छिंदवाड़ा में 2 सितंबर को जब 4 वर्ष के नन्हे शिवम राठौड़ की विषाक्त कफ सिरप से मौत हुई, क्या प्रशासन, स्वास्थ्य विभाग या सरकार को तब ही नहीं चेत जाना था? तह में जाकर कारणों का पता नहीं करना था? जो काम महीने भर से ज्यादा बीतने और एक-एक कर 19 बच्चों की मौत के बाद अब किया जा रहा है, शिवम की अकाल मृत्यु के तत्काल बाद नहीं होना था?
मसलन, संदिग्ध दवाओं के सैंपलों और दवा विक्रेताओं की जांच। लेकिन, छह बच्चों की मौत तक तो सरकार के स्तर पर कोई हलचल ही नहीं थी। बल्कि, उप मुख्यमंत्री राजेंद्र शुक्ल, जिनके पास स्वास्थ्य विभाग की जिम्मेदारी है, संबंधित कफ सिरप ‘कोल्ड्रिफ़’ को “क्लीन चिट” दे रहे थे।

मीडिया से कह रहे थे- “कफ सिरप वाली जो बात आई, वो निराधार है। कफ सिरप के कारण मौतें नहीं हुई हैं, यह तय है।” शुक्ला का यह बयान जाहिर करता है कि सिस्टम कैसे काम कर रहा है। हैरत तो इस बात की है कि उन्होंने इस बात की भी परवाह नहीं की कि जांच रिपोर्ट आने के पहले ही ‘क्लीन चिट’ देना, विभाग का मंत्री होने के नाते खुद उनके और अधीनस्थ नौकरशाहों के दामन पर दाग लगा सकता है। या उन्हें शंका के दायरे में ला सकता है।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि जब जांच रिपोर्ट आई तो मंत्री जी झूठे साबित हो गए। कफ सिरप जहरीला पाया गया। जिस जहरीले पदार्थ डायएथिलिन ग्लायकॉल (डीईजी) की मात्रा 1 प्रतिशत होना थी, वह लगभग 49 प्रतिशत निकली। सोचिए, 48 फीसदी ज्यादा। लिहाजा, किडनी फेल होने लगीं।
मगर सरकार मानने को तैयार नहीं थी। मानती या संदेह करती तो हरकत में आती। वो तो बचाव करने में लग गई। कहने लगी कि मौत का कारण सिरप नहीं है। जबकि नागपुर से तीन बच्चों की बायोप्सी रिपोर्ट में किडनी फेल्योर की बात सामने आई थी। पोस्टमार्टम से मौतों का कारण समझ आता, लेकिन शवों के पीएम तक नहीं कराए गए।
सरकारी तंत्र बेफिक्र था। नवरात्रि का समय चल रहा था, जगह-जगह कन्या पूजन चल रहे थे, “सनातन” की सेवा हो रही थी और उधर, खांसी की जहरीली दवा से कन्याएं दम तोड़ रही थीं। पोस्टमार्टम क्यों नहीं कराए गए, इसका संतोषजनक उत्तर अभी तक सामने नहीं आया है।
आखिर क्या छुपाने की कोशिश की जा रही थी? लेकिन, जब मौतें बढ़ गईं और दबाव बढ़ा तो 4 साल की नन्ही कन्या योगिता ठाकरे का शव, जिसे दफनाया जा चुका था, कब्र से निकाला गया, ताकि पोस्टमार्टम के जरिए कारण जाना जा सके। जब 16 बच्चे मर गए, देश भर में हल्ला मचने लगा, मध्यप्रदेश की बदनामी होने लगी और सोशल मीडिया पर तमाम सवाल उठाए जाने लगे, तब सरकार ने कुछ कदम उठाने शुरू किए।
मुख्यमंत्री मोहन यादव, जो सपत्नीक असम की यात्रा पर थे, (काजीरंगा व कामाख्या की तस्वीरें मीडिया में आ ही चुकी थीं), का प्रदेश वापसी के बाद जबलपुर जाने का कार्यक्रम था। मगर इसी बीच आरएसएस के कुछ लोग सक्रिय हुए। संदेश पहुंचाया गया कि यह मामला गंभीर है, इसको हल्के में लेना ठीक नहीं है। लिहाजा, जबलपुर का कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।
‘तुम तो समझदार हो, कल की बात मत करो’

आज के युग में जो दिखता है, वो ही बिकता है। केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के पदार्पण के बाद से तो “ऑप्टिक्स” एक महत्वपूर्ण “प्रकल्प” बन गया है। इसमें पिछड़ने वाला मात खा जाता है। सो, यादव परासिया गए। उन परिवारों से मिले, जिन्होंने अपने बच्चों को खोया है।
सरकार की ओर से संवेदनाएं जताईं। 4-4 लाख की आर्थिक सहायता का ऐलान वे कर ही चुके थे। यह भी कि नागपुर में भर्ती बच्चों के इलाज का खर्च सरकार उठाएगी। उनके निर्देश पर औषधि नियंत्रण के कुछ अधिकारियों के खिलाफ ऐक्शन लिया जा चुका था, एक-दो एफआईआर भी हो गई थीं।
सो, यादव को लगा कि “सरकार (मतलब सीएम) को जो करना था, वो हो चुका है। और क्या चाहिए? लिहाजा जब किसी पत्रकार ने इस बारे में उनसे सवाल किया तो उन्होंने पत्रकार को यह कहकर रोक दिया कि- “तुम तो समझदार हो। कल की बात मत करो। मैंने वहाँ जाकर जो हो सकता है, वो सब करा है।
विपक्ष (कांग्रेस) की पार्टी के अध्यक्षजी तो घर-घर नहीं जा पाए। उन्होंने एक जगह सबको बैठाकर बात की। हम तो हरेक के घर-घर गए। क्योंकि हमारी संवेदनशीलता है। हमारे लिए यह औपचारिकता या कर्मकांड नहीं है। इसलिए, हमने बेहतर से बेहतर हो सकता है, कार्रवाई भी की है।”
बलि का बकरा…चैप्टर क्लोज़, जवाबदेही खत्म

जैसा कि आमतौर पर होता रहा है, सरकार ने इस मामले में भी “बलि का एक बकरा” ढूंढ़ लिया। और, परासिया के डॉ. प्रवीण सोनी गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए। इस जुर्म में कि, उन्होंने मरीजों को ‘कोल्ड्रिफ़’ सिरप क्यों लिखा? न वे ऐसा करते और न इतने बच्चों की अकाल मौत होती।
मानो, उन्हें पता हो कि सिरप जहरीला है और इसे “प्रिस्क्राइब” नहीं करना है। सोनी की गिरफ़्तारी से सिस्टम ‘एक्सपोज़’ हो गया। याद करें कालिदास की कहानी। जिस डाल पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। सोनी को ऐसे गिरफ्तार किया, जैसे सब उनका किया धरा है।
सरकार की कार्रवाई से ऐसा लग रहा है, जैसे डॉक्टर ही दवा बनाता है, लैब में हर बैच की जांच करता है, उसी की लैब और फार्मास्युटिकल कंपनियां होती हैं, वही नियामक ईकाई होता है, पोस्टमार्टम का आदेश भी वही देता है, वह ही मरीजों को दी जाने वाली दवाओं की सूची अनुमोदित करता है।
कुल मिलाकर, डॉक्टर ही ‘शासन’ होता है! चूंकि सबकुछ वही होता है, लिहाजा उसी को गिरफ्तार कर लिया गया। मतलब, चैप्टर क्लोज़। नीचे से ऊपर तक पूरे सिस्टम की जवाबदेही खत्म।
चूहों को पकड़ने के लिए डॉक्टर बिल्ली नहीं बन सकता…

जबकि, हक़ीक़त यह है कि डॉक्टर न तो दवा बनाता है, न उसकी लैब होती हैं, न दवाओं का परीक्षण करना उसका काम होता है। वह सरकार द्वारा अनुमोदित दवा को “प्रिस्क्राइब” भर करता है। इस केस में आरोपी बनाए गए डॉ. सोनी लगभग 40 बरसों से प्रैक्टिस कर रहे हैं। सरकारी अस्पताल में हैं। कभी कुछ नहीं हुआ।
जिस ‘कोल्ड्रिफ़’ के कारण इतनी मौतें हो गईं, वो भी पहले लिखी जाती रही है। और लिखी इसलिए जाती रही, क्योंकि सरकार की अनुमोदित सूची में दर्ज थी। सवाल यही है कि यदि सिरप जहरीला था, तो अनुमोदित सूची में दर्ज कैसे हो गया? जाहिर है, सारी चीजें परखने के बाद ही अनुमोदन किया गया होगा। तो इसमें डॉक्टर का भला क्या दोष? क्या सिस्टम को ठीक करने के बजाय डॉक्टर को दोष देना उचित है?
उसे तो मरीज़ के मर्ज़ को सावधानीपूर्वक पहचानने और बीमारी को ठीक करने के लिए दवाएं “प्रिस्क्राइब” करने की ट्रेनिंग दी जाती है। वह खुद पूरे सिस्टम (फार्मास्युटिकल कंपनियों और नियामकों) पर भरोसा करके ही मरीज को सुरक्षित दवा लिखता है। ऐक्शन तो दवा निर्माता और नियामक तंत्र पर होना चाहिए।
जांच इस बात की होना चाहिए कि, क्या गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेज (जीएमपी) का उल्लंघन हुआ था? क्या कच्चे माल का परीक्षण किया गया था? क्या बैच को सुरक्षित प्रमाणित किया गया था? क्या राज्य औषधि नियंत्रक ने समय पर कार्रवाई की थी? आवश्यकता सार्थक सुधारों और जवाबदेही तय करने की है, बलि के बकरों की नहीं। क्योंकि डॉक्टर चूहों को पकड़ने के लिए बिल्ली नहीं बन सकता!