नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस. मुरलीधर (Justice S Muralidhar) ने सांप्रदायिक विवादों से निपटने में न्यायपालिका की भूमिका की तीखी आलोचना की है। साथ ही चेतावनी दी है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अदालतें संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने में विफल रही हैं।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार , 6 सितंबर को दिल्ली में एजी नूरानी मेमोरियल लेक्चर देते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आचरण को ‘माफ न करने योग्य संस्थागत स्मृतिलोप’ का उदाहरण बताया।
मुरलीधर ने 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर दायर की गई अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता का हवाला दिया।
उन्होंने कहा, ‘इस पर 22 साल तक कोई सुनवाई नहीं हुई। और फिर जब यह मामला न्यायमूर्ति (संजय) कौल के समक्ष सूचीबद्ध हुआ, तो कहा गया; मरे हुए घोड़े को क्यों पीटना? यह संस्थागत स्मृतिलोप है, जो मेरे विचार से अक्षम्य है, एक ऐसे कृत्य के बारे में जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एक गंभीर अपराध माना है।’
उन्होंने 2019 के अयोध्या फैसले का भी हवाला देते हुए तर्क दिया कि न्यायालय अपने समक्ष आए मुकदमों के दायरे से बाहर चला गया। उन्होंने कहा, ‘मंदिर निर्माण की मांग किसी ने नहीं की थी। अनुच्छेद 142 के तहत निर्देश जारी किए गए थे; किसी ने इसकी मांग नहीं की थी, न कोई कानूनी आधार था, न कोई प्रार्थना, इसलिए कोई विरोध नहीं। किसी केंद्र सरकार या हिंदू समूह के वकील ने इसकी मांग नहीं की थी।’
उन्होंने आगे कहा कि यह फैसला ‘मुकदमों के दायरे से पूरी तरह बाहर था’ और इसका असर अदालतों पर पड़ रहा है।
मुरलीधर ने चेतावनी दी कि उपासना स्थल अधिनियम के बावजूद, धार्मिक स्थलों को लेकर मुकदमेबाजी कई गुना बढ़ गई है। उन्होंने कहा, ‘हमारे यहां हर जगह मुकदमे चल रहे हैं; पूरे देश में 17 मुकदमे चल रहे हैं।’
सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने भारत की बहुलवादी परंपराओं की अनदेखी करते हुए, राष्ट्रीय बहसों को ‘हिंदू-मुस्लिम प्रश्नों’ के संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए टेलीविजन मीडिया की भी आलोचना की।
उन्होंने कहा, ‘हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमारी संस्कृति एक मिश्रित संस्कृति है।’ अयोध्या के राम मंदिर के फैसले पर उन्होंने आगे कहा, ‘फैसले में जो कुछ भी कहा गया है और अंततः जो फैसला सुनाया गया है, वह बिल्कुल भी तार्किक परिणाम नहीं लगता।’
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, जिन्हें अयोध्या फैसले के लेखक के रूप में व्यापक रूप से जाना जाता है, का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, ‘यह एक लेखक-रहित निर्णय था, लेकिन लेखक ने स्वयं कहा कि उन्होंने इसे सुनाने से पहले देवता से परामर्श किया था।’
भारत की विविधता पर ज़ोर देते हुए, मुरलीधर ने जोर देकर कह, ‘भारत की जनसंख्या जितनी विविध है, उतनी ही धार्मिक भी है… हम कभी एक संस्कृति, एक भाषा या एक धर्म के नहीं रहे और न ही हो सकते हैं।’
उन्होंने कर्नाटक हिजाब मामले में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की असहमति का समर्थन करते हुए आगाह किया कि ‘जरूरी धार्मिक प्रथाओं में प्रवेश करना समस्याजनक है क्योंकि आप धर्मशास्त्र में प्रवेश कर रहे हैं। यह एक ख़तरनाक प्रक्रिया है क्योंकि न्यायाधीश इसमें गलती कर सकते हैं।’
न्यायिक आत्मनिरीक्षण का आह्वान करते हुए मुरलीधर ने कहा, ‘हम यह नहीं पूछते कि हमारे न्यायाधीश कौन हैं और उनकी धार्मिक मान्यताएं क्या हैं। भविष्य के लिए धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित करने के लिए, हमें पीछे जाना होगा और स्कूलों से शुरुआत करनी होगी।’
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