जहां बिहार के नीति निर्माता चुनाव की तैयारी कर रहे हैं, वहीं बिहार की अधिकांश आबादी बाढ़ और सुखाड़ जैसी आपदा को झेल रही है। बिहार, अपनी भौगोलिक स्थिति एवं सरकारी कुव्यवस्था के कारण प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अतिसंवेदनशील है। ऐसे में बिहार इस समय बाढ़ और सूखे दोनों आपदाओं का एक साथ सामना कर रहा है। ऐसी स्थिति में जहां सरकार एक तरफ अपने विकास का ढोल पीट रही है, वहीं दूसरी तरफ आपदाओं में ‘विकास और सरकारी वादों’ की चिताएं जल रही है।
नदी में समा रहा गांव

“लगभग 30 से 35 लाख रुपया घर बनाने में लगा था। जमीन की कीमत छोड़ दीजिए। पूरा गांव सरकारी टेंट में रह रहा है। सरकार की व्यवस्था आपको पता ही है। गांव में मातम पसरा हुआ है, बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक बेसहारा हालात में हैं। महिलाएं रो रही हैं। इसके अलावा हमारे पास कोई चारा भी नहीं है।” भारी आवाज में जवईनिया गांव के 26 वर्षीय रोहित बताते हैं।
भोजपुर जिले के शाहपुर प्रखंड के दामोदरपुर पंचायत स्थित जवईनिया गांव के वार्ड संख्या चार और पांच के करीब 150 से ज्यादा घर अब गंगा में समा चुके हैं। हर दिन गांव की मिट्टी खिसक रही है, लोगों के आशियाने गंगा के गर्भ में समा रहे हैं। जानकार के मुताबिक गंगा नदी के कटाव को देखने से ऐसा लगता है की आने वाले दिनों में जवईनिया गांव केवल एक इतिहास बनकर रह जाएगा।
जवईनिया गांव के ग्रामीणों के मुताबिक पिछले कुछ सालों से हमारे गांव की स्थिति ऐसी ही थी। अगर सरकार समय पर एक्शन लेती तो ऐसी स्थिति नहीं होती। चुनाव नजदीक होने की वजह से इस बार कई पार्टी के नेता उनके गांव आए थे।
बिहार के अन्य जिलों में भी बाढ़ से गांव जलमग्न एवं कटाव की स्थिति में पहुंच चुकी है। बक्सर से कहलगांव तक गंगा समेत कई नदियां उफान पर हैं। भागलपुर और मुंगेर में बाढ़ और कटाव की वजह से दर्जनों गांव जलमग्न हैं, लोग जान-माल बचाने के लिए छतों और ऊंचे स्थानों पर शरण लिए हुए हैं। स्थानीय पत्रकार के मुताबिक भागलपुर के 16 प्रखंडों में 14 प्रखंड बाढ़ की चपेट में हैं।
सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश सरकार बाढ़ सुरक्षा पर प्रतिवर्ष करीब 600 करोड़ रुपये खर्च करती है। वहीं राहत अभियान में भी हजारों करोड़ खर्च किए जाते हैं। जल संसाधन विभाग एवं आपदा नियंत्रण विभाग के द्वारा योजना के तहत तटबंध को मजबूत करने के लिए अधिकारियों द्वारा लगातार काम किया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इतनी तैयारी के बावजूद प्रत्येक वर्ष आपदा खासकर बाढ़ से बिहार को इतना नुकसान क्यों होता है?
बाढ़ विशेषज्ञों के अनुसार बाढ़ से नियंत्रण के लिए बिहार सरकार के कई विभाग एक साथ काम करते हैं। हालांकि इन विभागों के बीच समन्वय नहीं रहता है, इससे काम काफी धीमी गति से होता है। खासकर आपदा प्रबंधन विभाग और जल संसाधन विभाग के बीच।
कई जिलों में हैंडपंप से लेकर तालाब तक सूखे
वहीं दूसरी तरफ बिहार में दरभंगा, सीतामढ़ी, मधुबनी, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, शिवहर और पूर्वी व पश्चिमी चंपारण जिले के अधिकांश इलाकों में सूखे जैसी स्थिति है। खेतों में दरारें हैं, हैंडपंप सूखे हैं। शहर से गांव तक पानी के लिए हाहाकार मचा है।
सीतामढ़ी जिला स्थित रीगा प्रखंड के सौरभ कुमार बताते हैं, “लगभग 250 फीट बोरिंग लगे मोटर में पानी नहीं आ रहा है, खेतों के लिए पानी तो दूर की बात हो गई है। विरोध करने के बावजूद सरकार और अधिकारी नहीं सुन रहे हैं।”
मानसून कमजोर होने से राज्य के कई इलाकों में बारिश नहीं के बराबर हुई है। बारिश नहीं होने से इन इलाकों में मई वाली गर्मी जुलाई में पड़ रही है। राज्य में इस बार मानसून में सामान्य से 46 प्रतिशत कम बारिश हुई है। 20 जिलों में सामान्य से 50-89 प्रतिशत तक कम बारिश हुई है।
आपको बता दें कि खरीफ सीजन की शुरुआत में ही 20 जून 2025 को सूखा प्रबंधन को देखते हुए सूखा निवारण परियोजना की तैयारियों को लेकर कृषि मंत्री विजय कुमार सिन्हा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समीक्षा बैठक आयोजित की गई थी। इस बैठक का उद्देश्य था कि कृषि क्षेत्र को सूखे के प्रति अधिक सशक्त और संवेदनशील बनाया जाए। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मंत्री ने सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जल संरक्षण, फसल विविधीकरण और किसानों की आजीविका सुरक्षा के लिए तैयार की गई नीतियों की गहन समीक्षा करते हुए अधिकारियों को ठोस कार्य योजना के तहत तुरंत काम करने के निर्देश भी दिए। इसके बावजूद स्थिति बहुत ही नाज़ुक है।
सबसे ताज्जुब की बात है कि प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट ‘नल जल योजना’ भी कई जिलों में इस सूखे के आगे बेबस दिख रही है। भूजल स्तर में भारी गिरावट के कारण कई जगहों पर नलों में पानी नहीं आ रहा है, जिससे घर-घर पानी पहुंचाने का वादा अधूरा रह गया है। दरभंगा और समस्तीपुर जैसे कुछ इलाकों में, जब सरकारी मदद कम पड़ रही है, तो स्थानीय ग्राम पंचायतें और जागरूक ग्रामीण खुद आगे आ रहे हैं। वे अपने खर्चे पर टैंकरों से घर-घर पानी पहुंचा रहे हैं, ताकि कम से कम पीने के पानी की किल्लत से निपटा जा सके।
सबसे खराब स्थिति किसानों की है। ऐसा राज्य जहां 70-75 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर है, वहां वहां खेत सूखे पड़े हैं। यह स्थिति किसानों के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं है, क्योंकि उनकी पूरी आजीविका खेती पर ही निर्भर करती है। उन जिलों में हालत और भी बदतर है जहां कोई बड़ी बारहमासी नदी नहीं है।
बिहार सरकार में काम कर रहे एक अधिकारी नाम ना बताने की शर्त पर कहते हैं कि,”स्थिति बहुत ही नाजुक है। गाड़ी से पानी कितना का प्यास बुझा पाएगा। सरकार को इस विषय पर गंभीर रूप से सोचना चाहिए,नहीं तो बिहार की स्थिति भी महाराष्ट्र जैसी हो जाएगी।”
सरकार के तुगलकी फरमान का विरोध

बाढ़ और कटाव के बीच बिहार की शोक कहलाने वाली कोसी नदी के तटबंध पर बसे लोगों को खाली करने का सरकारी फरमान मिला है। जिसका विरोध वहां के लोग कर रहे हैं। पूर्वी कोसी तटबंध के किनारे बसे बाढ़ कटाव और भूमिहीन लोगों को जिला प्रशासन द्वारा घर हटाने को कहा गया है। इसी संबंध में पीरगंज ढाला के पास बैठक का आयोजन किया गया। जिसमें सैकड़ों पीड़ित पुरुष एवं महिलाओं ने सरकार के इस तुगलकी फरमान का जमकर विरोध प्रदर्शन किया।
कोसी नवनिर्माण मंत्र से जुड़े इंद्र नारायण सिंह कहते हैं कि, “जिला प्रशासन सुपौल ने पूर्वी तटबंध पर झोपड़ियां बनाकर बसे परिवारों को नोटिस भेज कर तटबंध खाली करने को कहा है। कोसी नवनिर्माण मंच इसका विरोध करता है। ये झोपड़ियां उन्हीं परिवारों की हैं, जिनके घर कोसी नदी की विनाश लीला के कारण नदी की गर्भ में समा गए थे। कई दिनों तक तो ये लोग अपना आशियाना बसाने के लिए इधर से उधर खानाबदोश की तरह भटकते रहे। कहीं जगह नहीं मिली तो थक हार कर तटबंध के किनारे झोपड़ी डाल बस गए। याद रहे ये वही परिवार हैं जिनके पूर्वजों ने अपनी छाती पर पत्थर रख विषपान कर यहां तक कि श्रमदान कर तटबंध को बनने दिया।”
आगे वह कहते हैं कि, “उस समय कई परिवारों को पुनर्वास तो मिला लेकिन आर्थिक पुनर्वास नहीं मिलने के कारण खेती करने पुनः तटबंध के भीतर आना पड़ा। प्रशासन द्वारा तटबंध पर बसे लोगों को घर खाली करने का नोटिस जारी करना कहीं से भी न्यायोचित नहीं है। प्रशासन को चाहिए कि पहले उन सभी परिवारों को किसी सरकारी जमीन पर बसाए उनकी समुचित व्यवस्था करें।”
हर साल बाढ़ और सुखाड़ झेलने वाले बिहार के लोग खुलकर कहते हैं कि बिहार में बाढ़ एक घोटाला है। जो नेता, ठेकेदार और अधिकारी के कमाई का जरिया बनता है।