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सरोकार

सरदार पटेल का अधूरा काम इंदिरा ने पूरा किया!

सुदीप ठाकुर
सुदीप ठाकुर
Published: October 31, 2025 3:25 PM
Last updated: October 31, 2025 3:36 PM
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Sardar Patel and Indira Gandhi
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आज 31 अक्टूबर की तारीख दो शख्सियतों को याद करने की तारीख है। 31 अक्टूबर, 1875 को जन्म लेने वाले देश के पहले उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार पटेल की आज 150 वीं जयंती है। दुर्भाग्य से 31 अक्टूबर, 1984 को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके अंगरक्षकों ने गोली मार दी थी।

यों तो लंबे समय से आरएसएस तथा जनसंघ और अब भाजपा सरदार पटेल की विरासत पर दावे करती आई हैं, बावजूद इसके कि यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था। संघ परिवार नेहरू के बरक्स सरदार पटेल को खड़ा करने की कोशिशें करता रहा है।

जाहिर है, ऐसे में इंदिरा गांधी को लेकर उनकी राय नेहरू को कलुषित करने की उनकी योजना से अलग नहीं रही है। ऐसे में सरदार पटेल औऱ इंदिरा दोनों को याद करने वाले और उनकी विरासत पर दावा करने वाले भिन्न हैं।

बावजूद इसके सरदार पटेल का एक ऐसा अधूरा काम था, जिसे आगे चलकर इंदिरा गांधी ने पूरा किया था। जब यह साफ दिखने लगा था कि अंग्रेज भारत छोड़ रहे हैं, उसी दौरान 24 मार्च, 1946 को लंदन से कैबिनेट मिशन भारत पहुंचा था, जिसे सत्ता हस्तांतरण की रूपरेखा तैयार करनी थी। इसी के बाद 2 सितंबर, 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरू की अगुआई में अंतरिम सरकार का गठन किया गया था और उसमें सरदार पटेल को गृह मंत्री बनाया गया था।

देश विभाजन के अंदेशे के बीच सरदार पटेल एक बेहद महत्वपूर्ण काम में जुट गए थे और यह काम था, देश की 563 रियासतों को भारत में विलीन करने का।

सरदार पटेल को रियासतों को भारत में विलीन करने के काम में बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। 12 अक्टूबर, 1949 को सरदार पटेल ने संविधान सभा में लंबा भाषण देकर बताया था कि रियासतों के एकीकरण का काम पूरा हो गया है। हालांकि रियासतों के विलय के एवज में राजाओं के लिए प्रिवी पर्स का कानूनी प्रावधान करना पड़ा था। इसके मुताबिक रियासतों को सालाना एकमुश्त राशि देना तय किया गया।

लेकिन बाद के वर्षों में प्रिवी पर्स का भारी विरोध शुरू हो गया और इसमें पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और समाजवादी नेता राजनारायण सबसे मुखर थे। तब चंद्रशेखर कांग्रेस में थे।

राजा महाराजाओं को दिए जाने वाले प्रिवी पर्स के फैसले में बेशक सरदार पटेल की सबसे अहम भूमिका थी। लेकिन इसके पीछे की उनकी मंशा कुछ और ही थी। दरअसल तब भी ऐसी आशंकाएं थीं कि राजा महाराजा अपनी रियासतें और संपत्ति खोने के बाद नई सरकार के लिए किसी तरह की समस्या पैदा कर सकते हैं।

31 जुलाई, 1967 को इंदिरा सरकार द्वारा प्रिवी पर्स को खत्म करने के लिए लाए गए विधेयक पर चर्चा के दौरान संसद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद भूपेश गुप्ता ने लंबा भाषण देकर न केवल  विपक्ष में रहते हुए इस विधेयक का समर्थन किया था, बल्कि यह भी याद दिलाया था कि आखिर खुद सरदार पटेल क्या चाहते थे।

भूपेश गुप्ता ने कहा, ‘सरदार पटेल मुखर थे और उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा था…इन शासकों (राजाओं) की नुकसान पहुंचाने और समस्या पैदा करने की क्षमता को देखते हुए हमें इस रक्तहीन क्रांति के लिए छोटी सी कीमत, मैंने जानबूझकर छोटी कहा, चुकानी चाहिए।‘

संघ परिवार का दावा करता है कि पंडित नेहरू की जगह सरदार पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो देश के हालात कुछ और होते। इस पर काफी बहस हो चुकी है। मैं यहां सिर्फ एक तथ्य दर्ज करना चाहता हूं कि देश में 1951-52 के दौरान हुए पहले आम चुनाव से पहले 15 दिसंबर, 1950 को सरदार पटेल का निधन हो गया था। जाहिर है, आजादी के बाद पटेल के पास कोई लंबा समय नहीं था। पॉलिटिकल नरैटिव चाहे जिस तरह से भी गढ़े जाएं, हकीकत तो यही है कि सरदार पटेल पूरी जिंदगी कांग्रेस से जुड़े रहे और नेहरू से तमाम विरोधों के बावजूद उनके साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े थे।

यह भी दर्ज किया ही जाना चाहिए कि पहले आम चुनाव में पंडित नेहरू ने अपनी बेटी को नहीं, बल्कि सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल को खेड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया था और वह चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंची थी। हालांकि बाद के वर्षों में सरदार पटेल के भाई और मणिबेन के भाई डायाभाई पटेल स्वतंत्र पार्टी से राज्यसभा पहुंचे थे।

दरअसल स्वतंत्र पार्टी के गठन में पूर्व राजा महाराजाओं की अहम भूमिका थी, जिसकी स्थापना नेहरू से वैचारिक मतभेद के चलते सी. राजगोपालाचारी ने की थी।

सरदार पटेल और नेहरू दोनों ही कांग्रेस में थे और निर्वाचित सदन में दोनों को एक साथ बैठने का मौका नहीं मिला। लेकिन सरदार पटेल के बेटे डायाभाई पटेल और नेहरू की बेटी इंदिरा जरूर संसद के भीतर आमने-सामने थे। यह मौका था राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रिवी पर्स की समाप्ति के लिए इंदिरा गांधी द्वारा लाए गए विधेयक पर चर्चा का।

जैसा कि ऊपर जिक्र आया है, भूपेश गुप्ता ने प्रिवी पर्स के विरोध में जोरदार ढंग से बहस की थी। दूसरी ओर उनके भाषण के बाद डाह्याभाई पटेल ने प्रिवी पर्स का जबर्दस्त तरीके से बचाव किया था।

डाह्याभाई ने कहा, यह सबको पता है कि जब राजाओं के साथ समझौता हुआ तब संसद ने ही नहीं, बल्कि महात्मा गाँधी ने भी स्पष्ट तौर पर कहा था कि भारत की एकजुटता के लिए छोटी सी कीमत चुकानी पड़ी है।

दरअसल प्रिवी पर्स का महत्व सिर्फ उसके रूप में दी जाने वाली राशि के कारण नहीं, बल्कि रियासतों के अवशेषों को जिंदा रखने के रूप में कहीं अधिक था। जैसा कि सरदार पटेल ने यह आशंका जताई थी देश की एकजुटता की थोड़ी सी कीमत थी प्रिवी पर्स, तो यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि 1971 में प्रिवी पर्स की समाप्ति ने राजा महाराजाओं को मिलने वाली राशि ही नहीं रोकी, बल्कि उस सामंती मानसिकता पर भी चोट की थी, जिसे लोकतंत्र की राह में रोड़ा माना जा सकता है।

सरदार पटेल ने रियासतों को खत्म किया तो इंदिरा गांधी ने एक कदम आगे बढ़कर प्रिवी पर्स को खत्म कर राजाओं के झूठे गौरव को खत्म किया था। इसे क्या इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए कि इंदिरा ने सरदार पटेल के अधूरे काम को पूरा किया था? आखिर एक लोकतांत्रिक देश में किसी खास वर्ग को विशेषाधिकार क्यों मिलना चाहिए?

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