क्या कांग्रेस किसी दबाव में है?
प्रीति मांझी पर जिस तेजी से कार्रवाई हुई, और उन्हें पद से हटाया गया
वह संकेत देता है कि पार्टी किसी न किसी दबाव में दिखाई देती है।
जब बड़े नेताओं को बड़े विवादों में भी केवल चेतावनी देकर छोड़ा जाता था,और एक युवा महिला नेता को तुरंत दंड दे दिया जाए—
तो यह पार्टी की घटती वैचारिक सहिष्णुता का संकेत है।
क्या यह उभरती हुई युवा नेता का भविष्य रोकने जैसा कदम है?
इस घटना का सबसे दुखद पहलू यह है कि यह फैसला एक ऐसी प्रतिभाशाली युवानेता के राजनीतिक भविष्य पर अनावश्यक चोट जैसा है,जिसे केवल समझाइश और संवाद से सुलझाया जा सकता था।
वरिष्ठ नेता सहजता से इतना कह सकते थे “हम किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन नहीं करते। हम गांधीवाद में आस्था रखते हैं।”
बस, इतना काफी था। लेकिन दंडात्मक निर्णय ने कांग्रेस की बदलती प्रवृत्ति पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
प्रीति मांझी प्रकरण केवल एक व्यक्ति पर कार्रवाई का मामला नहीं है। यह उस पार्टी में घटती वैचारिक उदारता का संकेत है, जिसने कभी तिलक से लेकर नेहरू तक, गांधी से लेकर सुभाष तक, थेओसोफिस्ट से लेकर हिंदुत्व विचारधारा वाले नेताओं तक सभी को एक मंच दिया था।
आज जो माहौल दिख रहा है, वह कांग्रेस की ऐतिहासिक आत्मा से बिल्कुल अलग है।
कौन हैं प्रीति मांझी?
प्रीति मांझी इंडियन यूथ कांग्रेस की सह-सचिव थीं। उन्हें झारखंड का सह-प्रभारी बनाया गया था। वे इंदिरा फ़ेलोशिप के लिए चयनित हुई थीं और जल्द ही राहुल गांधी की टीम में शामिल हो गईं। वर्तमान में यूथ कांग्रेस में ऐसे लोग बेहद कम रह गए हैं जो आदिवासी अधिकार और कथित नक्सली एनकाउंटर जैसे मुद्दों पर मुखर हों।
राजनीतिक असुरक्षा हो या बीजेपी के उग्र राष्ट्रवाद का दबाव उभरते यूथ कांग्रेस नेता इन मुद्दों से बचते नजर आते हैं।
इसके मुकाबले प्रीति मांझी ने अपनी अलग पहचान बनाई है। दरअसल, प्रीति मांझी कांग्रेस में अपने उसी वैचारिक तेवर के साथ मौजूद थीं, जो राहुल गांधी की पहचान है। जिस तरह की लड़ाई राहुल गांधी लड़ रहे हैं, उसी विचारधारा और तेवर को प्रीति मांझी भी आगे बढ़ा रही थीं। आज हकीकत यह है कि कांग्रेस पार्टी का एक बड़ा धड़ा राहुल गांधी के वैचारिक तेवर से खुद को अलग रखता है। ऐसे में वह समूह प्रीति मांझी को कैसे स्वीकार करेगा?
- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
- इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं और जरूरी नहीं कि वे Thelens.in के संपादकीय नजरिए से मेल खाते हों।

