मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने हाल ही में भोपाल में सरपंच संयुक्त मोर्चा सम्मेलन को संबोधित करते हुए पंचायत सचिवों के लिए बेहद आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया है, जिसे किसी भी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता।
ऐसे शब्दों के इस्तेमाल के बिना भी कठोर शब्दों में कड़े प्रशासनिक निर्देश दिए जा सकते हैं, लेकिन मोहन यादव ने भरे सम्मेलन में लगभग धमकाने वाले अंदाज में कहा, ‘अगर सचिव काम नहीं करेगा… तो हटा देंगे…सा…को। इनकी औकात क्या, दिक्कत आएगी तो ठीक कर देंगे।‘
कहने की जरूरत नहीं कि यह जनता के चुने हुए प्रतिनिधि की नहीं, बल्कि सत्ता के अहंकार की भाषा है। हमारे संविधान और लोकतंत्र ने सबको बराबरी का हक दिया है और जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से तो और अधिक संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है।
हालांकि यह भी सच है कि इस तरह की भाषा और धमकाने वाला अंदाज दिखाने वाले मोहन यादव कोई पहले मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं हैं। जबकि किसी भी सरकार के सुचारू रूप से काम करने में नौकरशाही, जिसमें हर तरह के कर्मचारी शामिल हैं, और चुने हुए प्रतिनिधियों तथा मंत्रियों की अहम भी भूमिका होती है।
फिर यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीतिक दलों को सत्ता तक पहुंचाने में सरकारी कर्मचारियों की भी अहम भूमिका होती है। मोहन यादव जिस मध्य प्रदेश के मुखिया हैं, वहां का तो सरकारी कर्मचारियों की नाराजगी से सत्ता बदल जाने का इतिहास भी है।
दरअसल यह दिखा रहा है कि कैसे चुनी हुई सरकारें आम जनता और सरकारी कर्मचारियों के साथ माई-बाप जैसा व्यवहार करने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि एक मुख्यमंत्री अपने मातहत काम करने वाले सचिवों को औकात बताने की बात करते हैं।
शायद मोहन यादव भूल गए कि लोकतंत्र में सरकारों को जनता ‘औकात’ बताती है। हमारी लोकतंत्रिक व्यवस्था ने अपराजेय समझी जाने वाली शक्तियों को भी सत्ता से बेदखल किया है।

