पांच साल पहले उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुए दंगों के सिलसिले में गिरफ्तार जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के पूर्व छात्र नेता और स्कॉलर उमर खालिद और शरजील इमाम तथा सात अन्य लोगों को दिल्ली हाई कोर्ट से राहत नहीं मिली है, जिसने मंगलवार को उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी।
उमर और उनके साथियों पर इन दंगों को लेकर ‘बड़ी साजिश’ का हिस्सा होने का आरोप पुलिस ने लगाया है, लेकिन रेखांकित करने वाली बात यह भी है कि पांच साल बाद अब तक इस मामले में निचली अदालत में सुनवाई शुरू नहीं हो सकी है। यह सचमुच अजीब है कि इन युवाओं को बिना चार्ज शीट दाखिल किए ही लंबे समय से जेल में रहना पड़ रहा है और उनकी आगे की राह भी कठिन ही नजर आ रही है।
उमर खालिद की ही बात करें, तो छठी बार उनकी जमानत अर्जी खारिज कर दी गई। पुलिस का आरोप है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के विरोध में फरवरी, 2020 में दिल्ली में ऐसे समय दंगों की साजिश रची गई थी, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत आने वाले थे।
पांच सालों में अभियोजन उमर और उनके साथियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल नहीं कर सका है, जिसका खामियाजा उमर और इस मामले के अन्य आरोपी युवाओं को भुगतना पड़ रहा है। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये युवा बिना अपराध साबित हुए लंबे समय से जेल में हैं और अभी यह भी पता नहीं है कि यह मामला और कितना लंबा चलेगा।
यह स्थिति तब है, जब सुप्रीम कोर्ट कई बार दोहरा चुका है कि बेल यानी जमानत नियम है, जबकि जेल अपवाद, यहां तक कि गैरकानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम (यूएपीए) जैसे मामलों में भी। लेकिन व्यवहार में ऐसा कम ही नजर आ रहा है, दिल्ली दंगे का मामला इसका एक बड़ा उदाहरण है।
एक संवैधानिक लोकतंत्र में इस स्थिति पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, इसलिए भी क्योंकि हमारे संविधान निर्माताओं ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को खासतौर से महत्व दिया था, जैसा कि संविधान का अनुच्छेद 21 में इसका जिक्र है।
निस्संदेह यदि उनके खिलाफ अपराध साबित होते हैं, तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए, लेकिन यदि वह निर्दोष साबित हुए तो, इन युवाओं जिनमें कई स्कॉलर भी हैं, के जेल में बिताए बहुमूल्य समय की भरपाई कैसे होगी?