भारतीय सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का मर्जर करने जा रही है। चार छोटे सरकारी बैंकों—इंडियन ओवरसीज बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया और बैंक ऑफ महाराष्ट्र को बड़े बैंकों जैसे पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ विलय करने का प्रस्ताव है।
सरकार का कहना है कि यह योजना क्रेडिट विस्तार को बढ़ावा देने, वित्तीय क्षेत्र में सुधार लाने और कमजोर बैंकों को मजबूत बनाने के उद्देश्य से तैयार की गई है। इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या और कम हो जाएगी और फिजूल की प्रतिस्पर्धा पर रोक लगेगी।
जब दो बैंक अपनी संपत्ति और देनदारियों को मिलाकर एक बैंक बन जाते हैं, तो एक विशेष स्थिति को बैंकों का मर्जर कहा जाता है। मर्जर से बैंकिंग सेक्टर में अस्थायी राहत हो सकती है, लेकिन यह समस्या का वास्तविक उपाय नहीं है । सरकार ने 2019 में दस सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को चार संस्थाओं में विभाजित करने की घोषणा की।
यह मूल रूप से उधार देने की लागत को कम करने के लिए है। मर्जर के अपने फायदे और नुकसान हो सकते हैं। यह संचालन की लागत को कम करता है। एनपीए और जोखिम प्रबंधन को लाभ होता है। यह एक बड़ा पूंजी आधार और उच्च तरलता देखता है जो पुनर्पूंजीकरण के बोझ को कम करता है।
विलय वित्तीय समावेशन और बैंकिंग परिचालन की भौगोलिक पहुंच को व्यापक बनाने में भी मदद कर सकता है। कुछ बैंकों के पास क्षेत्रीय ग्राहक होते हैं जिनकी उन्हें सेवा करनी होती है और विलय विकेंद्रीकरण के विचार को नष्ट कर देता है।
सरकार पहले भी ऐसी ही योजना पर 2017 से 2020 तक काम कर चुकी है। जिसके बाद सार्वजनिक क्षेत्र की यानी सरकारी बैंकों की संख्या 27 से घटकर 12 हो चुकी है। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर में निजी बैंकों को आर्थिक नियोजन, ग्रामीण उन्नयन और कॉर्पोरेट एकाधिकार रोकने के लिए सरकारी नियंत्रण में लाया गया।
बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के तहत 1969 और 1980 में चरणबद्ध काम किया गया। इससे सरकारी क्षेत्र के बैंकों की संख्या बढ़ी और बैंकिंग गाँव गाँव तक पहुंची। लेकिन अब जो मर्जर प्रस्तावित है वह नीति आयोग की सिफारिशों से अलग दिशा में है। नीति आयोग ने तो छोटे बैंकों के निजीकरण का सुझाव दिया गया था। लेकिन कैबिनेट ने मर्जर की योजना बनाई और उसी स्तर पर चर्चा चल रही है।
बैंक मर्जर से रोजगार पर प्रभाव पड़ता है। सरकार तो हमेशा ही कहती है कि हमेशा ‘कोई छंटनी नहीं’ होगी। । फिर भी, व्यावहारिक रूप से कुछ नौकरियां प्रभावित होती हैं। मर्जर से शाखाओं का तर्कसंगतकरण (रेशनलाइजेशन) होता है, जहां ओवरलैपिंग ब्रांच बंद हो जाती हैं। इससे अतिरिक्त कर्मचारियों की जरूरत कम पड़ती है। 2017-2020 के मर्जर (जैसे स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सहयोगी बैंकों का विलय) में लगभग 10,000 से 15,000 नौकरियां अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुईं।
हजारों बैंक कर्मियों ने वीआरएस यानी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के तहत काम छोड़ दिया। नए मर्जर में भी इसी पैटर्न की उम्मीद है, जहां 20,000 से 30,000 कर्मचारी वीआरएस चुन सकते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष छंटनी शून्य रहेगी। कुल मिलाकर, नौकरियां नहीं घटेंगी, बल्कि रीडिप्लॉयमेंट और रिस्किलिंग पर फोकस होगा। बैंक के कर्मचारियों को प्रमोशन में मुश्किल हो सकती है। कर्मचारियों के वीआरएस के कारण काम का बोझ भी बढ़ेगा।
इस तरह के मर्जर में खाताधारकों को परेशानी होती ही है। ग्रामीण/क्षेत्रीय ब्रांच बंद होने से दूरदराज के ग्राहकों को परेशानी। प्रतिस्पर्धा कम होने से फीस बढ़ सकती है। अकाउंट नंबर, IFSC कोड या कार्ड बदलने पड़ सकते हैं। कुछ समय के लिए सर्विस डिसरप्शन (जैसे चेकबुक डिलीवरी में देरी) हो सकता है।
पुराने बैंक से लगाव टूट सकता है, खासकर रीजनल बैंकों के ग्राहकों में। 2017 में जब स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया दुनिया का 47वां सबसे बड़ा बैंक बना तो उसका एनपीए घटा, लेकिन शुरुआत में आईटी इंटीग्रेशन में चुनौतियां थीं। जब भी बैंकों के मर्जर हुए तब शुरुआती 2-3 साल में लाभप्रदता घटी। पंजाब नेशनल बैंक तो नुकसान में पहुँच गया था। मर्जर से कर्मचारियों में काम का तनाव बढ़ा। ग्रामीण पहुंच में थोड़ी कमी।
सरकार के अनुसार, इस पहल के तीन मुख्य उद्देश्य हैं। बड़े और मजबूत बैंक बनाना, जिनकी बैलेंस शीट मजबूत हो। ऑपरेशनल एफिशिएंसी बढ़ाना और ओवरलैपिंग शाखाओं को कम करना। ग्लोबल स्तर पर प्रतिस्पर्धी बैंकों की श्रेणी में भारतीय पीएसयू बैंकों को खड़ा करना। साथ ही, डिजिटल बैंकिंग और फिनटेक के तेजी से विस्तार के बीच, सरकार चाहती है कि पब्लिक सेक्टर बैंक ‘ रणनीतिक रूप से पोजिशन’ हों, न कि बहुत बिखरे हुए।
सरकार का कहना है कि मर्जर के कारण बैंक का आकार और प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ती है, जिससे देश की बैंकिंग प्रणाली मजबूत होती है। बड़े सरकारी बैंकों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में मदद मिलती है और उनकी ऋण देने की क्षमता बढ़ती है।ग्राहकों को डिजिटल बैंकिंग, मोबाइल ऐप और एटीएम जैसी बेहतर सुविधाएँ मिलती हैं। बैंकों का संचालन सरल और मजबूत बनता है, और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा मिलता है। मर्जर से परिचालन की कास्ट कम होती है। बचत होती है और जमा पर खर्च कम होता है।
बैंकों का मर्जर कई बार जरूरी होता है। इसी से बैंक अपना कारोबार फैला सकते हैं। बैंकों की एफिशियंसी देश की इकोनॉमी के लिए भी जरूरी है। लेकिन एनपीए की समस्या छोटे बैंकों के कारण नहीं, बल्कि एनपीए से निपटने की अकुशल नीतियों के कारण बढ़ रही है।
भारत में बैंकिंग घोटालों के कई हाई-प्रोफाइल मामले हैं, जहां प्रमुख उद्योगपति या व्यवसायी बैंकों से कर्जा लेकर विदेश भाग गए। ये लोग ‘विलफुल डिफॉल्टर्स’ के रूप में वर्गीकृत हैं, जिन्होंने बैंकों को अरबों रुपये का नुकसान पहुंचाया। ये घोटाले नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स को बढ़ाते हैं, जो बैंकों की बैलेंस शीट को कमजोर करते हैं।
2015-2025 के बीच, लगभग 38-50 ऐसे प्रमुख व्यक्ति/कंपनियां विदेश भाग चुकी हैं, जिनका कुल डिफॉल्ट 40,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। अगर ऐसे चोट्टों पर लगाम नहीं कसी गई तो बैंकों के मर्जर से ही तो बैंक मुनाफे में नहीं आएगी।
- लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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