तीन दशकों से बिहार बार-बार उम्मीद करता है, पर ठहर जाता है। अब समय है कि जनता जागे — क्योंकि जब जनता जागती है, तो इतिहास करवट लेता है।
यात्रा: उम्मीद से ठहराव तक
बिहार फिर एक बार चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। नारे, चेहरे और गठबंधनों की आवाज़ें गूंज रही हैं। लेकिन इस बार सवाल सिर्फ इतना नहीं कि कौन जीतेगा — असली सवाल यह है कि क्या बिहार आखिरकार जागेगा?
1985 के दशक तक बिहार में उम्मीदों की रौशनी बची हुई थी। राज्य की प्रति व्यक्ति आय देश की औसत का लगभग 60% थी। खेती मज़बूत थी, और शिक्षा व बुद्धिजीविता की परंपरा जीवित थी।
फिर 1990 का दशक आया — जब राजनीति ने “सामाजिक न्याय” का नया अध्याय लिखा। हाशिए पर खड़े वर्गों को आवाज़ मिली, यह सामाजिक रूप से ऐतिहासिक था। लेकिन इसी के साथ शासन और प्रशासन की रीढ़ टूट गई।
1990 से 2005 के बीच बिहार की औसत आर्थिक वृद्धि दर सिर्फ 2.7% रही, जबकि भारत की 6%। उद्योग ठहर गए, अपराध बढ़ा, और सरकारी ढाँचा जर्जर हुआ। 2004 तक बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की औसत का सिर्फ 34% रह गई। युवाओं ने रोज़गार के लिए पलायन शुरू किया — दिल्ली, पंजाब, गुजरात और खाड़ी देशों तक।
सुधार की आहट और अधूरा पुनर्जागरण
2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में शासन की बागडोर बदली। सड़कें बनीं, बिजली पहुँची, कानून व्यवस्था में सुधार हुआ। 2006 से 2012 के बीच बिहार की औसत वृद्धि दर 10.5% तक पहुँची — देश में सबसे तेज़। महिलाओं की साक्षरता 33% (2001) से बढ़कर 61% (2021) हुई। बिहार फिर चर्चा में आने लगा। लेकिन यह पुनर्जागरण अधूरा रहा।
NITI Aayog की 2023 रिपोर्ट बताती है कि आज भी बिहार की 33% आबादी गरीबी रेखा से नीचे है — जो भारत में सबसे ज़्यादा है। राज्य की प्रति व्यक्ति आय ₹66,828 है, जबकि राष्ट्रीय औसत ₹2,50,000 से अधिक। हर साल करीब 80 लाख मजदूर राज्य से बाहर रोज़गार की तलाश में निकलते हैं।
यह आँकड़े बताते हैं कि बिहार उठ तो गया है, पर अभी भी चलना सीख रहा है।
मूल समस्या: संसाधन नहीं, जनचेतना की कमी
बिहार की सबसे बड़ी चुनौती गरीबी नहीं, जनता की कम उम्मीदें हैं। राज्य में उपजाऊ भूमि है, मेहनती लोग हैं, पर राजनीतिक संवाद अब भी अतीत की जातीय दीवारों में कैद है। हर चुनाव में वही समीकरण — “कौन किसका वोट बैंक है।”
विकास की चर्चा नारों में होती है, लेकिन एजेंडे में नहीं। हम हर बार वही गलती दोहराते हैं — कम मांगते हैं, जल्दी भूल जाते हैं। लोकतंत्र में मौन रहना निष्पक्षता नहीं, स्वीकृति है।
इस बार के चुनाव में असली प्रश्न
अगर बिहार को सच में बदलना है, तो इस चुनाव को “वोट की गिनती” से ज़्यादा “विवेक की परीक्षा” बनाना होगा।
हर मतदाता खुद से पूछे —
- क्यों बिहार की साक्षरता दर अब भी 75% से नीचे है?
- क्यों उद्योगों में बिहार का योगदान सबसे कम है?
- क्यों 40% बच्चे कुपोषित हैं (NFHS-5)?
- क्यों हमारे युवा दूसरों के शहर बनाते हैं, अपना नहीं?
ये प्रश्न सत्ता के लिए नहीं, आत्मसम्मान के लिए हैं।
एक नया सामाजिक अनुबंध
बिहार को अब किसी मसीहा की नहीं, जागरूक नागरिकों की ज़रूरत है। विकास कोई उपहार नहीं, यह जनता की जिद से आता है। 1917 का चंपारण आंदोलन नेताओं से नहीं, किसानों की चेतना से शुरू हुआ था। आज वही चेतना फिर से जागनी चाहिए।
यह चुनाव किसी दल या जाति की जीत का नहीं, सोच की जीत का होना चाहिए। अगर 12 करोड़ बिहारी तय कर लें कि वोट काम पर पड़ेगा, कुल पर नहीं — तो यह बिहार की दूसरी आज़ादी होगी: मुक्ति औसतपन और मौन से।
अंतिम शब्द
बिहार अब और ठहरने की गुंजाइश में नहीं है। यह वही भूमि है जिसने बुद्ध को ज्ञान दिया, गांधी को दिशा दी और भारत को आत्मा दी। अब इसे खुद को जगाना है।
इस बार वोट सिर्फ अधिकार नहीं, कर्तव्य है। क्योंकि जिस दिन बिहार जागेगा, उसी दिन भारत बदलेगा।
- लेखक माइक्रोसॉफ्ट कंपनी में बंगलुरु में कार्यरत हैं।
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