नई दिल्ली। 20 year of RTI: भारत में सूचना का अधिकार कानून लागू हुए 20 साल हो चुके हैं। 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुए इस कानून ने नागरिकों को सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने का हथियार दिया। लेकिन इन सालों में कई बदलाव आए और विवाद भी। हाल ही में गुजरात पर छपी एक रिपोर्ट ने राज्य स्तर पर कमियां उजागर की हैं।
आरटीआई कानून में पिछले 20 सालों में मुख्य बदलाव 2019 में हुआ। RTI (Amendment) Act 2019 ने सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तों को केंद्र सरकार के नियंत्रण में ला दिया। पहले पांच साल की निश्चित अवधि थी, अब सरकार तय करती है। 2023 के डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट ने भी आरटीआई में कुछ प्रावधान बदले, जिससे कुछ सूचनाएं गोपनीय हो गईं। विपक्ष इसे पारदर्शिता कम करने वाला कदम बताता है।
मोदी सरकार का दावा है कि आरटीआई को मजबूत किया गया है। ऑनलाइन पोर्टल और डिजिटलीकरण से आवेदनों की संख्या बढ़ी है। सरकार कहती है कि 2014 से अब तक करोड़ों आवेदन निपटाए गए और पारदर्शिता बढ़ी। लेकिन 2019 के बदलाव को सुधार बताया जाता है, जो प्रशासन को कुशल बनाता है।
विपक्ष खासकर कांग्रेस, मोदी सरकार पर आरटीआई को कमजोर करने का आरोप लगाती है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कहते हैं कि पिछले 11 सालों में कानून को खोखला किया गया। 2019 का बदलाव आयुक्तों की स्वतंत्रता छीनता है। डेटा प्रोटेक्शन कानून से सूचनाएं छिपाने का रास्ता मिला। विपक्ष का कहना है कि इससे भ्रष्टाचार छिपाया जा रहा है।
RTI के लिए कब उठी पहली आवाज?

आरटीआई कानून की मांग सबसे पहले राजस्थान से उठी। यह आंदोलन 1990 के दशक में शुरू हुआ जब मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने ग्रामीण मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी और सरकारी योजनाओं में पारदर्शिता की मांग की। एमकेएसएस की स्थापना 1990 में देवडूंगरी गांव में अरुणा रॉय, निखिल डे और शंकर सिंह ने की थी। शुरू में यह न्यूनतम मजदूरी के लिए आंदोलन था, लेकिन 1994-95 में एमकेएसएस ने गांवों में मस्टर रोल की प्रतियां मांगी, जो सार्वजनिक कार्यों में मजदूरों के नाम, उपस्थिति और भुगतान का रिकॉर्ड होता है।
सुशीला देवी जैसी कार्यकर्ता ने गांव-गांव जाकर समर्थन जुटाया और मौत की धमकियां झेलीं, लेकिन एक महीने बाद मस्टर रोल मिला, जिसमें पता चला कि सड़क निर्माण में 50 प्रतिशत मजदूरों को काम करने के बावजूद भुगतान नहीं हुआ।
यह मांग गांवों में जन सुनवाई के जरिए फैली, जहां 1994 से सार्वजनिक सभाओं में सरकारी रिकॉर्ड की जांच की गई। आंदोलन ने सरकारी अस्पतालों में मुफ्त दवाओं की सूची प्रदर्शित करने की मांग भी की, जिससे पता चला कि गर्भवती महिलाओं और सांप काटने की दवाएं उपलब्ध होने के बावजूद मरीजों को निजी दुकानों से खरीदनी पड़ती थीं।
1996 में ब्यावर के चांग गेट पर 44 दिनों का धरना हुआ, जहां हजारों ग्रामीणों ने हमारे पैसे, हमारे हिसाब का नारा दिया। कार्यकर्ताओं को जेल, लाठीचार्ज और दबाव झेलना पड़ा, लेकिन यह आंदोलन राज्य स्तर से राष्ट्रीय स्तर पर फैला।
1996 में ही राष्ट्रीय अभियान पीपुल्स राइट टू इनफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) बना। राजस्थान में 2000 में राज्य आरटीआई कानून बना और 2005 में राष्ट्रीय कानून लागू हुआ। हाल ही में ब्यावर में आरटीआई मेला आयोजित हुआ, जहां पुराने कार्यकर्ता इकट्ठा हुए और कानून की रक्षा पर चर्चा की।
गुजरात में RTI की पारदर्शिता पर सवाल : हालिया रिपोर्ट
हाल ही में आरटीआई गुजरात इनिशिएटिव एनजीओ की रिपोर्ट ने गुजरात की स्थिति उजागर की। 20 सालों में 21.29 लाख से ज्यादा आवेदन दाखिल हुए, लेकिन सक्रिय खुलासे कमजोर हैं। शिक्षा, गृह और राजस्व विभागों में 58 प्रतिशत आवेदन केंद्रित हैं, जो इन क्षेत्रों में शक्ति के केंद्रीकरण को दिखाता है।
गुजरात राज्य सूचना आयोग में मई 2005 से 1.37 लाख अपीलें और शिकायतें आईं, जिनमें से 1.26 लाख निपटाई गईं और 1248 लंबित हैं। लेकिन 20 सालों में एक भी पत्रकार या सिविल सोसाइटी सदस्य को सूचना आयुक्त नहीं बनाया गया, जिससे प्रक्रिया नौकरशाही तक सीमित है।
दंड व्यवस्था कमजोर है, सिर्फ 1284 सूचना अधिकारियों पर जुर्माना लगा, कुल 1.14 करोड़ रुपये, जो तय मामलों का एक प्रतिशत से कम है। सिर्फ 74 अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई। 2025 के ऑडिट में 26 विभागों में से सिर्फ 35 प्रतिशत ने डेटा अपडेट किया, 38 प्रतिशत में पुराना डेटा, 19 प्रतिशत में मुख्य मैनुअल और बजट रिकॉर्ड गायब, और 8 प्रतिशत की वेबसाइटें काम नहीं कर रहीं। शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों में अपडेट होते हैं, लेकिन शहरी विकास और कानूनी विभाग दशक पुराने फाइलों पर निर्भर हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना हो रही है।
एनजीओ संयोजक पंकटी जोग ने कहा कि सुधार के लिए नोडल अधिकारी, ऑनलाइन सिस्टम, दूसरी अपीलों का लाइव स्ट्रीमिंग, अपील फॉर्मेट का नया डिजाइन और आवेदकों की गुमनामी जरूरी है। लेकिन सरकार सिफारिशों पर अमल नहीं कर रही। हालिया अध्ययन में गुजरात का प्रदर्शन मध्यम बताया गया है, जहां मामलों के निपटारे में देरी है। जून 2025 में सरकार ने चार फैसले लिए रिकॉर्ड का वर्गीकरण, इंडेक्सिंग, ऑनलाइन ट्रेनिंग और आरटीआई के पहले पांच पेज मुफ्त। फिर भी व्हिसलब्लोअर्स की सुरक्षा और डेटा दबाने की समस्या बनी हुई है। एक अन्य आरटीआई से पता चला कि आठ नगर निगमों में दो लाख करोड़ से ज्यादा के ऑडिट लंबित हैं।
राज्यवार क्या है स्थिति
सतर्क नागरिक संगठन (एसएनएस) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक आरटीआई पालन में कई राज्य पिछड़े हैं। छह राज्यों की सूचना आयोग पूरी तरह निष्क्रिय हैं जिसमें झारखंड, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, गोवा, त्रिपुरा और मध्य प्रदेश शामिल हैं। इनमें नए आयुक्त नहीं नियुक्त किए गए, जिससे आरटीआई अपीलें रुकी हुई हैं।
सबसे खराब स्थिति तेलंगाना की है, जहां नई अपील निपटाने में 29 साल लग सकते हैं। त्रिपुरा में 23 साल का अनुमान है। लंबित मामलों में महाराष्ट्र सबसे खराब है, जहां 95 हजार से ज्यादा अपीलें और शिकायतें पेंडिंग हैं। उसके बाद कर्नाटक (47,825) और तमिलनाडु (41,059) हैं।
दूसरी ओर जुर्माना लगाने में छत्तीसगढ़ सबसे बेहतर है, जहां 1.06 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया। कर्नाटक और बिहार भी इस मामले में आगे हैं। छोटे राज्य जैसे सिक्किम, नागालैंड और हरियाणा पुरानी रिपोर्टों में अपनी आरटीआई पूछताछ पर पूरी जानकारी देने में अच्छे थे, लेकिन हालिया में वैकेंसी कम होने से बेहतर माने जा सकते हैं।
कुल मिलाकर, 29 आयोगों में से 20 ने 2023-24 का वार्षिक रिपोर्ट नहीं जारी किया, जो पालन की कमी दिखाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि वैकेंसी भरना और दंड सख्ती से लागू करना जरूरी है।

