बिहार में चुनाव आयोग के मतदाता सूची में पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर मचा बवाल अभी पूरी तरह थमा नहीं है कि अब टिकट बंटवारे को लेकर घमासान मचा हुआ है। हालत यह है कि विधानसभा चुनाव के छह नवंबर को होने वाले पहले चरण के लिए नामांकन दाखिल करने के सिर्फ दो दिन रह गए हैं और अभी एनडीए और महागठबंधन दोनों में सीटों के बंटवारे को लेकर सहमति नहीं बन पाई है।
बिहार में भाजपा के चुनाव प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान ने सोमवार को जानकारी दी थी कि एनडीए में सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया गया है और उसके मुताबिक भाजपा और जनता दल (यू) को 101-101 सीटें, चिराग पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी (आर) को 29 सीटें और उपेंद्र कुशवाहा के राष्ट्रीय लोकमोर्चा तथा जीतन राम मांझी के हिंदुस्तान अवाम मोर्चा (सेकुलर) को छह छह सीटें दी गई हैं। लेकिन कुछ घंटे बाद यह सामने आ गया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सीटों के बंटवारे को लेकर चिराग पासवान को तवज्जो दिए जाने से नाराज हैं।
हालत यह हो गई कि सोमवार को बुलाई जाने वाली साझा प्रेस कांफ्रेंस तक टाल दी गई। जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की नाराजगी की भी खबरें हैं, तो इससे साफ है कि एनडीए के भीतर सबकुछ ठीक ठाक नहीं है। दरअसल सबसे बड़ी चुनौती किसी और के लिए नहीं, बल्कि नीतीश कुमार के लिए है, जिनकी पार्टी पिछले बीस सालों से भाजपा के साथ गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में रही है। भाजपा के रणनीतिकार अमित शाह ने उनकी पार्टी को बराबरी पर ला खड़ा किया है!
भाजपा लंबे समय से बिहार की कमान अपने हाथों में लेना चाहती है, और नीतीश कुमार उसके लिए वहां तक पहुंचने का जरिया हैं, यह किसी से छिपा नहीं है, शायद वह खुद भी इसे समझते हैं। चिराग पासवान को भाजपा के इस उपक्रम के अहम घटक के तौर पर देखा जा रहा है, तो यह भी याद किया जा सकता है कि किस तरह वह कुछ महीने पहले नीतीश सरकार के खिलाफ सड़क पर थे! जाहिर है, यह चुनाव नीतीश कुमार के राजनीतिक करिअर का सबसे अहम चुनाव है।
दूसरी ओर राजद-कांग्रेस के महागठबंधन का हाल भी कोई अच्छा नहीं है, नतीजतन सीटों के बंटवारे का झगड़ा पटना से दिल्ली पहुंच गया है। घटक दलों में टिकटों के बंटवारे का यह हाल है कि महागठबंधन ने कुछ महीने पहले राहुल गांधी की अगुआई में निकाली गई वोटर अधिकार यात्रा की धमक खो दी है। दरअसल कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह तदर्थवाद से मुक्त नहीं होना चाहती और इस यात्रा के बाद महीने भर से जमीनी स्तर पर वह कहीं नजर नहीं आई।
वास्तविकता यह है कि थोड़े समय के लिए ही जब नीतीश महागठबंधन का हिस्सा थे, कांग्रेस बिहार की सत्ता का हिस्सा रही, वरना वह बिहार में पैंतीस साल से सत्ता से बाहर है। जाहिर, राजद और अन्य सहयोगी दलों को साथ लेकर चलना कांग्रेस की मजबूरी है। बिहार में वह दूसरे दलों के साथ ही अपनी नैया पार लगा सकती है।
मुकेश सहनी की वीआईपी और सीपीआई (एमएल) सहित अन्य कम्युनिस्ट पार्टियां भी नहीं चाहतीं कि उनकी कीमत पर कांग्रेस पर दांव लगाया जाए। जाहिर है, महागठबंधन में तालमेल की जिम्मेदारी लालू यादव और तेजस्वी के साथ ही कांग्रेस पर कहीं अधिक है।
वैसे आने वाले समय में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि किस तरह प्रॉक्सी उम्मीदवारों के सहारे दोनों गठबंधन के दल अपने ही सहयोगियों के लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं।

